Sunday 30 April 2017

अंतरराष्ट्रीय श्रमिक दिवस

भारत सही दुनिया के अधिकतर देशों में 1 मई को अंतराष्ट्रीय मज़दूर दिवस के रूप में मनाया जाता है। अमेरिका और कनाडा में सितम्बर महीने के पहले सोमवार को ,मज़दूर दिवस घोषित किया जाता है। मज़दूर को आमतौर पर लोग गरीब समझकर उसके महत्व को अनदेखा करते हैं जबकि मज़दूर समाज और देश का महत्वपूर्ण हिस्सा है। देश की तरक़्क़ी में मज़दूर का योगदान बहुत महत्वपूर्ण है। हर छोटे और बड़े किसी भी प्रकार के निर्माण में मज़दूर का योगदान महत्वपूर्ण है चाहे वो एक छोटा सा मकान हो या अंतरिक्ष में भेजे जाने वाला कोई अंतरिक्ष यान ही क्यों न हो हर काम में मज़दूर की भूमिका महत्वपूर्ण है। मज़दूर के योगदान के बिना किसी भी तरह के निर्माण का पूरा हो पाना असंभव है। मज़दूर केवल पत्थर तोड़ने वाला, ईंटें धोने या किसी फैक्ट्री में मज़दूरी करने वाला व्यक्ति नहीं है बल्कि हर वो व्यक्ति जो शारीरिक या मानसिक श्रम के जरिये आना जीवन यापन करता है वो भी मज़दूर की श्रेणी में शामिल है। अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस को मनाने की शुरूआत 1 मई 1886 से मानी जाती है जब अमरीका की मज़दूर यूनियनों ने काम का समय 8 घंटे से ज़्यादा न रखे जाने के लिए हड़ताल की थी। इस हड़ताल दौरान के शिकागो में बम धमाका हुआ था। बम धमाका किसने किया इसके बारे में कुछ जानकारी स्पष्ट नहीं थी इस धमाके की घटना के बाद पुलिस ने प्रदर्शन कर रहे मज़दूरों पर गोली चला दी और इससे सात मज़दूरों की मौत हो गई । शुरआत में इस घटना का अमरीका पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा था लेकिन कुछ समय के बाद अमरीका में मज़दूरों के लिए 8 घंटे काम करने का समय निश्चित कर दिया गया था। मौजूदा समय भारत और अन्य देशों में मज़दूरों के 8 घंटे काम करने संबंधित क़ानून लागू है।

आठ घंटे के कार्य दिवस की जरुरत को बढ़ावा देने के लिये साथ ही संघर्ष को खत्म करने के लिये अंतरराष्ट्रीय श्रमिक दिवस या मई दिवस मनाया जाता है। पूर्व में मजदूरों की कार्य करने की स्थिति बहुत ही कष्टदायक थी और असुरक्षित परिस्थिति में भी 10 से 16 घंटे का कार्य-दिवस था। 1860 के दशक के दौरान मजदूरों के लिये कार्यस्थल पर मृत्यु, चोट लगना और कई प्रकार की करथिन परिस्थितियां आम बात थी और पूरे कार्य-दिवस के दौरान काम करने वाले लोग बहुत क्षुब्ध थे जब तक कि आठ घंटे का कार्य-दिवस घोषित नहीं कर दिया गया।

बहुत सारे उद्योगों में श्रमिक वर्ग लोग (पुरुष, महिला) की बढ़ती मृत्यु, उद्योगों में उनके काम करने के घंटे को घटाने के द्वारा कार्यकारी दल के लोगों की सुरक्षा के लिये आवाज उठाने की जरुरत थी। मजदूरों और समाजवादियों के द्वारा बहुत सारे प्रयासों के बाद अमेरिकन संघ के द्वारा 1884 में श़िकागो के राष्ट्रीय सम्मेलन में मजदूरों के लिये वैधानिक समय के रुप में आठ घंटे को घोषित किया गया।

मज़दूर समूह के लोगों की समाजिक और आर्थिक उपलब्धियों को बढ़ावा देने के लिये साथ ही शिकागो के हेयमार्केट नरसंहार की घटना को याद करने के लिये मई दिवस मनाया जाता है।

