सिंधु घाटी सभ्यता (अंग्रेज़ी:Indus Valley
Civilization) विश्व की प्राचीन नदी घाटी सभ्यताओं में से एक प्रमुख सभ्यता थी। यह हड़प्पा
सभ्यता और सिंधु-सरस्वती सभ्यता के नाम से भी जानी जाती है। आज से लगभग 77
वर्ष पूर्व पाकिस्तान के 'पश्चिमी पंजाब प्रांत' के 'माण्टगोमरी ज़िले'
में स्थित 'हरियाणा' के निवासियों को शायद इस बात का किंचित्मात्र भी आभास नहीं था
कि वे अपने आस-पास की ज़मीन में दबी जिन ईटों का प्रयोग इतने धड़ल्ले से अपने
मकानों के निर्माण में कर रहे हैं, वह कोई साधारण ईटें नहीं, बल्कि लगभग 5,000
वर्ष पुरानी और पूरी तरह विकसित सभ्यता के अवशेष हैं। इसका आभास उन्हें
तब हुआ जब 1856 ई. में 'जॉन विलियम ब्रन्टम' ने कराची से लाहौर तक
रेलवे लाइन बिछवाने हेतु ईटों की आपूर्ति के इन खण्डहरों की खुदाई प्रारम्भ
करवायी। खुदाई के दौरान ही इस सभ्यता के प्रथम अवशेष प्राप्त हुए, जिसे इस सभ्यता
का नाम ‘हड़प्पा सभ्यता‘ का नाम दिया गया।
खोज
इस अज्ञात सभ्यता की खोज का श्रेय 'रायबहादुर दयाराम
साहनी' को जाता है। उन्होंने ही पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग के महानिदेशक 'सर जॉन मार्शल' के
निर्देशन में 1921 में इस स्थान की खुदाई करवायी। लगभग एक वर्ष बाद 1922 में 'श्री
राखल दास बनर्जी' के नेतृत्व में पाकिस्तान के सिंध प्रान्त के 'लरकाना' ज़िले के मोहनजोदाड़ो में स्थित एक बौद्ध स्तूप की खुदाई के समय एक और स्थान का पता चला। इस नवीनतम
स्थान के प्रकाश में आने क उपरान्त यह मान लिया गया कि संभवतः यह सभ्यता सिंधु नदी की घाटी तक ही सीमित है, अतः इस सभ्यता का नाम ‘सिधु
घाटी की सभ्यता‘ (Indus Valley Civilization) रखा गया। सबसे पहले 1927 में
'हड़प्पा' नामक स्थल पर उत्खनन होने के कारण 'सिन्धु सभ्यता' का नाम 'हड़प्पा
सभ्यता' पड़ा। पर कालान्तर में 'पिग्गट' ने हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ों को ‘एक
विस्तृत साम्राज्य की जुड़वा राजधानियां‘ बतलाया
कुल 6 नगर
अब तक भारतीय उपमहाद्वीप
में इस सभ्यता के लगभग 1000 स्थानों का पता चला है जिनमें कुछ ही परिपक्व अवस्था
में प्राप्त हुए हैं। इन स्थानों के केवल 6 को ही नगर की संज्ञा दी जाती है। ये
हैं -
1. हड़प्पा
2. मोहनजोदाड़ो
3. चन्हूदड़ों
4. लोथल
5. कालीबंगा
6. हिसार
7. बणावली
नगर की पश्चिमी टीले पर
सम्भवतः सुरक्षा हेतु एक 'दुर्ग' का निर्माण हुआ था जिसकी उत्तर से दक्षिण की ओर
लम्बाई 460 गज एवं पूर्व से पश्चिम की ओर लम्बाई 215 गज थी। ह्वीलर द्वारा इस टीले
को 'माउन्ट ए-बी' नाम प्रदान किया गया है। दुर्ग के चारों ओर क़रीब 45 फीट चौड़ी
एक सुरक्षा प्राचीर का निर्माण किया गया था जिसमें जगह-जगह पर फाटकों एव रक्षक
गृहों का निर्माण किया गया था। दुर्ग का मुख्य प्रवेश मार्ग उत्तर एवं दक्षिण दिशा
में था। दुर्ग के बाहर उत्तर की ओर 6 मीटर ऊंचे 'एफ' नामक टीले पर पकी ईटों से
निर्मित अठारह वृत्ताकार चबूतरे मिले हैं जिसमें प्रत्येक चबूतरे का व्यास क़रीब
3.2 मीटर है चबूतरे के मध्य में एक बड़ा छेद हैं, जिसमें लकड़ी की ओखली लगी थी, इन छेदों से जौ,
जले गेहूँ एवं भूसी के अवशेष मिलते हैं। इस क्षेत्र में श्रमिक आवास के रूप में पन्द्रह
मकानों की दो पंक्तियां मिली हैं जिनमें सात मकान उत्तरी पंक्ति आठ मकान दक्षिणी
पंक्ति में मिले हैं। प्रत्येक मकान में एक आंगन एवं क़रीब दो कमरे अवशेष प्राप्त
