विश्व परिवार दिवस (अंग्रेज़ी: International Day of Families) 15 मई को मनाया जाता है। इस वर्ष इस दिवस का
मुख्य विषय (Theme) ‘परिवार, स्वस्थ्य जीवन और टिकाऊ भविष्य’’ (Families, Healthy Lives and Sustainable Future) है। अंतर्राष्ट्रीय परिवार दिवस मनाने का
उद्देश्य ऐसे मुद्दों पर जागरूकता बढ़ाना है जिनका संबंध परिवार से होता है।
प्राणी जगत में परिवार सबसे छोटी इकाई है या फिर इस
समाज में भी परिवार सबसे छोटी इकाई है। यह
सामाजिक संगठन की मौलिक इकाई है। परिवार के अभाव में मानव समाज के संचालन की
कल्पना भी दुष्कर है। प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी परिवार का सदस्य रहा है या फिर
है। उससे अलग होकर उसके अस्तित्व को सोचा नहीं जा सकता है। हमारी संस्कृति और सभ्यता कितने ही
परिवर्तनों को स्वीकार करके अपने को परिष्कृत कर ले, लेकिन परिवार संस्था के अस्तित्व पर कोई
भी आंच नहीं आई। वह बने और बन कर भले टूटे हों लेकिन उनके अस्तित्व को नकारा नहीं
जा सकता है। उसके स्वरूप में परिवर्तन आया और उसके मूल्यों में परिवर्तन हुआ लेकिन
उसके अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाया जा सकता है। हम चाहे कितनी भी आधुनिक
विचारधारा में हम पल रहे हो लेकिन अंत में अपने संबंधों को विवाह संस्था से जोड़
कर परिवार में परिवर्तित करने में ही संतुष्टि अनुभव करते हैं।
इतिहास
संयुक्त राष्ट्र अमेरिका ने 1994 को अंतर्राष्ट्रीय परिवार
वर्ष घोषित किया था। समूचे संसार में लोगों के बीच परिवार की अहमियत बताने के लिए
हर साल 15 मई को अंतर्राष्ट्रीय परिवार दिवस मनाया जाने लगा
है। 1995 से यह सिलसिला जारी है।
परिवार की महत्ता समझाने के लिए विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। इस दिन के
लिए जिस प्रतीक चिह्न को चुना गया है, उसमें हरे रंग के एक गोल घेरे के बीचों
बीच एक दिल और घर अंकित किया गया है।
इससे स्पष्ट है कि किसी भी समाज का केंद्र परिवार ही होता है। परिवार ही हर उम्र
के लोगों को सुकून पहुँचाता है।
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अथर्ववेद में परिवार की कल्पना करते हुए कहा गया है,
अनुव्रतः पितुः पुत्रो
मात्रा भवतु संमनाः।
जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शन्तिवाम्॥
जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शन्तिवाम्॥
अर्थात पिता के प्रति पुत्र निष्ठावान
हो। माता के साथ पुत्र एकमन वाला हो। पत्नी पति से मधुर तथा कोमल शब्द बोले।
परिवार कुछ लोगों के साथ रहने से नहीं बन जाता। इसमें रिश्तों की एक मज़बूत डोर होती है, सहयोग के अटूट बंधन होते हैं, एक-दूसरे की सुरक्षा के वादे और इरादे होते हैं। हमारा यह फ़र्ज़ है कि इस रिश्ते की गरिमा को बनाए रखें। हमारी संस्कृति में, परंपरा में पारिवारिक एकता पर हमेशा से बल दिया जाता रहा है। परिवार एक संसाधन की तरह होता है। परिवार की कुछ अहम ज़िम्मेदारियां भी होती हैं। इस संसाधन के कई तत्व होते हैं।
परिवार कुछ लोगों के साथ रहने से नहीं बन जाता। इसमें रिश्तों की एक मज़बूत डोर होती है, सहयोग के अटूट बंधन होते हैं, एक-दूसरे की सुरक्षा के वादे और इरादे होते हैं। हमारा यह फ़र्ज़ है कि इस रिश्ते की गरिमा को बनाए रखें। हमारी संस्कृति में, परंपरा में पारिवारिक एकता पर हमेशा से बल दिया जाता रहा है। परिवार एक संसाधन की तरह होता है। परिवार की कुछ अहम ज़िम्मेदारियां भी होती हैं। इस संसाधन के कई तत्व होते हैं।