भारत में एक मई को मज़दूर दिवस सब से पहले चेन्नई में 1 मई 1923 को मनाना शुरू किया गया था। उस समय इसे मद्रास दिवस के तौर पर मनाया गया था। इस की शुरूआत भारतीय मज़दूर किसान पार्टी के नेता कामरेड सिंगरावेलू चेट्यार ने शुरू की थी। मद्रास में हाईकोर्ट के सामने एक बड़ा प्रदर्शन कर एक संकल्प के पारित करके यह सहमति बनाई गई कि इस दिवस को भारत में भी कामगार दिवस के तौर पर मनाया जाये और इस दिन छुट्टी का ऐलान किया जाये। भारत समेत लगभग 80 देशों में यह दिवस 1 मई को मनाया जाता है। इस पीछे तर्क है कि यह दिन अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस के तौर पर प्रवानित हो चुका है।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मज़दूरों के अधिकारों के लिए अंतरराष्ट्रीय श्रमिक संगठन (आईएलओ) का गठन किया गया। यह एक संस्था है जो संयुक्त राष्ट्र में उपस्थित है, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर श्रमिक मुद्दों को देखने के लिये स्थापित हुयी है। पूरे 193 (यूएन) सदस्य राज्य के इसमें लगभग 185 सदस्य हैं। विभिन्न वर्गों के बीच में शांति प्रचारित करने के लिये, मजदूरों के मुद्दों को देखने के लिये, राष्ट्र को विकसित बनाने के लिये, उन्हें तकनीकी सहायता प्रदान करने के लिये वर्ष 1969 में इसे नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। अंतरराष्ट्रीय श्रमिक संगठन (आईएलओ) मजदूर वर्ग के लोगों के लिये अंतरराष्ट्रीय नियमों के उल्लंघन की सभी शिकायतों को देखता है। इसके पास त्रिकोणिय संचालन संरचना है अर्थात् सरकार, नियोक्ता और मजदूर का प्रतिनिधित्व करना (सामान्यतया 2:1:1 के अनुपात में)सरकारी अंगों और सामाजिक सहयोगियों के बीच मुक्त और खुली चर्चा उत्पन्न करने के लिये, अंतरराष्ट्रीय श्रमिक कार्यालय के रुप में अंतरराष्ट्रीय श्रमिक संगठन सचिवालय कार्य करता है।

अंतरराष्ट्रीय श्रमिक संगठन (आईएलओ) के कार्यों में अंतरराष्ट्रीय श्रमिक सम्मेलन, स्वीकार करना या कार्यक्रम आयोजित करना, मुख्य निदेशक को चुनना, मजदूरों के मामलों के बारे में सदस्य राज्य के साथ व्यवहार, अंतरराष्ट्रीय श्रमिक कार्यालय कार्यवाही की जिम्मेदारी के साथ ही जाँच कमीशन की नियुक्ती के बारे में योजना बनाने या फैसले लेने के लिये संस्था को अधिकार प्राप्त है। अंतरराष्ट्रीय श्रमिक संगठन (आईएलओ) के पास लगभग 28 सरकारी प्रतिनिधि हैं, 14 नियोक्ता प्रतिनिधि और 14 श्रमिकों के प्रतिनिधि हैं। आम नीतियाँ बनाने के लिये, कार्यक्रम की योजना और बजट निर्धारित करने के लिये जून के महीने में जेनेवा में वार्षिक आधार पर ये एक अंतरराष्ट्रीय श्रमिक सभा आयोजित करता है (श्रमिकों की संसद के पास 4 प्रतिनिधि हैं, 2 सरकारी, 1 नियोक्ता और 1 मजदूरों का नुमाइंदा)। 

01 मई का इतिहास

भारतीय एवं विश्व इतिहास में 01 मई की प्रमुख घटनाएं इस प्रकार हैं.

1840 – ब्रिटेन ने पहला आधिकारिक डाक टिकट जारी किया।
1851 –
रानी विक्टोरिया ने लंदन में महा प्रदर्शनी का उद्घाटन।
1886 –
अमेरिका में कामगारों के लिये काम के घंटे तय करने को लेकर हड़ताल, 01 मई अंतरराष्ट्रीय मजदूरदिवस घोषित किया गया।
1897 –
स्वामी विवेकानंद ने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की।
1908 –
प्रफुल्ल चाकी ने मुजफ्फरपुर बम कांड को अंजाम देने के बाद खुद को गोली मारी।
1956 –
जोनास सॉल्क द्वारा विकसित पोलियो वैक्सीन जनता के लिए उपलब्ध करायी गयी।
1960 –
महाराष्ट्र और गुजरात अलग-अलग राज्य बने।
1972 –
देश की कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण किया गया।
1977 –
इस्तांबुल के तकसीम स्क्वायर में श्रम दिवस समारोह के दौरान 36 लोगों की मौत।
1999 –
मिरया मोस्कोसो पनामा की प्रथम महिला राष्ट्रपति नियुक्त की गईं।
2004 –
मारेक बेल्का पोलैंड के नए प्रधानमंत्री बने।
2009 –
स्वीडन में समलैंगिक विवाह को मान्यता दी गई।
2011 –
अमेरिका पर सितंबर 2001 हमले के मास्टरमाइंड ओसामा बिन लादेन के पाकिस्तान के एबटाबाद में मारे जाने की पुष्टि की गई।

