महाराणा प्रताप भारतीय इतिहास के सर्वाधिक प्रसिद्ध योद्धाओं में से एक थे।
उनके पिता राणा उदय सिंह, सिसोदिया वंश के 12वें राजा थे। राणा प्रताप मेवाड़ के राजा थे। मेवाड़ आज के राजस्थान का एक हिस्सा था, जिस पर राजपूत लोग शासन करते थे। महाराणा प्रताप राजा उदय सिंह और महारानी जैवन्ताबाई के
सबसे बड़े पुत्र थे। प्रताप अपने युद्ध कौशल, राजनीतिज्ञ,
आदर्श संगठनकर्ता और अपने धर्म तथा देश की स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने को तत्पर रहने
वाले महान सेनानी थे। वह तिथि धन्य है, जब मेवाड़ की शौर्य-भूमि पर 'मेवाड़-मुकुट मणि' राणा प्रताप का जन्म हुआ। वे
अकेले ऐसे वीर थे, जिसने मुग़ल बादशाह अकबर की अधीनता किसी भी प्रकार
स्वीकार नहीं की। वे हिन्दू कुल के गौरव को सुरक्षित रखने में सदा तल्लीन रहे। महाराणा प्रताप की
जयंती विक्रमी
सम्वत् कॅलण्डर
के अनुसार प्रतिवर्ष ज्येष्ठ, शुक्ल पक्ष तृतीया को मनाई जाती है।
जन्म तथा परिचय
राजस्थान के कुम्भलगढ़ में राणा प्रताप का जन्म सिसोदिया राजवंश के महाराणा उदयसिंह एवं माता रानी जीवत कँवर के घर 9 मई, 1540 ई. को हुआ था। रानी जीवत
कँवर का नाम कहीं-कहीं जैवन्ताबाई भी उल्लेखित किया गया है। वे पाली के सोनगरा राजपूत अखैराज की पुत्री थीं। प्रताप का बचपन का नाम 'कीका' था। मेवाड़ के राणा उदयसिंह
द्वितीय की 33 संतानें थीं। उनमें प्रताप सिंह सबसे बड़े थे।
स्वाभिमान तथा धार्मिक आचरण उनकी विशेषता थी। प्रताप बचपन से ही ढीठ तथा बहादुर
थे। बड़ा होने पर वे एक महापराक्रमी पुरुष बनेंगे, यह सभी
जानते थे। सर्वसाधारण शिक्षा लेने से खेलकूद एवं हथियार बनाने की कला सीखने में
उनकी रुचि अधिक थी
विवाह
महाराणा प्रताप ने अपने जीवन में कुल ग्यारह विवाह किये थे।
राज्याभिषेक
प्रताप सिंह के काल में दिल्ली पर मुग़ल बादशाह अकबर का शासन था। हिन्दू राजाओं
की शक्ति का उपयोग कर दूसरे हिन्दू राजाओं को अपने नियंत्रण में लाना, यह मुग़लों की नीति थी। अपनी मृत्यु से पहले राणा उदयसिंह ने अपनी सबसे
छोटी पत्नी के बेटे जगमल को राजा घोषित किया, जबकि प्रताप
सिंह जगमल से बड़े थे। प्रताप सिंह अपने छोटे भाई के लिए अपना अधिकार छोड़कर
मेवाड़ से निकल जाने को तैयार थे, किंतु सभी सरदार राजा के
निर्णय से सहमत नहीं हुए। अत: सबने मिलकर यह निर्णय लिया कि जगमल को सिंहासन का
त्याग करना पड़ेगा। प्रताप सिंह ने भी सभी सरदार तथा लोगों की इच्छा का आदर करते
हुए मेवाड़ की
जनता का नेतृत्व करने का दायित्व स्वीकार किया। इस प्रकार बप्पा रावल के कुल की अक्षुण्ण कीर्ति की उज्ज्वल पताका, राजपूतों की आन एवं शौर्य का पुण्य प्रतीक, राणा साँगा का यह पावन पौत्र (विक्रम संवत 1628 फाल्गुन शुक्ल 15) तारीख़ 1 मार्च सन 1573 ई. को सिंहासनासीन हुआ।
कुशल प्रशासक
महाराणा प्रताप प्रजा के हृदय पर शासन करने
वाले शासक थे। उनकी एक आज्ञा हुई और विजयी सेना ने देखा कि उसकी विजय व्यर्थ है। चित्तौड़ भस्म हो गया, खेत उजड़ गये, कुएँ भर दिये गये और ग्राम के लोग जंगल एवं
पर्वतों में अपने समस्त पशु एवं सामग्री के साथ अदृश्य हो गये। शत्रु के लिये इतना
विकट उत्तर, यह उस समय महाराणा की अपनी सूझ थी। अकबर के उद्योग में राष्ट्रीयता का स्वप्न देखने
वालों को इतिहासकार बदायूँनी आसफ ख़ाँ के ये शब्द स्मरण कर लेने चाहिये कि- "किसी की ओर से सैनिक क्यों न
मरे, थे वे हिन्दू ही और प्रत्येक स्थिति में विजय इस्लाम की
ही थी।" यह कूटनीति थी अकबर की और महाराणा इसके समक्ष अपना राष्ट्रगौरव लेकर