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दूलनदास ने कहा है,
दूलन यह परिवार सब, नदी नाव संजोग।
उतरि परे जहं-तहं चले, सबै बटाऊ लोग॥
उतरि परे जहं-तहं चले, सबै बटाऊ लोग॥
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जैनेन्द्र ने इतस्तत में कहा है,
“परिवार
मर्यादाओं से बनता है। परस्पर कर्त्तव्य होते हैं, अनुशासन
होता है और उस नियत परम्परा में कुछ जनों की इकाई हित के आसपास जुटकर व्यूह में
चलती है। उस इकाई के प्रति हर सदस्य अपना आत्मदान करता है, इज़्ज़त
ख़ानदान की होती है। हर एक उससे लाभ लेता है और अपना त्याग देता है”
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भारतीय परिवार
भारत मुख्यत: एक कृषि प्रधान देश है। यहाँ की
पारिवारिक रचना कृषि की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर की गयी है। इसके अतिरिक्त
भारतीय परिवार में परिवार की मर्यादा और आदर्श परंपरागत है। विश्व के किसी अन्य
समाज़ में गृहस्थ जीवन की इतनी पवित्रता, स्थायीपन, और पिता - पुत्र, भाई - भाई और पति - पत्नी के इतने
अधिक व स्थायी संबंधों का उदाहरण प्राप्त नहीं होता। विभिन्न क्षेत्रों, धर्मों, जातियों में सम्पत्ति के अधिकार, विवाह और विवाह विच्छेद आदि की प्रथा की दृष्टि से अनेक भेद पाए जाते हैं,
किंतु फिर भी 'संयुक्त
परिवार' का आदर्श सर्वमान्य है। संयुक्त परिवार में
संबंधी पति - पत्नी, उनकी अविवाहित संतानों के अति रिक्त
अधिक व्यापक होता है। अधिकतर परिवार में तीन पीढ़ियों और कभी कभी इससे भी अधिक
पीढ़ियों के व्यक्ति एक ही घर में, अनुशासन में और एक ही
रसोईघर से संबंध रखते हुए सम्मिलित संपत्ति का उपभोग करते हैं और एक साथ ही परिवार
के धार्मिक कृत्यों तथा संस्कारों में भाग लेते हैं। मुसलमानों और ईसाइयों में
संपत्ति के नियम भिन्न हैं, फिर भी संयुक्त परिवार के आदर्श,
परंपराएँ और प्रतिष्ठा के कारण इनका सम्पत्ति के अधिकारों का
व्यावहारिक पक्ष परिवार के संयुक्त रूप के अनुकूल ही होता है। संयुक्त परिवार का
कारण भारत की कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था के
अतिरिक्त प्राचीन परंपराओं तथा आदर्श में निहित है। रामायण और महाभारत की गाथाओं द्वारा यह आदर्श
जन जन प्रेषित है।
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परिवार संस्था का विकास
विवाह का परिवार के स्वरूपों से
गहन संबंध है। 'लेविस मार्गन' जैसे
विकासवादियों का मत है कि मानव समाज की प्रारंभिक अवस्था में विवाह प्रथा प्रचलित
नहीं थी और समाज में पूर्ण कामाचार का प्रचलन था। इसके बाद समय के साथ साथ धीरे
धीरे सामाजिक विकास के क्रम में 'यूथ विवाह', जिसमें कई पुरुषों और कई स्त्रियों का सामूहिक रूप से पति पत्नी होना),
'बहुपति' विवाह, 'बहुपत्नी'
विवाह और 'एक पत्नी' या 'एक पति' की व्यवस्था समाज में विकसित हुई। वस्तुत: 'बहुविवाह' और 'एकपत्नी'
की प्रथा असभ्य एवम सभ्य दोनों ही समाजों में पाई जाती है। अत: यह
मत सुसंत प्रतीत नहीं होता। मानव शिशु के पालन पोषण के लिए एक दीर्घ अवधि अपेक्षित
है। पहले शिशु की बाल्यावस्था में ही दूसरे अन्य छोटे शिशु उत्पन्न होते रहते हैं।
गर्भावस्था और प्रसूति के समय में माता की देख-रेख का होना आवश्यक है। पशुओं की
भाँति मनुष्य में रति की कोई विशेष ऋतु निश्चित नहीं है। अत: संभावना है कि मानव
समाज के आरंभ में या तो पूरा समुदाय ही या केवल पति पत्नी और शिशुओं का समूह ही
परिवार कहलाता था।
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