हुए हैं। ये मकान आकार में 17x7.5 मीटर के थे। चबूतरों के उत्तर की ओर निर्मित
अन्नागारों को दो पंक्तियां मिली हैं, जिनमें प्रत्येक पंक्ति में 6-6 कमरे
निर्मित हैं, दोनों पंक्तियों के मध्य क़रीब 7 मीटर चौड़ा एक रास्ता बना था।
प्रत्येक अन्नागार क़रीब 15.24 मीटर लम्बा एवं 6.10 मीटर चौड़ा है।
विशेष इमारतें
सिंधु घाटी प्रदेश में
हुई खुदाई कुछ महत्त्वपूर्ण ध्वंसावशेषों के प्रमाण मिले हैं। हड़प्पा की खुदाई
में मिले अवशेषों में महत्त्वपूर्ण थे -
1. दुर्ग
2. रक्षा-प्राचीर
3. निवासगृह
4. चबूतरे
5. अन्नागार आदि ।
सभ्यता का विस्तार
अब तक इस सभ्यता के अवशेष पाकिस्तान और भारत के पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान, गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, जम्मू-कश्मीर के भागों में पाये जा
चुके हैं। इस सभ्यता का फैलाव उत्तर में 'जम्मू' के 'मांदा' से लेकर दक्षिण में नर्मदा के मुहाने 'भगतराव' तक और
पश्चिमी में 'मकरान' समुद्र तट पर 'सुत्कागेनडोर' से लेकर पूर्व में पश्चिमी उत्तर
प्रदेश में मेरठ तक है। इस सभ्यता का सर्वाधिक पश्चिमी पुरास्थल
'सुत्कागेनडोर', पूर्वी पुरास्थल 'आलमगीर', उत्तरी पुरास्थल 'मांडा' तथा दक्षिणी
पुरास्थल 'दायमाबाद' है। लगभग त्रिभुजाकार वाला यह भाग कुल क़रीब 12,99,600 वर्ग
किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है। सिन्धु सभ्यता का विस्तार का पूर्व से
पश्चिमी तक 1600 किलोमीटर तथा उत्तर से दक्षिण तक 1400 किलोमीटर था। इस प्रकार
सिंधु सभ्यता समकालीन मिस्र या 'सुमेरियन सभ्यता' से अधिक विस्तृत क्षेत्र में फैली थी।
सिंधु सभ्यता स्थल
बलूचिस्तान
उत्तरी बलूचिस्तान में स्थित 'क्वेटा' तथा 'जांब' की धारियों में सैंधव सभ्यता से सम्बन्धित
कोई भी स्थल नहीं है। किन्तु दक्षिणी बलूचिस्तान में सैंधव सभ्यता के कई पुरास्थल
स्थित हैं जिसमें अति महत्त्वपूर्ण है 'मकरान तट'। मकरान तट प्रदेश पर मिलने वाले
अनेक स्थलों में से पुरातात्विक दृष्टि से केवल तीन स्थल महत्त्वपूर्ण हैं-
1. सुत्कागेनडोर (दश्क नदी
के मुहाने पर)
2. सुत्काकोह (शादीकौर के
मुहाने पर)
3. बालाकोट (विंदार नदी के
मुहाने पर)
4. डावरकोट (सोन मियानी
खाड़ी के पूर्व में विदर नदी के मुहाने पर)
उत्तर पश्चिमी सीमांत
यहाँ सारी सामग्री, 'गोमल
घाटी' में केन्द्रित प्रतीत होती है जो अफ़ग़ानिस्तान जाने का एक अत्यंत
महत्त्वपूर्ण मार्ग है। 'गुमला' जैसे स्थलों पर सिंधु पूर्व सभ्यता के निक्षेपों
के ऊपर सिंधु सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
सिंधु
इनमें कुछ स्थल प्रसिद्ध
हैं जैसे - 'मोहनजोदड़ों', 'चन्हूदड़ों', 'जूडीरोजोदड़ों', (कच्छी मैदान में
जो कि सीबी और जैकोबाबाद के बीच सिंधु की बाढ़ की मिट्टी का विस्तार है) 'आमरी'
(जिसमें सिंधु पूर्व सभ्यता के निक्षेप के ऊपर सिंधु सभ्यता के निक्षेप मिलते हैं)
'कोटदीजी', 'अलीमुराद', 'रहमानढेरी', 'राणाधुडई' इत्यादि।
पश्चिमी पंजाब
इस क्षेत्र में बहुत
ज़्यादा स्थल नहीं है। इसका कारण समझ में नहीं आता। हो सकता है पंजाब की नदियों ने अपना मार्ग बदलते-बदलते कुछ स्थलों का नष्ट कर
दिया हो। इसके अतिरिक्त 'डेरा इस्माइलखाना', 'जलीलपुर', 'रहमानढेरी', 'गुमला',
'चक-पुरवानस्याल' आदि महत्त्वपूर्ण पुरास्थल है।
बहावलपुर
