Wednesday 24 May 2017

नूर जहाँ

नूरजहाँ (जन्म- 31 मई, 1577 ई., कंधार; मृत्यु- 17 दिसम्बर, 1645 ई., लाहौर) मुग़ल सम्राट जहाँगीर की पत्नी थी। उसका मूल नाम 'मेहरुन्निसा' था। जब उसका पिता मिर्ज़ा गियासबेग़, जो कि फ़ारस का निवासी था, अपने भाग्य की परीक्षा करने भारत आ रहा था, तभी मार्ग में नूरजहाँ का जन्म कंधार में हुआ था। ग़ियासबेग अकबर के दरबार में एक उच्च पद पाने में सफल हुआ था और 1605 ई. में जहाँगीर के राज्यारोहण के वर्ष ही वह मालमंत्री नियुक्त हो गया। उसे 'एत्मादुद्दोला' की उपाधि दी गई थी। नूरजहाँ असाधारण व्यक्तित्व और बुद्धिमता वाली स्त्री थी, जहाँगीर ने शासन का समस्त भार उसी पर छोड़ रखा था।
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विवाह
सत्रह वर्ष की अवस्था में मेहरुन्निसा का विवाह 'अलीकुली' नामक एक साहसी ईरानी नवयुवक से हुआ था, जिसे जहाँगीर के राज्य काल के प्रारम्भ में शेर अफ़ग़ान की उपाधि और बर्दवान की जागीर दी गई थी। 1607 ई. में जहाँगीर के दूतों ने शेर अफ़ग़ान को एक युद्ध में मार डाला। मेहरुन्निसा को पकड़ कर दिल्ली लाया गया और उसे बादशाह के शाही हरम में भेज दिया गया। यहाँ वह बादशाह अकबर की विधवा रानी 'सलीमा बेगम' की परिचारिका बनी। मेहरुन्निसा को जहाँगीर ने सर्वप्रथम नौरोज़ त्यौहार के अवसर पर देखा और उसके सौन्दर्य पर मुग्ध होकर जहाँगीर ने मई, 1611 ई. में उससे विवाह कर लिया। विवाह के पश्चात् जहाँगीर ने उसे ‘नूरमहल’ एवं ‘नूरजहाँ’ की उपाधि प्रदान की। 1613 ई. में नूरजहाँ को ‘पट्टमहिषी’ या ‘बादशाह बेगम’ बनाया गया।
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नूरजहाँ गुट
विवाह के बाद नूरजहाँ ने ‘नूरजहाँ गुट’ का निर्माण किया। इस गुट के महत्त्वपूर्ण सदस्य थे- नूरजहाँ बेगम, एत्मादुद्दौला या मिर्ज़ा गियासबेग़ (नूरजहाँ का पिता), अस्मत बेगम (नूरजहाँ की माँ), आसफ़ ख़ाँ (नूरजहाँ का भाई) एवं शाहज़ादा ख़ुर्रम (बाद में शाहजहाँ)। यह गुट मुग़ल दरबार में जहाँगीर के विवाह के तुरन्त बाद ही सक्रिय हो गया, जिसका प्रभाव 1627 ई. तक रहा। नूरजहाँ के प्रभाव से प्रभावित जहाँगीर के शासन काल को दो भागों में बांटा जा सकता है-
1.   1611 ई. से 1622 ई. तक
2.   1622 ई. से 1627 ई. तक
प्रथम काल में नूरजहाँ गुट ने शाही सेवा में अपने समर्थकों को अधिक मात्रा में नियुक्त कर उन्हें उच्च मनसब प्रदान किये। फलस्वरूप इस दल से ईर्ष्या करने वाले एक विरोधी दल का गठन ख़ुसरो के नेतृत्व में हुआ। इस बीच महावत ख़ाँ की पदोन्नति में बाधा, ख़ानेआजम की कैद, ख़ुर्रम की अप्रत्याशित उन्नति, परवेज की अवनति एवं ख़ुसरो के भाग्य का उतार-चढ़ाव होता रहा। इस काल में नूरजहाँ के परिवार के लोगों के मनसब में हुई वृद्धि का क्रम इस प्रकार था-
·         एत्मादुद्दौला का मनसब - 1611 ई. में 2000/500, 1616 ई. में 7000/500 और 1619 ई. में 7000/7000 तक।
·         आसफ़ ख़ाँ का मनसब - 1611 ई. में 500/100, 1616 ई. में 5000/3000 और 1622 ई. में 6000/6000 तक।
·         इब्राहिम ख़ाँ का मनसब - 1616 ई. में 2500/2000 तक।