अडिग भाव से उठे थे।
युद्धमय जीवन
सम्पूर्ण जीवन युद्ध करके और भयानक कठिनाइयों
का सामना करके राणा प्रताप ने जिस तरह से अपना जीवन व्यतीत किया, उसकी प्रशंसा इस संसार से मिट
न सकेगी। महाराणा प्रताप ने जो प्रतिज्ञा की थी, उसे अन्त तक
निभाया। राजमहलों को छोड़कर प्रताप ने पिछोला तालाब के निकट अपने लिए कुछ झोपड़ियाँ बनवाई थीं ताकि वर्षा में आश्रय लिया जा
सके। इन्हीं झोपड़ियों में प्रताप ने सपरिवार अपना जीवन व्यतीत किया था। प्रताप ने चित्तौड़ के उद्धार की प्रतिज्ञा की थी, परन्तु उसमें सफलता न मिली।
फिर भी, उन्होंने अपनी थोड़ी सी सेना की सहायता से मुग़लों की विशाल सेना को इतना अधिक परेशान किया कि
अन्त में अकबर को युद्ध बन्द कर
देना पड़ा।
प्रताप और चेतक
भारतीय इतिहास में जितनी महाराणा प्रताप की बहादुरी की चर्चा
हुई है, उतनी ही प्रशंसा उनके घोड़े चेतक को भी मिली। कहा जाता है कि चेतक कई फीट उंचे हाथी के मस्तक तक उछल सकता था। कुछ लोकगीतों के
अलावा हिन्दी कवि
श्यामनारायण पांडेय की वीर रस कविता 'चेतक की वीरता'
में उसकी बहादुरी की खूब तारीफ़ की गई है। हल्दीघाटी के युद्ध में चेतक, अकबर के सेनापति मानसिंह के हाथी के मस्तक की ऊँचाई
तक बाज की तरह उछल गया था। फिर महाराणा प्रताप ने मानसिंह पर वार किया। जब मुग़ल सेना महाराणा के
पीछे लगी थी, तब चेतक उन्हें अपनी पीठ पर लादकर 26 फीट लंबे नाले को लांघ गया, जिसे मुग़ल फौज का कोई
घुड़सवार पार न कर सका। प्रताप के साथ युद्ध में घायल चेतक को वीरगति मिली थी।
हल्दीघाटी
उदयपुर से नाथद्वारा जाने वाली सड़क से कुछ दूर हटकर पहाड़ियों के बीच स्थित हल्दीघाटी इतिहास प्रसिद्ध वह स्थान है,
जहाँ 1576 ई. में महाराणा प्रताप और अकबर की
सेनाओं के बीच घोर युद्ध हुआ। इस स्थान को 'गोगंदा' भी कहा जाता है। अकबर के समय के राजपूत नरेशों में महाराणा प्रताप ही ऐसे
थे, जिन्हें मुग़ल बादशाह की
मैत्रीपूर्ण दासता पसन्द न थी। इसी बात पर उनकी आमेर के मानसिंह से भी अनबन हो गई थी, जिसके फलस्वरूप मानसिंह के भड़काने
से अकबर ने स्वयं मानसिंह और सलीम (जहाँगीर) की
अध्यक्षता में मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए भारी सेना भेजी। 'हल्दीघाटी की लड़ाई' 18 जून, 1576 ई. को हुई थी। राजपूताने की पावन बलिदान-भूमि के समकक्ष, विश्व में इतना
पवित्र बलिदान स्थल कोई नहीं है। उस शौर्य एवं तेज़ की भव्य गाथा से इतिहास के
पृष्ठ रंगे हैं। भीलों का अपने देश और नरेश के
लिये वह अमर बलिदान राजपूत वीरों
की वह तेजस्विता और महाराणा का वह लोकोत्तर पराक्रम इतिहास और वीरकाव्य का परम
उपजीव्य है।
शक्तिसिंह द्वारा राणा
प्रताप की सुरक्षा
चेतक नाला तो लाँघ गया, पर अब उसकी गति धीरे-धीरे कम होती गई और पीछे से मुग़लों
के घोड़ों की टापें भी सुनाई पड़ीं। उसी समय प्रताप को अपनी मातृभाषा में आवाज़
सुनाई पड़ी- "हो, नीला घोड़ा रा असवार।" प्रताप ने
पीछे मुड़कर देखा तो उन्हें एक ही अश्वारोही दिखाई पड़ा और वह था, उनका भाई शक्तिसिंह। प्रताप के साथ व्यक्तिगत विरोध ने उसे देशद्रोही
बनाकर अकबर का सेवक बना दिया
था और युद्धस्थल पर वह मुग़ल पक्ष की तरफ़ से लड़ रहा था। जब उसने नीले घोड़े को
बिना किसी सेवक के पहाड़ की तरफ़ जाते हुए देखा तो वह भी चुपचाप उसके पीछे चल पड़ा,
परन्तु केवल दोनों मुग़लों को यमलोक पहुँचाने के लिए।
जीवन में पहली बार दोनों भाई प्रेम के साथ गले
मिले। इस बीच चेतक ज़मीन पर गिर पड़ा और जब प्रताप उसकी काठी को खोलकर अपने भाई