यहाँ के स्थल सूखी हुई सरस्वती नदी के मार्ग पर स्थित हैं।
इस मार्ग का स्थानीय नाम का ‘हकरा‘ है । 'घग्घर हमरा' अर्थात सरस्वतीदृशद्वती नदियों की घाटियों में
हड़प्पा संस्कृति के स्थलों का सर्वाधिक संकेन्द्रण (सर्वाधिक स्थल) प्राप्त हुआ
है। किन्तु इस क्षेत्र में अभी तक किसी स्थल का उत्खनन नहीं हुआ है। इस स्थल का
नाम 'कुडावाला थेर' है जो प्रकटतः बहुत बड़ा है।
राजस्थान
यहाँ के स्थल 'बहाबलपुर'
के स्थलों के निरंतर क्रम में हैं जो प्राचीन सरस्वती नदी के सूखे हुए मार्ग पर स्थित
है। इस क्षेत्र में सरस्वती नदी को 'घघ्घर' कहा जाता है।
कुछ प्राचीन दृषद्वती नदी के सूखे हुए मार्ग के साथ- साथ भी है जिसे अब 'चैतग नदी'
कहा जाता है। इस क्षेत्र का सबसे महत्त्वपूर्ण स्थल 'कालीबंगा' है। कालीबंगा नामक पुरास्थल पर भी
पश्चिमी से गढ़ी और पूर्व में नगर के दो टीले, हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ों, की भांति
विद्यमान है। राजस्थान के समस्त सिंधु सभ्यता के स्थल आधुनिक गंगानगर ज़िले में आते हैं।
हरियाणा
हरियाणा का महत्त्वपूर्ण सिंधु
सभ्यता स्थल हिसार ज़िले में स्थित 'बनवाली' है।
इसके अतिरिक्त 'मिथातल', 'सिसवल', 'वणावली', 'राखीगढ़', 'वाड़ा तथा 'वालू' नामक
स्थलों का भी उत्खनन किया जा चुका है।
पूर्वी पंजाब
इस क्षेत्र के महत्त्वपूर्ण
स्थल 'रोपड़ संधोल' है। हाल ही में चंडीगढ़ नगर में भी हड़प्पा
संस्कृति के निक्षेप पाये गये हैं। इसके अतिरिक्त 'कोटलानिहंग ख़ान', 'चक 86
वाड़ा', 'ढेर-मजरा' आदि पुरास्थलों से सैंधव सभ्यता से सम्बद्ध पुरावशेष प्राप्त
हुए है।
गंगा-यमुना दोआब
यहाँ के स्थल मेरठ ज़िले के 'आलमगीर' तक फैले हुए
हैं। एक अन्य स्थल सहारनपुर ज़िले में स्थित 'हुलास' तथा
'बाड़गांव' है। हुलास तथा बाड़गांव की गणना पश्वर्ती सिन्धु सभ्यता के पुरास्थलों
में की जाती है।
जम्मू
इस क्षेत्र के मात्र एक
स्थल का पता लगा है, जो 'अखनूर' के निकट 'भांडा' में है। यह स्थल भी सिन्धु सभ्यता
के परवर्ती चरण से सम्बन्घित है।
गुजरात
1947 के बाद गुजरात में सैंधव स्थलों की खोज
के लिए व्यापक स्तर पर उत्खनन किया गया। गुजरात के 'कच्छ', 'सौराष्ट्र' तथा गुजरात के मैदानी भागों में
सैंधव सभ्यता से सम्बन्घित 22 पुरास्थल है, जिसमें से 14 कच्छ क्षेत्र में तथा शेष
अन्य भागों में स्थित है। गुजरात प्रदेश में ये पाए गए प्रमुख पुरास्थलों में 'रंगपुर', 'लाथल', 'पाडरी', 'प्रभास-पाटन',
'राझदी', 'देशलपुर', 'मेघम', 'वेतेलोद', 'भगवतराव', 'सुरकोटदा',
'नागेश्वर', 'कुन्तासी', 'शिकारपुर' तथा 'धौलावीरा' आदि है।
महाराष्ट्र
प्रदेश के 'दायमाबाद'
नामक पुरास्थल से मिट्टी के ठीकरे प्राप्त हुए है जिन पर चिरपरिचित सैंधव लिपि में
कुछ लिखा मिला है, किन्तु पर्याप्त साक्ष्य के अभाव में सैंधव सभ्यता का विस्तार महाराष्ट्र तक नहीं माना जा सकता है।
ताम्र मूर्तियों का एक निधान, जिसे प्रायः हडप्पा संस्कृति से सम्बद्ध किया जाता
है, वह महाराष्ट्र और दायमादाबद नामक स्थान से प्राप्त हुआ है - इसमें 'रथ चलाते
मनुष्य', 'सांड', 'गैंडा', और 'हाथी' की आकृति प्रमुख है। यह सभी ठोस धातु की है
और वजन कई किलो है, इसकी तिथि के विषय में विद्धानों में मतभेद है।
अफ़ग़ानिस्तान
हिन्दुकश के उत्तर में अफ़ग़ानिस्तान में स्थित 'मुंडीगाक' और
'सोर्तगोई' दो पुरास्थल है। मुंडीगाक का उत्खनन 'जे.एम. कैसल' द्वारा किया गया था