Friday 28 April 2017

बेनिटो मुसोलिनी

बेनितो मुसोलिनी (२९जुलाई, १८८२ - २८ अप्रैल १९४५) इटली का एक राजनेता था जिसने राष्ट्रीय फासिस्ट पार्टी का नेतृत्व किया वह 1922-1943 तक देश का प्रधानमंत्री रहा. वह इटली के इतिहास में सबसे कम उम्र में प्रधानमंत्री बना. उसने 1925 तक संवैधानिक तरीके से शासन किया. उसके बाद उसने लोकतंत्र का गला घोंट दिया और कानूनी रूप से तानाशाही को अपना लिया. वह इटली के फासीवाद का जनक था. उसने दूसरे विश्वयुद्ध में एक्सिस समूह में मिलकर युद्ध कीया। वे हिटलर के निकटतम राजनीतिज्ञ थे। इनका जीवन अवसरवाद, आवारापन और प्रतिभा के मिश्रण से बना कहा गया है। उनकी गोली मारकर हत्या की गयी।फासीवाद का नेतृत्व किया था  जनरल फ्रेंको की सहायता की थी  तानाशाही के बाद उसने विरोधियों का अपनी खुफिया पुलिस के जरिये सफाया कर दिया. उसके बाद ऐसे कानून बनाए जिससे एक दल की तानाशाही का रास्‍ता इटली में प्रशस्‍त हुआ.
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प्रारंभिक जीवन
मुसोलिनी का जन्म 1883 की 29 जुलाई को इटली के प्रिदाप्यो नामक गाँव में हुआ था। अठारह वर्ष की अवस्था में ये एक पाठशाला में अध्यापक बने। 19 साल की उम्र में बेनितो भागकर स्विटजरलैंड चले गए। वहाँ वे मजदूरी करते और साथ ही रात को समाजवादियों से मिलते-जुलते और समाजवाद का अध्ययन करते। वहाँ से लौटकर कुछ समय तक सेना में कार्य किया। तदुपरांत घर लौटकर उन्होंने समाजवादी आंदोलन में भाग लेना जारी रखा और साथ ही वे पत्रकारिता में लग गए। 1912 तक वे समाजवादी दल के मुखपत्र "आवांति" के संपादक बन गए।

प्रथम विश्व युद्ध में फासीवाद और सेवा की शुरुआत

1914 में प्रथम महायुद्ध छिड़ने के साथ मुसोलिनि ने समाजवादियों की तरह यह मानने से इनकार किया कि इटली को निष्पक्ष रहना चाहिए। वे चाहते थे कि इटली ब्रिटेन और फ्रांस के पक्ष में लड़ाई में उतरे। इस कारण उन्हें "आवांति" के संपादक पद से अलग होना पड़ा और वे दल से निकाल दिए गए
1919 के 23 मार्च को मुसोलिनि ने अपने ढंग से राजनीति में एक नए संगठन को जन्म दिया। इस दल का नाम था "फासी-दि-कंबात्तिमेंती"। इसमें उन्होंने उन्हीं लोगों को लिया जो 1914 में उनके विचार के थे। इसमें मुख्यत: भूतपूर्व सैनिक आए। देश इस प्रकार के कार्यक्रम के लिए तैयार था क्योंकि समाजवादी कमजोर थे, भूतपूर्व सैनिकों में बेकारी फैल गई थी, भ्रष्टाचार बढ़ गया था, राष्ट्रीयता का जोर हो रहा था और लोगों में अंतरराष्ट्रीय समाजवाद के प्रति अनास्था उत्पन्न हो गई थी। मुसोलिनि धीरे-धीरे शक्तिशाली होते गए और एक चतुर अवसरवादी होने के कारण सभी अवसरों से वे लाभ उठाते रहे, यहाँ तक कि फासिस्टों ने रोम पर 30 अक्टूबर 1922 को कब्जा कर लिया। सरकारी सेना के तटस्थ हो जाने से यह संभव हुआ।

द्वितीय विश्व युद्ध
मुसोलिनि ने 1935 में अबीसीनिया पर हमला किया और कहा जा सकता है कि यहीं से द्वितीय महायुद्ध का प्रारंभ हुआ। अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में हिटलर और मुसोलिनि का गठबंधन हो चुका था और जब द्वितीय महायुद्ध छिड़ा तो हिटलर और मुसोलिनि यूरोप में एक तरफ थे और दूसरी तरफ ब्रिटेन तथा फ्रांस क्रमश: इसमें और भी शक्तियाँ आती गईं। पहले हिटलर की विजय हुई, फिर फासिस्टों की पराजय शुरू हुई।