द्वारा प्रस्तुत घोड़े पर रख रहे थे, चेतक ने प्राण त्याग दिए। बाद
में उस स्थान पर एक चबूतरा खड़ा किया गया, जो आज तक उस स्थान
को इंगित करता है, जहाँ पर चेतक मरा था।
प्रताप को विदा करके
शक्तिसिंह खुरासानी सैनिक के घोड़े पर सवार होकर वापस लौट आया। सलीम (जहाँगीर) को
उस पर कुछ सन्देह पैदा हुआ। जब शक्तिसिंह ने कहा कि प्रताप ने न केवल पीछा करने
वाले दोनों मुग़ल सैनिकों को मार डाला अपितु मेरा घोड़ा भी छीन लिया। इसलिए मुझे
खुरासानी सैनिक के घोड़े पर सवार होकर आना पड़ा। सलीम ने वचन दिया कि अगर तुम सत्य
बात कह दोगे तो मैं तुम्हें क्षमा कर दूँगा। तब शक्तिसिंह ने कहा, "मेरे भाई के कन्धों पर मेवाड़ राज्य
का बोझा है। इस संकट के समय उसकी सहायता किए बिना मैं कैसे रह सकता था।" सलीम
ने अपना वचन निभाया, परन्तु शक्तिसिंह को अपनी सेवा से हटा
दिया।
राणा प्रताप की सेवा में पहुँचकर उन्हें अच्छी नज़र भेंट की जा सके, इस ध्येय से उसने भिनसोर नामक दुर्ग पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। उदयपुर पहुँचकर उस दुर्ग को भेंट में देते हुए शक्तिसिंह ने प्रताप का अभिवादन किया। प्रताप ने प्रसन्न होकर वह दुर्ग शक्तिसिंह को पुरस्कार में दे दिया। यह दुर्ग लम्बे समय तक उसके वंशजों के अधिकार में बना रहा। संवत 1632 (जुलाई, 1576 ई.) के सावन मास की सप्तमी का दिन मेवाड़ के इतिहास में सदा स्मरणीय रहेगा। उस दिन मेवाड़ के अच्छे रुधिर ने हल्दीघाटी को सींचा था। प्रताप के अत्यन्त निकटवर्ती पाँच सौ कुटुम्बी और सम्बन्धी, ग्वालियर का भूतपूर्व राजा रामशाह और साढ़े तीन सौ तोमर वीरों के साथ रामशाह का बेटा खाण्डेराव मारा गया। स्वामिभक्त झाला मन्नाजी अपने डेढ़ सौ सरदारों सहित मारा गया और मेवाड़ के प्रत्येक घर ने बलिदान किया।
मानसिंह से भेंट
शोलापुर की विजय के बाद मानसिंह वापस हिन्दुस्तान लौट रहा था। तब उसने राणा प्रताप से, जो इन दिनों कमलमीर में
थे, मिलने की इच्छा प्रकट की। कमलमीर उदयपुर के
निकट 3568 फुट ऊँची पहाड़ी पर बसा हुआ एक ऐतिहासिक स्थान है।
यहाँ प्रताप ने हल्दीघाटी के युद्ध के पश्चात अपनी राजधानी बनाई थी। चित्तौड़गढ़ के विध्वंस (1567 ई.) के पश्चात उनके पिता राणा उदयसिंह ने उदयपुर को अपनी राजधानी बनाया था, किंतु प्रताप
ने कमलमीर में रहना ही ठीक समझा; क्योंकि यह स्थान पहाड़ों
से घिरा होने के कारण अधिक सुरक्षित था। कमलमीर की स्थिति को उन्होंने और भी अधिक
सुरक्षित करने के लिए पहाड़ी पर कई दुर्ग बनवाए। अकबर के प्रधान सेनापति आमेर नरेश मानसिंह और
प्रताप की प्रसिद्ध भेंट यहीं हुई थी, जिसके बाद मानसिंह
रुष्ट होकर चला गया और मुग़ल सेना ने मेवाड़ पर
चढ़ाई की।
राणा की प्रतिज्ञा
महाराणा प्रताप ने प्रतिज्ञा की थी कि-
"वह माता के पवित्र दूध को कभी कलंकित नहीं करेंगे।" इस प्रतिज्ञा का
पालन उन्होंने पूरी तरह से किया। कभी मैदानी प्रदेशों पर धावा मारकर जन-स्थानों को
उजाड़ना तो कभी एक पर्वत से दूसरे पर्वत पर
भागना और इस विपत्ति काल में अपने परिवार का
पर्वतीय कन्दमूल-फल द्वारा भरण-पोषण करना और अपने पुत्र अमर का जंगली जानवरों और
जंगली लोगों के मध्य पालन करना, अत्यन्त कष्टप्राय कार्य था।
इन सबके पीछे मूल मंत्र यही था कि बप्पा रावल का वंशज किसी शत्रु अथवा देशद्रोही के सम्मुख शीश झुकाये, यह असम्भव बात थी। क़ायरों के योग्य इस पापमय विचार से ही प्रताप का हृदय टुकड़े-टुकड़े हो
जाता था।
तातार वालों को अपनी बहन-बेटी समर्पण कर
अनुग्रह प्राप्त करना, महाराणा प्रताप को किसी भी दशा में स्वीकार्य न था। "चित्तौड़ के उद्धार से पूर्व पात्र में भोजन, शैय्या पर शयन