तथा सोर्तगोई की खोज एवं उत्खनन 'हेनरी फ्रैंकफर्ट' द्वारा कराया गया था। सोर्तगोई
लाजवर्द की प्राप्ति के लिए बसायी गयी व्यापारिक बस्ती थी।
काल निर्धारण
सैंधव सभ्यता के काल को
निर्धारित करना निःसंदेह बड़ा ही कठिन काम है, फिर भी विभिन्न विद्धानों ने इस
विवादास्पद विषय पर अपने विचार व्यक्त किये हैं। 1920 ईसा पूर्व के दशक में
सर्वप्रथम हड़प्पाई सभ्यता का ज्ञान हुआ।
·
हड़प्पाई सभ्यता का काल निर्धारण मुख्य रूप से 'मेसोपोटामिया' में 'उर' और 'किश' स्थलों पर पाए
गए हड़प्पाई मुद्राओं के आधार पर किया गया। इस क्षेत्र में सर्वप्रथम प्रयास 'जॉन
मार्शल' का रहा। उन्होंने 1931 ई. में इस सभ्यता का काल 3250 ई.पू. 2750 ई.पू.
निर्धारित किया।
·
ह्वीलर ने इसका काल 2500 - 1500 ई.पू. माना है। बाद के समय
में काल निर्धारण की रेडियो विधि का अविष्कार हुआ और इस विधि से इस सभ्यता का काल
निर्धारण इस प्रकार है-
1. पूर्व हड़प्पाई चरण: लगभग
3500-2600 ई.पू.
2. परिपक्व हड़प्पाई चरण -
लगभग 2600-1900 ई.पू.
3. उत्तर हड़प्पाई चरण: लगभग
1900-1300 ई.पू.
·
रेडियो कार्बन ‘सी-14‘ जैसी नवीन विश्लेषण पद्धति के द्वारा
हड़प्पा सभ्यता का सर्वमान्य काल 2500 ई.पू. से 1750 ई.पू. को माना गया है।
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हड़प्पा सभ्यता के पुरास्थल
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पुरास्थल
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स्थान
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1- हड़प्पा सभ्यता का सर्वाधिक पश्चिमी पुरास्थल
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सत्कागेन्डोर
(बलूचिस्तान)
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2- सर्वाधिक पूर्वी पुरास्थल
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आलमगीरपुर
(मेरठ)
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3- सर्वाधिक उत्तर पूरास्थल
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मांडा
(जम्मू कश्मीर)
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4- सर्वाधिक दक्षिणी पुरास्थल
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दायमाबाद
(महाराष्ट्र)
|
सिधु सभ्यता के निर्माता और निवासी
यह अत्यन्त ही
विवादाग्रस्त विषय है। इस विवाद में कुछ विद्धानों के प्रकार हैं-
·
'डॉ. लक्ष्मण स्वरूप' और 'रामचन्द्र' सिंधु सभ्यता एवं
वैदिक सभ्यता दोनों के निर्माता के रूप में आर्यो को मानते हैं।
·
'गार्डन चाइल्ड' सिंधु सभ्यता के निर्माता के रूप में
'सुमेरियन' लोगों को मानते हैं।
·
'राखाल दास बनर्जी' इस सभ्यता के निर्माता के रूप में द्रविड़ों को मानते हैं
·
ह्वीलर का मानना है कि ऋग्वेद में वर्णित दस्यु एवं
‘दास‘ सिंधु सभ्यता के निर्माता थे।
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इन समस्त विवादों का अवलोकन करके 'डॉ. रमा शंकर त्रिपाठी'
का कहना है कि 'ऐतिहासिक ज्ञान की इस सीमा पर खड़े होकर अभी इस विषय पर हमारा मौन
ही सराह्य और उचित है।'
धर्म
हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो में असंख्य्य देवियों की
मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। विद्वानों का अनुमान है कि ये मूर्तियाँ मातृदेवी अथवा प्रकृति देवी की