पराजयों के कारण 25 जुलाई 1943 तक ऐसी स्थिति हो गई कि मुसोलिनि को प्रधान मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा और वे हिरासत में ले लिए गए। पर सितंबर में ही हिटलर ने उन्हें छुड़ाया और वे उत्तर इटली में एक कठपुतली राज्य के प्रधान के रूप में स्थापित किए गए।
इसके बाद भी फासिस्ट हारते ही चले गए और 26 अप्रैल 1945 को मित्र सेनाएँ इटली पहुँच गईं। देश के गुप्त प्रतिरोधकारियों ने इनका साथ दिया। उसी दिन मुसोलिनि स्विट्जरलैंड भागने की चेष्टा करते हुए प्रतिरोधकारियों द्वारा पकड़ लिए गए और 28 अप्रैल 1945 को उन्हें मृत्युदंड दिया गया।
इटली के फासीवादी तानाशाह बेनितो मुसोलिनी की एक समय में 14 प्रेमिकाएं थीं। मुसोलिनी की एक प्रेमिका की सार्वजनिक की गयी डायरियों से यह खुलासा हुआ है। वेटिकन के डाक्टर की बेटी क्लेरेता पेतासी 20 साल की उम्र में 1932 में मुसोलिनी से मिली थीं और चार साल बाद वह उनकी प्रेमिका बन गयीं। उनकी डायरियों में 1932 से 1938 के समय को लेकर घटनाओं का जिक्र हैं।



बाजीराव प्रथम

पेशवा बाजीराव प्रथम जन्म- 18 अगस्त, 1700 ई.; मृत्यु- 28 अप्रॅल, 1740 महान सेनानायक थे। वे १७२० से १७४० तक मराठा साम्राज्य के चौथे छत्रपति शाहूजी महाराज के पेशवा (प्रधानमन्त्री) रहे। वह बालाजी विश्वनाथ और राधाबाई का बड़ा पुत्र था। राजा शाहू ने बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु हो जाने के बाद उसे अपना दूसरा पेशवा (1720-1740 ई.) नियुक्त किया था। बाजीराव प्रथम को 'बाजीराव बल्लाल' तथा 'थोरले बाजीराव' के नाम से भी जाना जाता है। बाजीराव प्रथम विस्तारवादी प्रवृति का व्यक्ति था। उसने हिन्दू जाति की कीर्ति को विस्तृत करने के लिए 'हिन्दू पद पादशाही' के आदर्श को फैलाने का प्रयत्न किया। इन्होने अपने कुशल नेतृत्व एवं रणकौशल के बल पर मराठा साम्राज्य का विस्तार (विशेषतः उत्तर भारत में) किया। इसके कारण ही उनकी मृत्यु के २० वर्ष बाद उनके पुत्र के शासनकाल में मराठा साम्राज्य अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच सका। बाजीराव प्रथम को सभी ९ पेशवा में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
इनके पिता बालाजी विश्वनाथ पेशवा भी शाहूजी महाराज के पेशवा थे। बचपन से बाजीराव को घुड़सवारी करना, तीरंदाजी, तलवार भाला, बनेठी, लाठी आदि चलाने का शौक था। १३-१४ वर्ष की खेलने की आयु में बाजीराव अपने पिताजी के साथ घूमते थे। उनके साथ घूमते हुए वह दरबारी चालों व रीतिरिवाजों को आत्मसात करते रहते थे।यह क्रम १९-२० वर्ष की आयु तक चलता रहा। जब बाजीराव के पिता का अचानक निधन हो गया तो मात्र बीस वर्ष की आयु के बाजीराव को शाहूजी महाराज ने पेशवा बना दिया।
जब महाराज शाहू ने १७२० में बालाजी विश्वनाथ के मृत्यूपरांत उसके १९ वर्षीय ज्येष्ठपुत्र बाजीराव को पेशवा नियुक्त किया तो पेशवा पद वंशपरंपरागत बन गया। अल्पव्यस्क होते हुए भी बाजीराव ने असाधारण योग्यता प्रदर्शित की। पेशवा बनने के बाद अगले बीस वर्षों तक बाजीराव मराठा साम्राज्य को बढ़ाते रहे। उनका व्यक्तित्व अत्यंत प्रभावशाली था; तथा उसमें जन्मजात नेतृत्वशक्ति थी। अपने अद्भुत रणकौशल, अदम्य साहस और अपूर्व संलग्नता से, तथा प्रतिभासंपन्न अनुज चिमाजी अप्पा के सहयोग द्वारा शीघ्र ही उसने मराठा साम्राज्य को भारत में सर्वशक्तिमान् बना दिया। इसके लिए उन्हें अपने दुश्मनों से लगातार लड़ाईयाँ करना पड़ी। अपनी वीरता, अपनी नेतृत्व क्षमता कौशल युद्ध योजना द्वारा यह वीर हर लड़ाई को जीतता गया। विश्व इतिहास में बाजीराव पेशवा ऐसा अकेला योद्धा माना जाता है जो कभी नहीं हारा। छत्रपति शिवाजी महाराज की तरह वह बहुत कुशल घुड़सवार था। घोड़े पर बैठे-बैठे भाला चलाना, बनेठी घुमाना, बंदूक चलाना उनके बाएँ हाथ का खेल था। घोड़े पर बैठकर बाजीराव के भाले की फेंक इतनी जबरदस्त होती थी कि सामने वाला घुड़सवार अपने घोड़े सहित घायल हो जाता था।
इस समय भारत की जनता मुगलों के साथ-साथ अंग्रेजों पुर्तगालियों के अत्याचारों से त्रस्त हो चुकी थी। ये भारत के देवस्थान तोड़ते, जबरन धर्म परिवर्तन करते, महिलाओं बच्चों को मारते भयंकर शोषण करते थे। ऐसे में बाजीराव पेशवा ने उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक ऐसी विजय पताका फहराई कि चारों ओर उनके नाम का डंका बजने लगा। लोग उन्हें शिवाजी का अवतार मानने लगे। बाजीराव में शिवाजी महाराज जैसी ही वीरता व पराक्रम था तो वैसा ही उच्च चरित्र भी था।