दोनों मेरे लिये वर्जित रहेंगे।" महाराणा की यह प्रतिज्ञा अक्षुण्ण रही।
प्रताप के सरदारों का वचन
राणा प्रताप के समस्त सरदारों ने उनसे अंत समय
में कहा था कि- "महाराज! हम लोग बप्पा रावल के पवित्र सिंहासन की शपथ करते
हैं कि जब तक हम में से एक भी जीवित रहेगा, उस दिन तक कोई तुर्क मेवाड़ की
भूमि पर अधिकार न कर सकेगा। जब तक मेवाड़ भूमि की पूर्व-स्वाधीनता का पूरी तरह
उद्धार हो नहीं जायेगा, तब तक हम लोग कुटियों में निवास
करेंगे।" जब महाराणा प्रताप (विक्रम संवत 1653 माघ शुक्ल 11) तारीख़ 29 जनवरी, सन 1597 ई. में परमधाम की यात्रा करने लगे, उनके परिजनों और सामन्तों ने वही प्रतिज्ञा करके उन्हें आश्वस्त किया। अरावली के
कण-कण में महाराणा का जीवन-चरित्र अंकित है। शताब्दियों तक पतितों, पराधीनों और उत्पीड़ितों के लिये वह प्रकाश का काम देगा। चित्तौड़ की उस
पवित्र भूमि में युगों तक मानव स्वराज्य एवं स्वधर्म का अमर सन्देश झंकृत होता
रहेगा।
प्रताप की कठिनाईयाँ
महाराणा
प्रताप चित्तौड़ छोड़कर वनवासी हो गए थे। महाराणी, सुकुमार राजकुमारी और कुमार घास की रोटियों और निर्झर के जल पर ही किसी प्रकार जीवन व्यतीत करने को बाध्य
हुए। अरावली की गुफ़ाएँ ही अब उनका आवास थींं और शिला ही
शैय्या थी। दिल्ली का सम्राट सादर सेनापतित्व देने को प्रस्तुत
था। उससे भी अधिक वह केवल यह चाहता था कि प्रताप मुग़लों की अधीनता स्वीकार कर लें और उसका दम्भ सफल हो
जाये। हिन्दुत्व पर 'दीन-ए-इलाही'
स्वयं विजय प्राप्त
कर ले। राजपूती आन-बान-शान के प्रतीक राणा प्रताप, हिन्दुत्व का वह गौरव-सूर्य इस संकट, त्याग और तप में भी अम्लान रहा, अडिंग रहा। धर्म के लिये, आन के लिये यह तपस्या अकल्पित है।
हल्दीघाटी की विजय से प्रसन्न सलीम (जहाँगीर) पहाड़ियों
से लौट गया था, क्योंकि वर्षा ऋतु के आगमन से आगे बढ़ना सम्भव न था। इससे प्रताप को कुछ राहत मिली। परन्तु
कुछ समय बाद शत्रु पुनः चढ़ आया और प्रताप को एक बार पुनः पराजित होना पड़ा। तब
प्रताप ने कमलमीर को
अपना केन्द्र बनाया। मुग़ल सेनानायकों कोका
और शाहबाज ख़ाँ ने इस स्थान को भी घेर लिया। प्रताप ने जमकर मुक़ाबला किया और तब
तक इस स्थान को नहीं छोड़ा, जब तक पानी के विशाल स्रोत नोगन
के कुँए का पानी विषाक्त नहीं कर दिया गया। ऐसे घृणित विश्वासघात का श्रेय आबू के देवड़ा सरदार को जाता
है, जो इस समय अकबर के साथ मिला हुआ
था। कमलमीर से प्रताप चावंड चले गए और सोनगरे सरदार भान ने अपनी मृत्यु तक कमलमीर
की रक्षा की। कमलमीर के पतन के बाद राजा मानसिंह ने धरमेती और गोगुंडा के दुर्गों पर भी अधिकार कर लिया। इसी अवधि में मोहब्बत ख़ाँ ने उदयपुर पर
अधिकार कर लिया और अमीशाह नामक एक मुग़ल शाहज़ादा ने चावंड और अगुणा पानोर के
मध्यवर्ती क्षेत्र में पड़ाव डालकर यहाँ के भीलों से प्रताप को मिलने वाली सहायता
रोक दी। फ़रीद ख़ाँ नामक एक अन्य मुग़ल सेनापति ने छप्पन पर आक्रमण किया और दक्षिण
की तरफ़ से चावंड को घेर लिया। इस प्रकार प्रताप चारों तरफ़ से शत्रुओं से घिर गए
और बचने की कोई उम्मीद न थी। वह रोज़ाना एक स्थान से दूसरे स्थान, एक पहाड़ी से दूसरी पहाड़ी के गुप्त स्थानों में छिपते रहते और अवसर मिलने
पर शत्रु पर आक्रमण करने से भी न चूकते। फ़रीद ने प्रताप को पकड़ने के लिए चारों
तरफ़ अपने सैनिकों का जाल बिछा दिया था, परन्तु प्रताप की
छापामार पद्धति ने असंख्य मुग़ल सैनिकों को मौत के घाट पहुँचा दिया। वर्षा ऋतु ने