हैं। प्राचीन काल से ही मातृ या प्रकृति की पूजा भारतीय करते रहे हैं और आधुनिक काल में भी कर रहे हैं।
मातृदेवी की पूजा फ़ारस से लेकर यूनान के निकट इजियन सागर तक के सभी देशों के प्राचीन निवासियों
में प्रचलित थी। मातृदेवी की उपासना लोग किस प्रकार करते थे, इसका ज्ञान हमें
हड़प्पा से पाप्त एक मुहर के चित्र से मिलता है। इस मुहर के चित्र में एक नारी बनी
हुई है, जिसके पेट से एक पौधा निकलता दिखाया गया है, चाकू लिये हुए एक पुरुष का भी
चित्र है और नारी अपने हाथों को ऊपर उठाये हुए है, जिसकी शायद बलि चढ़ाई जाने वाली
है।
अभी तक सिन्धु घाटी की
खुदाई में कोई मन्दिर या पूजा स्थान नहीं मिला, अत: इस सभ्यता के धार्मिक जीवन का
एकमात्र स्रोत यहाँ पाई गई मिट्टी और पत्थर की मूर्तियों
तथा मुहरें हैं। इनसे यह ज्ञात होता है कि यहाँ मातृदेवी की, पशुपति शिव की तथा उसके लिंग की पूजा और पीपल, नीम आदि पेड़ों एवं नागादि
जीव जंतुओं की उपासना प्रचलित थी। मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा में खड़ी हुई अर्धनग्न
नारी की बहुत मृण्मय मूर्तियाँ मिली हैं, इनके शरीर पर छोटा सा लहंगा है, जिसे कटि
प्रदेश पर मेखला से बाँधा गया है। गले में हार पड़ा हुआ है तथा मस्तक पर पंखे के
आकार की विचित्र शिराभूषा है। इसके दोनों ओर प्याले जैसा पदार्थ है, जिसमें लगे धुएँ के
निशान से यह ज्ञात होता है कि इनमें भक्तों द्वारा देवी को प्रसन्न करने के लिए
तेल या धूप जलाया जाता था। इस प्रकार की मूर्तियाँ पश्चिमी एशिया में भी मिली हैं।
ये उस समय की मातृदेवी की उपासना की व्यापकता की सूचित करती हैं। आज भी भारत की साधारण जनता में देवी की उपासना बहुत प्रचलित है। इन
मूर्तियों के बहुत अधिक मात्रा में पाये जाने से यह कल्पना की गई है कि वर्तमान
कुल देवताओं की भाँति प्रत्येक घर में इनकी प्रतिष्ठा और पूजा की जाती थी। पुरुष
देवताओं में पशुपति प्रधान प्रतीत होता है। एक मुहर में तीन मुँह वाला एक नग्न
व्यक्ति चौकी पर पद्मासन लगाकर बैठा हुआ है। इसके चारों ओर हाथी तथा बैल हैं। चौकी के नीचे हिरण है, उसके सिर पर सींग और
विचित्र शिरोभूषा है। इसने हाथों में चूड़ियाँ और गले में हार पहन रखा है। यह
मूर्ति शिव के पशुपति रूप की समझी
जाती है। पद्मासन में ध्यानावस्थित मुद्रा में इसकी नासाग्र दृष्टि शिव के
योगेश्वर या महायोगी रूप को सूचित करती है। तीन अन्य मुहरें पशुपति के इस रूप पर
प्रकाश डालती हैं। अनेक विद्वानों ने मोहनजोदड़ो की अति प्रसिद्ध शालधारिणी मूर्ति
का भी योग से सम्बन्ध जोड़ा है।
सैन्धव सभ्यता की कला में
मुहरों का अपना विशिष्ट स्थान था। अब तक क़रीब 2000 मुहरें प्राप्त की जा चुकी
हैं। इसमें लगभग 1200 अकेले मोहनजोदाड़ो से प्राप्त हुई हैं। ये मुहरे बेलनाकार,
वर्गाकार, आयताकार एवं वृत्ताकार रूप में मिली हैं। मुहरों का निर्माण अधिकतर सेलखड़ी
से हुआ है। इस पकी मिट्टी की मूर्तियों का निर्माण 'चिकोटी पद्धति' से किया गया
है। पर कुछ मुहरें 'काचल मिट्टी', गोमेद, चर्ट और मिट्टी की बनी हुई भी प्राप्त
हुई हैं। अधिकांश मुहरों पर संक्षिप्त लेख, एक श्रृंगी, सांड, भैंस, बाघ, गैडा,
हिरन, बकरी एवं हाथी के चित्र उकेरे गये हैं। इनमें से सर्वाधिक आकृतियाँ एक
श्रृंगी, सांड की मिली हैं। लोथल ओर देशलपुर से तांबे की मुहरे मिली हैं।
शंकु तथा बेलन के आकार के