शकरलेडला में उसने मुबारिज़खाँ को परास्त किया। (१७२४)। मालवा तथा कर्नाटक पर प्रभुत्व स्थापित किया (१७२४-२६)। पालखेड़ में महाराष्ट्र के परम शत्रु निजामउलमुल्क को पराजित कर (१७२८) उससे चौथ तथा सरदेशमुखी वसूली। फिर मालवा और बुंदेलखंड पर आक्रमण कर मुगल सेनानायक गिरधरबहादुर तथा दयाबहादुर पर विजय प्राप्त की (१७२८)। तदनंतर मुहम्मद खाँ बंगश को परास्त किया (१७२९)। दभोई में त्रिंबकराव को नतमस्तक कर (१७३१) उसने आंतरिक विरोध का दमन किया। सीदी, आंग्रिया तथा पुर्तगालियों को भी विजित किया। दिल्ली का अभियान (१७३७) उसकी सैन्यशक्ति का चरमोत्कर्ष था। उसी वर्ष भोपाल में उसने फिर से निजाम को पराजय दी। अंतत: १७३९ में उसने नासिरजंग पर विजय प्राप्त की।
योग्य सेनापति और राजनायक
बाजीराव प्रथम एक महान राजनायक और योग्य सेनापति था। उसने मुग़ल साम्राज्य की कमज़ोर हो रही स्थिति का फ़ायदा उठाने के लिए राजा शाहू को उत्साहित करते हुए कहा था कि-
"आओ हम इस पुराने वृक्ष के खोखले तने पर प्रहार करें, शाखायें तो स्वयं ही गिर जायेंगी। हमारे प्रयत्नों से मराठा पताका कृष्णा नदी से अटक तक फहराने लगेगी।"
इसके उत्तर में शाहू ने कहा कि-
"निश्चित रूप से ही आप इसे हिमालय के पार गाड़ देगें। निःसन्देह आप योग्य पिता के योग्य पुत्र हैं।"
राजा शाहू ने राज-काज से अपने को क़रीब-क़रीब अलग कर लिया था और मराठा साम्राज्य के प्रशासन का पूरा काम पेशवा बाजीराव प्रथम देखता था। बाजीराव प्रथम को सभी नौ पेशवाओं में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
दूरदृष्टा
बाजीराव प्रथम ने अपनी दूरदृष्टि से देख लिया था कि मुग़ल साम्राज्य छिन्न-भिन्न होने जा रहा है। इसीलिए उसने महाराष्ट्र क्षेत्र से बाहर के हिन्दू राजाओं की सहायता से मुग़ल साम्राज्य के स्थान पर 'हिन्दू पद पादशाही' स्थापित करने की योजना बनाई थी। इसी उद्देश्य से उसने मराठा सेनाओं को उत्तर भारत भेजा, जिससे पतनोन्मुख मुग़ल साम्राज्य की जड़ पर अन्तिम प्रहार किया जा सके। उसने 1723 ई. में मालवा पर आक्रमण किया और 1724 ई. में स्थानीय हिन्दुओं की सहायता से गुजरात जीत लिया।
साहसी एवं कल्पनाशील
बाजीराव प्रथम एक योग्य सैनिक ही नहीं, बल्कि विवेकी राजनीतिज्ञ भी था। उसने अनुभव किया कि मुग़ल साम्राज्य का अन्त निकट है तथा हिन्दू नायकों की सहानुभूति प्राप्त कर इस परिस्थिति का मराठों की शक्ति बढ़ाने में अच्छी तरह से उपयोग किया जा सकता है। साहसी एवं कल्पनाशील होने के कारण उसने निश्चित रूप से मराठा साम्राज्यवाद की नीति बनाई, जिसे प्रथम पेशवा ने आरम्भ किया था। उसने शाही शक्ति के केन्द्र पर आघात करने के उद्देश्य से नर्मदा के पार फैलाव की नीति का श्रीगणेश किया। अत: उसने अपने स्वामी शाहू से प्रस्ताव किया- "हमें मुर्झाते हुए वृक्ष के धड़ पर चोट करनी चाहिए। शाखाएँ अपने आप ही गिर जायेंगी। इस प्रकार मराठों का झण्डा कृष्णा से सिन्धु तक फहराना चाहिए।" बाजीराव के बहुत से साथियों ने उसकी इस नीति का समर्थन नहीं किया। उन्होंने उसे समझाया कि उत्तर में विजय आरम्भ करने के पहले दक्षिण में मराठा शक्ति को दृढ़ करना उचित है। परन्तु उसने वाक् शक्ति एवं उत्साह से अपने स्वामी को उत्तरी विस्तार की अपनी योग्यता की स्वीकृति के लिए राज़ी कर लिया।
'हिन्दू पद पादशाही' का प्रचार
हिन्दू नायकों की सहानुभूति जगाने तथा उनका समर्थन प्राप्त करने के लिए बाजीराव ने 'हिन्दू पद पादशाही' के आदर्श का प्रचार किया। जब उसने दिसम्बर, 1723 ई. में मालवा पर आक्रमण किया, तब स्थानीय हिन्दू ज़मींदारों ने उसकी बड़ी सहायता की, यद्यपि इसके लिए उन्हें अपार धन-जन का बलिदान करना पड़ा। गुजरात में गृह-युद्ध से लाभ उठाकर मराठों ने उस समृद्ध प्रान्त में अपना अधिकार स्थापित कर लिया। परन्तु इसके मामलों में बाजीराव प्रथम के हस्तक्षेप का एक प्रतिद्वन्द्वी मराठा दल ने, जिसका नेता पुश्तैनी सेनापति त्र्यम्बकराव दाभाड़े था, घोर विरोध किया।
सफलताएँ
बाजीराव प्रथम ने सर्वप्रथम दक्कन के निज़ाम निज़ामुलमुल्क से लोहा लिया, जो मराठों के बीच मतभेद के द्वारा फूट पैदा कर रहा था। 7 मार्च, 1728 को पालखेड़ा के संघर्ष में निजाम को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा और ‘मुगी शिवगांव’ संधि के लिए बाध्य होना पड़ा, जिसकी शर्ते कुछ इस प्रकार थीं-
·         शाहू को चौथ तथा सरदेशमुखी देना।
·         शम्भू की किसी तरह से सहायता न करना।
·         जीते गये प्रदेशों को वापस करना।
·         युद्ध के समय बन्दी बनाये गये लोगों को छोड़ देना आदि।