पहाड़ी नदियों और नालों को पानी से भर दिया, जिसकी वजह से
आने जाने के मार्ग अवरुद्ध हो गए। परिणामस्वरूप मुग़लों के आक्रमण स्थगित हो गए।
परिवार की सुरक्षा
समय गुज़रता गया और प्रताप की कठिनाइयाँ भयंकर
बनती गईं। पर्वत के जितने भी स्थान
प्रताप और उसके परिवार को
आश्रय प्रदान कर सकते थे, उन सभी पर मुग़ल सेना का आधिकार हो
गया था। राणा प्रताप को अपनी चिन्ता न थी, चिन्ता थी तो बस अपने परिवार
की ओर से छोटे-छोटे बच्चों की। वह किसी भी दिन शत्रु के हाथ में पड़ सकते थे। एक
दिन तो उनका परिवार शत्रुओं के पंजे में पहुँच गया था, परन्तु
कावा के स्वामीभक्त भीलों ने बचा लिया। भील लोग
राणा के बच्चों को टोकरों में छिपाकर जावरा की खानों में ले गये और कई दिनों तक
वहीं पर उनका पालन-पोषण किया। भील लोग स्वयं भूखे रहकर भी
राणा और परिवार के लिए खाने की सामग्री जुटाते रहते थे। जावरा और चावंड के घने
जंगल के वृक्षों पर लोहे के बड़े-बड़े कीले
अब तक गड़े हुए मिलते हैं। इन कीलों में बेतों के बड़े-बड़े टोकरे टाँग कर उनमें
राणा के बच्चों को छिपाकर वे भील राणा की सहायता करते थे। इससे बच्चे पहाड़ों के
जंगली जानवरों से भी सुरक्षित रहते थे। इस प्रकार की विषम परिस्थिति में भी प्रताप
का विश्वास नहीं डिगा।
अकबर द्वारा प्रशंसा
महाराणा
प्रताप को अपनी पत्नी तथा बच्चों सहित जंगलों में कठोर जीवन व्यतीत
करना पड़ रहा है, यह समाचार मुग़ल बादशाह अकबर ने भी सुना। उसने पता लगाने के लिए अपना एक
गुप्तचर भेजा। वह गुप्तचर किसी तरक़ीब से उस स्थान पर पहुँच गया, जहाँ राणा प्रताप और उनके सरदार एक घने जंगल के
मध्य एक वृक्ष के नीचे घास पर बैठे भोजन कर रहे थे। खाने में जंगली फल, पत्तियाँ और जड़ें थीं। परन्तु सभी लोग उस खाने
को उसी उत्साह के साथ खा रहे थे, जिस प्रकार कोई राजभवन में बने भोजन को प्रसन्नता और उमंग
के साथ खाता हो। गुप्तचर ने किसी के चेहरे पर उदासी और चिन्ता नहीं देखी। उसने
वापस आकर अकबर को पूरा वृत्तान्त सुनाया। सुनकर अकबर का हृदय भी पसीज गया और प्रताप के प्रति उसमें मानवीय
भावना जागृत हुई। उसने अपने दरबार के अनेक सरदारों से प्रताप के तप, त्याग और बलिदान की प्रशंसा की।
विकट परिस्थितियाँ
राणा प्रताप के समक्ष कभी-कभी ऐसे अवसर आ उपस्थित होते थे, जब अपने प्राणों से भी प्यारे लोगों को भयानक
आवाज़ से ग्रस्त देखकर वे भयभीत हो उठते थे। उनकी पत्नी किसी पहाड़ी या गुफ़ा में
भी असुरक्षित थी और उनके उत्तराधिकारी, जिन्हें हर प्रकार की सुविधाओं का अधिकार था, भूख से बिलखते उनके पास आकर रोने लगते। मुग़ल सैनिक इस प्रकार उनके पीछे पड़ गए थे कि भोजन तैयार होने पर
कभी-कभी खाने का अवसर भी नहीं मिल पाता था और सुरक्षा के लिए भोजन छोड़कर भागना
पड़ता था। एक दिन तो पाँच बार भोजन पकाया गया और हर बार भोजन को छोड़कर भागना
पड़ा। एक अवसर पर प्रताप की पत्नी और उनकी पुत्रवधु ने घास के बीजों को पीसकर कुछ
रोटियाँ बनाईं। उनमें से आधी रोटियाँ बच्चों को दे दी गईं और बची हुई आधी रोटियाँ
दूसरे दिन के लिए रख दी गईं। इसी समय प्रताप को अपनी लड़की की चिल्लाहट सुनाई दी।
एक जंगली बिल्ली लड़की के हाथ से उसके हिस्से की रोटी को छीनकर भाग गई और भूख से
व्याकुल लड़की के आँसू टपक आये।
यद्यपि इस प्रकार के कथानक असत्य हैं। प्रथम तो
राणा प्रताप के कोई पुत्री ही नहीं थी, इसलिए उसका रोना अप्रासंगिक है। दूसरा, जिस पहाड़ी भाग में राणा घूमते-फिरते थे, वह भाग इतना उपजाऊ था कि उन्हें खाने-पीने में