पत्थरों से यह ज्ञात होता है कि उस समय शिव की मूर्ति पूजा के अतिरिक्त लिंग पूजा
भी प्रचलित थी। मुहरों पर उत्कीर्ण विभिन्न प्रकार के पेड़ों की तथा पशुओं की
आकृति से यह ज्ञात होता है कि उस समय पीपल और नीम को पूजा जाता था। पशुओं में
हाथी, बैल, बाघ, भैंसे, गैंडे और घड़ियाल के चित्र अधिक मिले हैं। आजकल इनमें से
अनेक पशु देवताओं के वाहन रूप में पूजित हैं। यह कहना कठि है कि उस समय इनकी
वाहनों के रूप में प्रतिष्ठा थी या स्वतंत्र रूप में। साँपों को दूध पिलाने तथा
पूजा करने का विचार भी इस सभ्यता में था। वीर पुरुषों की पूजा करने का विचार भी
सम्भवत: यहाँ था। दो बाघों के साथ लड़ते हुए एक
पुरुष की सुमेर के प्रसिद्ध वीर गिलगमेश के साथ तुलना की गई है। सूर्य पूजा तथा स्वस्तिक के भी
चिह्न यहाँ पाये गए हैं। उपर्युक्त उपास्य देवताओं के अतिरिक्त इनकी पूजा विधि के
सम्बन्ध में भी कुछ मनोरंजक कल्पनाएँ की गई हैं। मिट्टी के एक ताबीज पर एक
व्यक्ति को ढोल पीटता हुआ तथा दूसरे व्यक्ति को नाचते हुए दिखाया गया है। ऐसा
प्रतीत होता है कि वर्तमान काल की भाँति उस समय संगीत और नृत्य पूजा के अंग थे। मोहनजोदड़ो की नर्तकी की प्रसिद्ध काँस्य
मूर्ति सम्भवत: उस समय देवता के सम्मुख नाचने वाली किसी देवदासी की प्रतिमा है।
मुख्य स्थल
हड़प्पा
हड़प्पा 6000-2600 ईसा
पूर्व की एक सुव्यवस्थित नगरीय सभ्यता थी। मोहनजोदड़ो, मेहरगढ़ और लोथल की ही शृंखला में
हड़प्पा में भी पुर्रात्तव उत्खनन किया गया। यहाँ मिस्र और मैसोपोटामिया जैसी ही प्राचीन सभ्यता के अवशेष मिले है।
इसकी खोज 1920 में की गई। वर्तमान में यह पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त में स्थित
है। सन् 1857 में लाहौर मुल्तान रेलमार्ग बनाने में हड़प्पा नगर की ईटों का
इस्तेमाल किया गया जिससे इसे बहुत नुक़सान पहुँचा।
मोहनजोदड़ो
·
मोहन जोदड़ो, जिसका कि अर्थ मुर्दो का टीला है 2600 ईसा
पूर्व की एक सुव्यवस्थित नगरीय सभ्यता थी।
·
हड़प्पा, मेहरगढ़ और लोथल की ही शृंखला में
मोहन जोदड़ो में भी पुर्रात्तव उत्खनन किया गया।
·
यहाँ मिस्र और मैसोपोटामिया जैसी ही प्राचीन सभ्यता के अवशेष मिले है।
इस सभ्यता के ध्वंसावशेष पाकिस्तान के सिन्ध प्रान्त के
'लरकाना ज़िले' में सिंधु नदी के दाहिने किनारे पर
प्राप्त हुए हैं। यह नगर क़रीब 5 कि.मी. के क्षेत्र में फैला हुआ है। मोहनजोदड़ों
के टीलो का 1922 ई. में खोजने का श्रेय 'राखालदास बनर्जी' को प्राप्त हुआ।
चन्हूदड़ों
मोहनजोदाड़ो के दक्षिण में स्थित
चन्हूदड़ों नामक स्थान पर मुहर एवं गुड़ियों के निर्माण के साथ-साथ हड्डियों से भी
अनेक वस्तुओं का निर्माण होता था। इस नगर की खोज सर्वप्रथम 1931 में 'एन.गोपाल
मजूमदार' ने किया तथा 1943 ई. में 'मैके' द्वारा यहाँ उत्खनन करवाया गया। सबसे निचले
स्तर से 'सैंधव संस्कृति' के साक्ष्य मिलते हैं।
लोथल
यह गुजरात के अहमदाबाद ज़िले में 'भोगावा नदी' के
किनारे 'सरगवाला' नामक ग्राम के समीप स्थित है। खुदाई 1954-55 ई. में 'रंगनाथ राव'
के नेतृत्व में की गई।
इस स्थल से समकालीन सभ्यता के पांच स्तर पाए गए हैं। यहाँ पर दो भिन्न-भिन्न
टीले नहीं मिले हैं, बल्कि पूरी बस्ती एक ही दीवार से घिरी थी।
रोपड़
पंजाब प्रदेश के 'रोपड़ ज़िले' में सतलुज नदी के बांए तट पर स्थित है।