शिवाजी के वंश के कोल्हापुर शाखा के राजा शम्भुजी द्वितीय तथा निज़ामुलमुल्क, जो बाजीराव प्रथम की सफलताओं से जलते थे, त्र्यम्बकराव दाभाड़े से जा मिले। परन्तु बाजीराव प्रथम ने अपनी उच्चतर प्रतिभा के बल पर अपने शत्रुओं की योजनाओं को विफल कर दिया। 1 अप्रैल, 1731 ई. को ढावोई के निकट बिल्हापुर के मैदान में, जो बड़ौदा तथा ढावोई के बीच में है, एक लड़ाई हुई। इस लड़ाई में त्र्यम्बकराव दाभाड़े परास्त होकर मारा गया। बाजीराव प्रथम की यह विजय 'पेशवाओं के इतिहास में एक युगान्तकारी घटना है।' 1731 में निज़ाम के साथ की गयी एक सन्धि के द्वारा पेशवा को उत्तर भारत में अपनी शक्ति का प्रसार करने की छूट मिल गयी। बाजीराव प्रथम का अब महाराष्ट्र में कोई भी प्रतिद्वन्द्वी नहीं रह गया था और राजा शाहू का उसके ऊपर केवल नाम मात्र नियंत्रण था।
दक्कन के बाद गुजरात तथा मालवा जीतने के प्रयास में बाजीराव प्रथम को सफलता मिली तथा इन प्रान्तों में भी मराठों को चौथ एवं सरदेशमुखी वसूलने का अधिकार प्राप्त हुआ। ‘बुन्देलखण्ड’ की विजय बाजीराव की सर्वाधिक महान विजय में से मानी जाती है। मुहम्मद ख़ाँ वंगश, जो बुन्देला नरेश छत्रसाल को पूर्णत: समाप्त करना चाहता था, के प्रयत्नों पर बाजीराव प्रथम ने छत्रसाल के सहयोग से 1728 ई. में पानी फेर दिया और साथ ही मुग़लों द्वारा छीने गये प्रदेशों को छत्रसाल को वापस करवाया। कृतज्ञ छत्रसाल ने पेशवा की शान में एक दरबार का आयोजन किया तथा काल्पीसागरझांसी और हद्यनगर पेशवा को निजी जागीर के रूप में भेंट किया।
निज़ामुलमुल्क पर विजय
बाजीराव प्रथम ने सौभाग्यवश आमेर के सवाई जयसिंह द्वितीय तथा छत्रसाल बुन्देला की मित्रता प्राप्त कर ली। 1737 ई. में वह सेना लेकर दिल्ली के पार्श्व तक गया, परन्तु बादशाह की भावनाओं पर चोट पहुँचाने से बचने के लिए उसने अन्दर प्रवेश नहीं किया। इस मराठा संकट से मुक्त होने के लिए बादशाह ने बाजीराव प्रथम के घोर शत्रु निज़ामुलमुल्क को सहायता के लिए दिल्ली बुला भेजा। निज़ामुलमुल्क को 1731 ई. के समझौते की अपेक्षा करने में कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं हुई। उसने बादशाह के बुलावे का शीघ्र ही उत्तर दिया, क्योंकि इसे उसने बाजीराव की बढ़ती हुई शक्ति के रोकने का अनुकूल अवसर समझा। भोपाल के निकट दोनों प्रतिद्वन्द्वियों की मुठभेड़ हुई। निज़ामुलमुल्क पराजित हुआ तथा उसे विवश होकर सन्धि करनी पड़ी। इस सन्धि के अनुसार उसने निम्न बातों की प्रतिज्ञा की-
1.   बाजीराव को सम्पूर्ण मालवा देना तथा नर्मदा एवं चम्बल नदी के बीच के प्रदेश पर पूर्ण प्रभुता प्रदान करना।
2.   बादशाह से इस समर्पण के लिए स्वीकृति प्राप्त करना।
3.   पेशवा का ख़र्च चलाने के लिए पचास लाख रुपयों की अदायगी प्राप्त करने के लिए प्रत्येक प्रयत्न को काम में लाना।
अकाल मृत्यु