कठिनता का सामना करना पड़ा हो, यह समझ में नहीं आता। पिछले स्रोतों में भी इस कथा का कोई उल्लेख नहीं मिलता। ये तो कर्नल टॉड के मस्तिष्क की उपज मात्र है।
जीवन की दुरावस्था को देखकर राणा प्रताप का हृदय एक बार विचलित हो उठा। अधीर होकर उन्होंने ऐसे
राज्याधिकार को धिक्कारा, जिसकी वज़ह से जीवन में ऐसे करुण दृश्य देखने पड़े और उसी
अवस्था में अपनी कठिनाइयों को दूर करने के लिए उन्होंने एक पत्र के द्वारा अकबर से मिलने की इच्छा प्रकट की।
पृथ्वीराज द्वारा राणा
प्रताप का स्वाभिमान जाग्रत करना
राणा प्रताप के पत्र को पाकर अकबर की प्रसन्नता की
सीमा न रही। उसने इसका अर्थ प्रताप का आत्मसमर्पण समझा और उसने कई प्रकार के सार्वजनिक
उत्सव किए। अकबर ने उस पत्र को पृथ्वीराज नामक एक श्रेष्ठ एवं स्वाभिमानी राजपूत को
दिखलाया। पृथ्वीराज बीकानेर के नरेश का छोटा भाई था। बीकानेर नरेश ने मुग़ल सत्ता के सामने
शीश झुका दिया था। पृथ्वीराज केवल वीर ही नहीं, अपितु एक
योग्य कवि भी था। वह अपनी कविता से मनुष्य के हृदय को उन्मादित कर
देता था। वह सदा से प्रताप की आराधना करता आया था। प्रताप के पत्र को पढ़कर उसका
मस्तक चकराने लगा। उसके हृदय में भीषण पीड़ा की अनुभूति हुई। फिर भी अपने मनोभावों
पर अंकुश रखते हुए उसने अकबर से कहा कि-
"यह पत्र प्रताप का नहीं
है। किसी शत्रु ने प्रताप के यश के साथ यह जालसाज़ की है। आपको भी धोखा दिया है।
आपके ताज़ के बदले में भी वह आपकी आधीनता स्वीकार नहीं करेगा।"
सच्चाई को जानने के लिए उसने अकबर से अनुरोध किया कि
वह उसका पत्र प्रताप तक पहुँचा दे। अकबर ने उसकी बात मान ली और पृथ्वीराज ने राजस्थानी शैली में प्रताप को एक पत्र लिख भेजा।
राणा प्रताप का स्वाभिमान
अकबर ने सोचा कि इस पत्र से असलियत का पता चल
जायेगा और पत्र था भी ऐसा ही। परन्तु पृथ्वीराज ने उस पत्र के द्वारा प्रताप को उस
स्वाभीमान का स्मरण कराया, जिसकी खातिर उन्होंने अब तक
इतनी विपत्तियों को सहन किया था और अपूर्व त्याग व बलिदान के द्वारा अपना मस्तक
ऊँचा रखा था। पत्र में इस बात का भी उल्लेख था कि हमारे घरों की स्त्रियों की
मर्यादा छिन्न-भिन्न हो गई है और बाज़ार में वह मर्यादा बेची जा रही है। उसका
ख़रीददार केवल अकबर है। उसने सिसोदिया वंश के एक स्वाभिमानी पुत्र को छोड़कर सबको ख़रीद लिया है, परन्तु प्रताप को नहीं ख़रीद पाया है। वह ऐसा राजपूत नहीं,
जो नौरोजा के लिए अपनी मर्यादा का परित्याग कर सकता है। क्या अब चित्तौड़ का स्वाभिमान भी इस बाज़ार में बिक़ेगा। राठौर
पृथ्वीराज के ओजस्वी पत्र ने प्रताप के मन की निराशा को दूर कर दिया। उन्हें लगा
जैसे दस हज़ार राजपूतों की शक्ति उनके शरीर में समा गई हो। उन्होंने अपने
स्वाभिमान को क़ायम रखने का दृढ़ संकल्प कर लिया।
खुशरोज़ त्योहार
पृथ्वीराज के पत्र में "नौरोजा के लिए
मर्यादा का सौदा" करने की बात कही गई। इसका स्पष्टीकरण देना आवश्यक है। 'नौरोजा' का अर्थ "वर्ष का नया
दिन" होता है और पूर्व के मुसलमानों का यह धार्मिक त्योहार है। अकबर ने स्वयं इसकी
प्रतिष्ठा की थी और इसका नाम रखा "खुशरोज़" अर्थात् 'खुशी का दिन'। इसकी शुरुआत अकबर ने ही की थी। इस
अवसर पर सभी लोग उत्सव मनाते थे। राजदरबार में भी कई प्रकार के आयोजन किए जाते थे।
इस प्रकार के आयोजनों में एक प्रमुख आयोजन स्त्रियों का मेला था। एक बड़े स्थान पर
मेले का आयोजन किया जाता था, जिसमें केवल स्त्रियाँ ही भाग
लेती थीं। वे ही दुकानें लगाती थीं और वे ही ख़रीददारी करती थीं। पुरुषों का
प्रवेश निषिद्ध था। राजपूत स्त्रियाँ