यहाँ स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात सर्वप्रथम उत्खनन किया गया था। इसका आधुनिक
नाम 'रूप नगर' था। 1950 में इसकी खोज 'बी.बी.लाल' ने की थी।
कालीबंगा (काले रंग की चूड़ियां)
यह स्थल राजस्थान के गंगानगर ज़िले में घग्घर नदी के बाएं तट पर स्थित है।
खुदाई 1953 में 'बी.बी. लाल' एवं 'बी. के. थापड़' द्वारा करायी गयी। यहाँ पर
प्राक् हड़प्पा एवं हड़प्पाकालीन संस्कृति के अवशेष मिले हैं।
सूरकोटदा
·
यह स्थल गुजरात के कच्छ ज़िले में स्थित है।
·
इसकी खोज 1964 में 'जगपति जोशी' ने की थी इस स्थल से 'सिंधु
सभ्यता के पतन' के अवशेष परिलक्षित होते हैं।
आलमगीरपुर (मेरठ)
पश्चिम उत्तर प्रदेश के मेरठ ज़िले में यमुना की सहायक हिण्डन नदी पर स्थित इस पुरास्थल की
खोज 1958 में 'यज्ञ दत्त शर्मा' द्वारा की गयी।
रंगपुर (गुजरात)
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गुजरात के काठियावाड़ प्राय:द्वीप में भादर नदी
के समीप स्थित इस स्थल की खुदाई 1953-54 में 'ए. रंगनाथ राव' द्वारा की गई।
·
यहाँ पर पूर्व हडप्पा कालीन सस्कृति के अवशेष मिले हैं।
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यहाँ मिले कच्ची ईटों के दुर्ग, नालियां, मृदभांड, बांट,
पत्थर के फलक आदि महत्त्वपूर्ण हैं।
·
यहाँ धान की भूसी के ढेर मिले हैं।
·
यहाँ उत्तरोत्तर हड़प्पा संस्कृति के साक्ष्य मिलते हैं।
बणावली (हरियाणा)
·
हरियाणा के हिसार ज़िले में स्थित दो सांस्कृतिक
अवस्थाओं के अवषेश मिले हैं।
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हड़प्पा पूर्व एवं हड़प्पाकालीन इस स्थल की खुदाई 1973-74
ई. में 'रवीन्द्र सिंह विष्ट' के नेतृत्व में की गयी।
अलीमुराद (सिंध प्रांत)
·
सिंध प्रांत में स्थित इस नगर से कुआँ, मिट्टी के बर्तन, कार्निलियन के
मनके एवं पत्थरों से निर्मित एक विशाल दुर्ग के अवशेष मिले हैं।
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इसके अतिरिक्त इस स्थल से बैल की लघु मृण्मूर्ति एवं कांसे
की कुल्हाड़ी भी मिली है।
सुत्कागेनडोर (दक्षिण बलूचिस्तान)
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यह स्थल दक्षिण बलूचिस्तान में दाश्त नदी के किनारे
स्थित है।
हड़प्पाकालीन सभ्यता से सम्बन्धित कुछ नवीन क्षेत्र
खर्वी (अहमदाबाद)
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अहमदाबाद से 114 किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस स्थान से
हड़प्पाकालीन मृदभांड एवं ताम्र आभूषण के अवशेष मिले है।
कुनुतासी (गुजरात)
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गुजरात के राजकोट ज़िले में स्थित इस स्थल की
खुदाई 'एम.के. धावलिकर', 'एम.आर.आर. रावल' तथा 'वाई.एम. चितलवास' द्वारा करवाई गई।
धौलावीरा
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इस स्थल की खुदाई से विशाल सैन्धव कालीन नगर के अवशेष का
पता चलता है।
कोटदीजी (सिंध प्रांत)
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सिंध प्रांत के 'खैरपुर' नामक स्थान
पर यह स्थल स्थित है।
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सर्वप्रथम इसकी खोज 'धुर्ये' ने 1935 ई. में की ।
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नियमित खुदाई 1953 ई. में फज़ल अहमद ख़ान द्वारा सम्पन्न
करायी गयी।
बालाकोट (बलूचिस्तान)