इन प्रबन्धों के बादशाह द्वारा स्वीकृत होने का परिणाम यह हुआ कि मराठों की प्रभुता, जो पहले ठेठ हिन्दुस्तान के एक भाग में वस्तुत: स्थापित हो चुकी थी, अब क़ानूनन भी हो गई। पश्चिमी समुद्र तट पर मराठों ने पुर्तग़ालियों से 1739 ई. में साष्टी तथा बसई छीन ली। परन्तु शीघ्र ही बाजीराव प्रथम, नादिरशाह के आक्रमण से कुछ चिन्तित हो गया। अपने मुसलमान पड़ोसियों के प्रति अपने सभी मतभेदों को भूलकर पेशवा ने पारसी आक्रमणकारी को संयुक्त मोर्चा देने का प्रयत्न किया। परन्तु इसके पहले की कुछ किया जा सकता, 28 अप्रैल, 1740 ई. में नर्मदा नदी के किनारे उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार एक महान मराठा राजनीतिज्ञ चल बसा, जिसने अपने व्यक्तिगत चरित्र में कुछ धब्बों के बावज़ूद मराठा राज्य की सेवा करने की भरसक चेष्टा की।
मराठा मण्डल की स्थापना
बाजीराव प्रथम को अनेक मराठा सरदारों के विरोध का सामना करना पड़ा था। विशेषरूप से उन सरदारों का जो क्षत्रिय थे और ब्राह्मण पेशवा की शक्ति बढ़ने से ईर्ष्या करते थे। बाजीराव प्रथम ने पुश्तैनी मराठा सरदारों की शक्ति कम करने के लिए अपने समर्थकों में से नये सरदार नियुक्त किये थे और उन्हें मराठों द्वारा विजित नये क्षेत्रों का शासक नियुक्त किया था। इस प्रकार मराठा मण्डल की स्थापना हुई, जिसमें ग्वालियर के शिन्दे, बड़ौदा के गायकवाड़इन्दौर के होल्कर और नागपुर के भोंसला शासक शामिल थे। इन सबके अधिकार में काफ़ी विस्तृत क्षेत्र था। इन लोगों ने बाजीराव प्रथम का समर्थन कर मराठा शक्ति के प्रसार में बहुत सहयोग दिया था। लेकिन इनके द्वारा जिस सामन्तवादी व्यवस्था का बीजारोपण हुआ, उसके फलस्वरूप अन्त में मराठों की शक्ति छिन्न-भिन्न हो गयी। यदि बाजीराव प्रथम कुछ समय और जीवित रहता, तो सम्भव था कि वह इसे रोकने के लिए कुछ उपाय करता। उसको बहुत अच्छी तरह मराठा साम्राज्य का द्वितीय संस्थापक माना जा सकता है।
मराठा शक्ति का विभाजन
बाजीराव प्रथम ने बहुत अंशों में मराठों की शक्ति और प्रतिष्ठा को बढ़ा दिया था, परन्तु जिस राज्य पर उसने अपने स्वामी के नाम से शासन किया, उसमें ठोसपन का बहुत आभाव था। इसके अन्दर राजाराम के समय में जागीर प्रथा के पुन: चालू हो जाने से कुछ अर्ध-स्वतंत्र मराठा राज्य पैदा हो गए। इसका स्वाभाविक परिणाम हुआ, मराठा केन्द्रीय सरकार का दुर्बल होना तथा अन्त में इसका टूट पड़ना। ऐसे राज्यों में बरार बहुत पुराना और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था। यह उस समय रघुजी भोंसले के अधीन था, जिसका राजा शाहू के साथ वैवाहिक सम्बन्ध था। उसका परिवार पेशवा के परिवार से पुराना था, क्योंकि यह राजाराम के शासनकाल में ही प्रसिद्ध हो चुका था। दाभाड़े परिवार ने मूलरूप से गुजरात पर अधिकार कर रखा था, परन्तु पुश्तैनी सेनापति के पतन के बाद उसके पहले के पुराने अधीन रहने वाले गायकवाड़ों ने बड़ौदा में अपना अधिकार स्थापित कर लिया। ग्वालियर के सिंधिया वंश के संस्थापक रणोजी सिंधिया ने बाजीराब प्रथम के अधीन गौरव के साथ सेवा की तथा मालवा के मराठा राज्य में मिलाये जाने के बाद इस प्रान्त का एक भाग उसके हिस्से में पड़ा। इन्दौर परिवार के मल्हारराव व होल्कर ने भी बाजीराव प्रथम के अधीन विशिष्ट रूप से सेवा की थी तथा मालवा का एक भाग प्राप्त किया था। मालवा में एक छोटी जागीर पवारों को मिली, जिन्होंने धार में अपनी राजधानी बनाई।
विलक्षण व्यक्तित्व