भी दुकानें लगाती थीं। अकबर छद्म वेष में इस बाज़ार में जाता था।
कहा जाता है कि कई सुन्दर बालाएँ उसकी कामवासना
का शिकार हो अपनी मर्यादा लुटा बैठती थीं। एक बार राठौर पृथ्वीराज की स्त्री भी इस
मेले में शामिल हुई थी और उसने बड़े साहस तथा शौर्य के साथ अपने सतीत्व की रक्षा
की थी। वह शाक्तावत वंश की लड़की थी। उस मेले में घूमते हुए अकबर की नज़र उस पर
पड़ी और उसकी सुन्दरता से प्रभावित होकर अकबर की नियत बिगड़ गई और उसने किसी उपाय
से उसे मेले से अलग कर दिया। पृथ्वीराज की स्त्री ने जब क़ामुक अकबर को अपने
सम्मुख पाया तो उसने अपने वस्त्रों में छिपी कटार को निकालकर कहा, "ख़बरदार, अगर इस प्रकार की
तूने हिम्मत की। सौगन्ध खा कि आज से कभी किसी स्त्री के साथ में ऐसा व्यवहार न
करेगा।" अकबर के क्षमा माँगने के
बाद पृथ्वीराज की स्त्री मेले से चली गई। अबुल फ़ज़ल ने इस मेले के बारे में अलग बात लिखी है। उसके अनुसार बादशाह अकबर वेष
बदलकर मेले में इसलिए जाता था कि उसे वस्तुओं के भाव-ताव मालूम हो सकें।
महाराणा प्रताप द्वारा
दुर्गों पर अधिकार
पृथ्वीराज का पत्र पढ़ने के बाद राणा प्रताप ने अपने स्वाभिमान की रक्षा करने का निर्णय कर लिया, परन्तु मौजूदा परिस्थितियों में पर्वतीय स्थानों में रहते हुए मुग़लों का प्रतिरोध
करना सम्भव न था। अतः उन्होंने रक्तरंजित चित्तौड़ और मेवाड़ को
छोड़कर किसी दूरवर्ती स्थान पर जाने का विचार किया। उन्होंने तैयारियाँ शुरू कीं।
सभी सरदार भी प्रताप के साथ चलने को तैयार हो गए। चित्तौड़ के उद्धार की आशा अब
उनके हृदय से जाती रही थी। अतः प्रताप ने सिंध नदी के किनारे पर स्थित सोगदी राज्य की तरफ़ बढ़ने की योजना बनाई, ताकि बीच का मरुस्थल उनके शत्रु को उनसे दूर रखे।
भामाशाह का सम्पत्ति दान
अरावली को
पार कर जब राणा प्रताप मरुस्थल के किनारे पहुँचे ही थे कि एक आश्चर्यजनक घटना ने उन्हें पुनः वापस लौटने
के लिए विवश कर दिया। मेवाड़ के
वृद्ध मंत्री भामाशाह ने अपने जीवन में काफ़ी सम्पत्ति अर्जित की थी। वह अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति
के साथ प्रताप की सेवा में आ उपस्थित हुआ और उसने राणा प्रताप से मेवाड़ के उद्धार
की याचना की। यह सम्पत्ति इतनी अधिक थी कि उससे वर्षों तक 25,000 सैनिकों का खर्चा पूरा किया जा सकता था। भामाशाह
का नाम मेवाड़ के उद्धारकर्ताओं के रूप में आज भी सुरक्षित है। भामाशाह के इस
अपूर्व त्याग से प्रताप की शक्तियाँ फिर से जागृत हो उठी थीं।
दुर्गों पर अधिकार
महाराणा प्रताप ने वापस आकर राजपूतों की एक अच्छी सेना बना ली, जबकि उनके शत्रुओं को इसकी
भनक भी नहीं मिल पाई। ऐसे में प्रताप ने मुग़ल सेनापति शाहबाज़
ख़ाँ को देवीर नामक स्थान पर अचानक आ घेरा। मुग़लों ने जमकर सामना किया, परन्तु वे परास्त हुए। बहुत से मुग़ल मारे गए और बाक़ी
पास की छावनी की ओर भागे। राजपूतों ने आमेर तक उनका पीछा किया
और उस मुग़ल छावनी के अधिकांश सैनिकों को भी मौत के घाट उतार दिया गया। इसी समय कमलमीर पर
आक्रमण किया गया और वहाँ का सेनानायक अब्दुल्ला मारा गया और दुर्ग पर प्रताप का अधिकार
हो गया। थोड़े ही दिनों में एक के बाद एक करके बत्तीस दुर्गों पर अधिकार कर
लिया गया और दुर्गों में नियुक्त मुग़ल सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया गया। संवत 1586 (1530 ई.) में चित्तौड़, अजमेर और मांडलगढ़ को छोड़कर सम्पूर्ण मेवाड़ पर प्रताप ने अपना पुनः अधिकार जमा लिया। राजा मानसिंह को उसके देशद्रोह का बदला देने के लिए प्रताप ने आमेर राज्य के समृद्ध