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नालाकोट से लगभग 90 किमी की दूरी पर बलूचिस्तान के दक्षिणी तटवर्ती पर
बालाकोट स्थित था।
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इसका उत्खनन 1963-1970 के बीच 'जॉर्ज एफ.डेल्स' द्वारा किया
गया ।
अल्लाहदीनों (अरब महासागर)
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अल्लाहदीनों सिन्धु और अरब महासागर के संगम से लगभग 16
किलोमीटर उत्तर-पूर्व तथा कराची से पूर्व में स्थित है।
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1982 में 'फेयर सर्विस' ने यहाँ पर उत्खनन करवाया था।
माण्डा
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चेनाब नदी के दक्षिणी किनारे पर
स्थित यह विकसित हड़प्पा संस्कृति का सबसे उत्तरी
स्थल है।
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इसका उत्खनन 1982 में 'जे.पी. जोशी' तथा 'मधुबाला' द्वारा
करवाया गया था।
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उत्खनन से प्राप्त यहाँ से तीन सांस्कृतिक स्तर
1. प्राक् सैन्धव,
2. विकसित सैंधव, तथा
3. उत्तर कालीन सैंधव प्रकाश
में आए।
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यहाँ विशेष प्रकार के मृदभांड (मिट्टी के बर्तन), गैर
हड़प्पा से सम्बद्ध कुछ ठीकरा पक्की मिट्टी की पिण्डिकाएं (टेराकोटा केक) आदि
प्राप्त हुए है।
भगवानपुरा (हरियाणा)
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भगवानपुरा हरियाणा के कुरुक्षेत्र ज़िले में सरस्वती नदी के दक्षिणी किनारे पर
स्थित है।
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जी.पी. जोशी ने इसका उत्खनन करवाया था।
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यहाँ के प्रमुख अवशेषों में सफ़ेद, काले तथा आसमानी रंग की कांच की चूड़ियां, तांबे की चूड़ियां प्रमुख है।
देसलपुर (गुजरात)
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गुजरात के भुज ज़िले में स्थित
'देसलपुर' की खुदाई 'पी.पी. पाण्ड्या' और 'एक. के. ढाके' द्वारा किया गया ।
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बाद में 'सौनदरराजन' द्वारा भी उत्खनन किया गया।
रोजदी (गुजरात)
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रोजदी गुजरात के सौराष्ट्र ज़िले में स्थित था।
कांस्ययुगीन धौलावीरा
हड़प्पा सभ्यता‘ के पुरास्थलों में एक
नवीन कड़ी के रूप में जुड़ने वाला पुरास्थल धौलावीरा कच्छ के रण के मध्य स्थित
द्वीप 'खडीर' में स्थित है। इस द्वीप के समीप ही 'सुर्खाव'- शहर स्थित है। धौलावीर
गांव 'खडीर द्वीप' की उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर बसा है। धौलावीरा पुरास्थल की खुदाई
में मिले अवशेषों का प्रसार 'मनहर' एवं 'मानसर' नामक नालों के बीच में हुआ था।
धौलावीरा नामक हड़प्पाई संस्कृति वाले इस नगर की योजना समानांतर चतुर्भुज के रूप
में की गयी थी। इस नगर की लम्बाई पूरब से पश्चिम की ओर है। नगर के चारों तरफ एक
मज़बूत दीवार के निर्माण के साक्ष्य मिले हैं। नगर के महाप्रसाद वाले भाग के उत्तर
में एक विस्तृत सम्पूर्ण एवं व्यापक समतल मैदान के अवशेष मिले हैं। इसके उत्तर में
नगर का मध्यम भाग है जिसे 'पुर' की संज्ञा दी गयी थी। इसके पूर्व में नगर का तीसरा
महत्त्वपूर्ण भाग स्थित है जिसे 'निचला शहर' या फिर 'अवम नगर' कहा जाता है