बाजीराव प्रथम ने मराठा शक्ति के प्रदर्शन हेतु 29 मार्च, 1737 को दिल्ली पर धावा बोल दिया था। मात्र तीन दिन के दिल्ली प्रवास के दौरान उसके भय से मुग़ल सम्राट मुहम्मदशाह दिल्ली को छोड़ने के लिए तैयार हो गया था। इस प्रकार उत्तर भारत में मराठा शक्ति की सर्वोच्चता सिद्ध करने के प्रयास में बाजीराव प्रथम सफल रहा था। उसने पुर्तग़ालियों से बसई और सालसिट प्रदेशों को छीनने में सफलता प्राप्त की थी। शिवाजी के बाद बाजीराव प्रथम ही दूसरा ऐसा मराठा सेनापति था, जिसने गुरिल्ला युद्ध प्रणाली को अपनाया। वह 'लड़ाकू पेशवा' के नाम से भी जाना जाता है। बाजीराव-प्रथम 'मस्तानी' नाम की मुस्लिम स्त्री से प्रेम सम्बन्धों के कारण भी चर्चित रहा था। अपने यशोसूर्य के मध्यकाल में ही २८ अप्रैल १७४० को अचानक रोग के कारण उसकी असामयिक मृत्यु हुई। मस्तानी नामक मुसलमान स्त्री से उसके पत्नीसंबंध के प्रति विरोधप्रदर्शन के कारण उसके अंतिम दिन क्लेशमय बीते। उसके निरंतर अभियानों के परिणामस्वरूप निस्संदेह, मराठा शासन को अत्याधिक भार वहन करना पड़ा, मराठा साम्राज्य सीमतीत विस्तृत होने के कारण असंगठित रह गया, मराठा संघ में व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएँ प्रस्फुटित हुई, तथा मराठा सेनाएँ विजित प्रदेशों में असंतुष्टिकारक प्रमाणित हुई; तथापि बाजीराव की लौह लेखनी ने निश्चय ही महाराष्ट्रीय इतिहास का गौरवपूर्ण परिच्छेद रचा।