नगर मालपुरा को लूटकर नष्ट कर दिया। उसके बाद प्रताप उदयपुर की
तरफ़ बढ़े। मुग़ल सेना बिना युद्ध लड़े ही वहाँ से चली गई और उदयपुर पर प्रताप का
अधिकार हो गया। अकबर ने थोड़े समय के लिए युद्ध बन्द कर दिया।
अकबर द्वारा युद्ध की
समाप्ति
सम्पूर्ण जीवन युद्ध करके और भयानक कठिनाइयों
का सामना करके राणा प्रताप ने जिस तरह से अपना जीवन व्यतीत किया, उसकी प्रशंसा
इस संसार से मिट न सकेगी, परन्तु इन सबके परिणामस्वरूप
प्रताप में समय से पहले ही बुढ़ापा आ गया। उन्होंने जो प्रतिज्ञा की थी, उसे अन्त तक निभाया। राजमहलों को छोड़कर प्रताप ने पिछोला तालाब के निकट अपने लिए कुछ झोपड़ियाँ बनवाई थीं ताकि वर्षा में आश्रय लिया जा
सके। इन्हीं झोपड़ियों में प्रताप ने सपरिवार अपना जीवन व्यतीत किया। अब जीवन का
अन्तिम समय आ पहुँचा था। प्रताप ने चित्तौड़ के उद्धार की प्रतिज्ञा की थी, परन्तु उसमें सफलता न
मिली। फिर भी, उन्होंने अपनी थोड़ी-सी सेना की सहायता से
मुग़लों की विशाल सेना को इतना अधिक परेशान किया कि अन्त में अकबर को युद्ध बन्द कर
देना पड़ा।
महाराणा प्रताप की मृत्यु
मुग़ल बादशाह अकबर के युद्ध बन्द कर देने से महाराणा
प्रताप को बड़ा दुःख हुआ। कठोर उद्यम और परिश्रम सहन कर उन्होंने
हज़ारों कष्ट उठाये थे, परन्तु शत्रुओं से चित्तौड़ का उद्धार न कर सके। वे एकाग्रचित्त से
चित्तौड़ के उस ऊँचे परकोटे और जयस्तम्भों को निहारा करते थे और अनेक विचार उठकर
हृदय को डाँवाडोल कर देते थे।
प्रताप का अपने सरदारों से कथन
ऐसे में ही एक दिन प्रताप एक साधारण कुटी में
लेटे हुए काल की कठोर आज्ञा की प्रतीक्षा कर रहे थे। उनके चारों तरफ़ उनके
विश्वासी सरदार बैठे हुए थे। तभी प्रताप ने एक लम्बी साँस ली। सलूम्बर के सामंन्त
ने कातर होकर पूछा- "महाराज! ऐसे कौन से दारुण दुःख ने आपको दुःखित कर रखा है
और अन्तिम समय में आपकी शान्ति को भंग कर रहा है।" प्रताप का उत्तर था-
"सरदार जी! अभी तक प्राण अटके हुए हैं, केवल एक ही आश्वासन की वाणी सुनकर यह अभी सुखपूर्वक देह को
छोड़ जायेगा। यह वाणी आप ही के पास है। आप सब लोग मेरे सम्मुख प्रतिज्ञा करें कि
जीवित रहते अपनी मातृभूमि किसी भी भाँति तुर्कों के हाथों में नहीं सौंपेंगे।
पुत्र राणा अमर सिंह हमारे पूर्वजों के गौरव की रक्षा नहीं कर सकेगा। वह मुग़लों के ग्रास से
मातृभूमि को नहीं बचा सकेगा। वह विलासी है, वह कष्ट नहीं झेल सकेगा।"
सरदारों का राणा से वचन
प्रताप का वाक्य पूरा होते ही समस्त सरदारों ने
उनसे कहा- "महाराज! हम लोग बप्पा रावल के पवित्र सिंहासन की शपथ करते हैं कि जब तक हम में से एक भी जीवित रहेगा, उस दिन तक कोई तुर्क मेवाड़ की भूमि पर अधिकार न कर सकेगा। जब तक
मेवाड़ भूमि की पूर्व-स्वाधीनता का पूरी तरह उद्धार हो नहीं जायेगा, तब तक हम लोग इन्हीं कुटियों में निवास
करेंगे।"
अपने विश्वासी सरदारों से इस संतोषजनक वाणी को
सुनते ही महाराणा प्रताप के प्राण निकल गए। यह 29 जनवरी, 1597 ई. का दिन था।
इस प्रकार एक ऐसे राजपूत के जीवन का अवसान हो गया, जिसकी स्मृति आज भी प्रत्येक सिसोदिया को प्रेरित कर रही है। इस संसार में जितने
दिनों तक वीरता का आदर रहेगा, उतने ही दिन तक राणा प्रताप की वीरता, माहात्म्य और गौरव संसार के नेत्रों के सामने अचल भाव से
विराजमान रहेगा। उतने दिन तक वह 'हल्दीघाट मेवाड़ की थर्मोपोली' और उसके अंतर्गत देवीर क्षेत्र 'मेवाड़ का मैराथन' नाम से पुकारा जाया करेगा।
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