सुन्दरी व कूटनीतिज्ञ
असाधारण सुन्दरी होने के अतिरिक्त नूरजहाँ बुद्धिमती, शील और विवेकसम्पन्न भी थी। उसकी साहित्यकविता और ललित कलाओं में विशेष रुचि थी। उसका लक्ष्य भेद अचूक होता था। 1619 ई. में उसने एक ही गोली से शेर को मार गिराया था। इन समस्त गुणों के कारण उसने अपने पति पर पूर्ण प्रभुत्व स्थापित कर लिया था। इसके फलस्वरूप जहाँगीर के शासन का समस्त भार उसी पर आ पड़ा था। सिक्कों पर भी उसका नाम खोदा जाने लगा और वह महल में ही दरबार करने लगी। उसके पिता एत्मादुद्दोला और भाई आसफ़ ख़ाँ को मुग़ल दरबार में उच्च पद प्रदान किया गया था और उसकी भतीजी का विवाह, जो आगे चलकर मुमताज़ के नाम से प्रसिद्ध हुई, शाहजहाँ से हो गया। उसने पहले पति से उत्पन्न अपनी पुत्री का विवाह जहाँगीर के सबसे छोटे पुत्र शहरयार से कर दिया और क्योंकि उसकी जहाँगीर से कोई संतान नहीं थी, अत: वह शहरयार को ही जहाँगीर के उपरांत राज सिंहासन पर बैठाना चाहती थी। नूरजहाँ के ये सभी कार्य उसकी कूटनीति का ही एक हिस्सा थे।
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शाहजहाँ का विद्रोह
1620 ई. के अन्त तक नूरजहाँ के सम्बन्ध ख़ुर्रम (शाहजहाँ) से अच्छे नहीं रहे, क्योंकि नूरजहाँ को अब तक यह अहसास हो गया था कि शाहजहाँ के बादशह बनने पर उसका प्रभाव शासन के कार्यों पर कम हो जायगा। इसलिए नूरजहाँ ने जहाँगीर के दूसरे पुत्र ‘शहरयार’ को महत्व देना प्रारम्भ कर किया। चूंकि शहरयार अल्पायु एवं दुर्बल चरित्र का था, इसलिए उसके सम्राट बनने पर नूरजहाँ का प्रभाव पहले की तरह शासन के कार्यों में बना रहता। इस कारण से शेर अफ़ग़ान से उत्पन्न अपनी पुत्री 'लाडली बेगम' की शादी 1620 ई. में शहरयार से कर उसे 8000/4000 का मनसब प्रदान किया।
शाहजहाँ को जब इस बात का अहसास हुआ कि नूरजहाँ उसके प्रभाव को कम करना चाह रही है, तो उसने जहाँगीर द्वारा कंधार दुर्ग पर आक्रमण कर उसे जीतने के आदेश की अवहेलना करते हुए 1623 ई. में ख़ुसरो ख़ाँ का वध कर दक्कन में विद्रोह कर दिया। उसके विद्रोह को दबाने के लिए नूरजहाँ ने आसफ़ ख़ाँ को न भेज कर महावत ख़ाँ को शहज़ादा परवेज़ के नेतृत्व में भेजा। उन दोनों ने सफलतापूर्वक शाहजहाँ के विद्रोह को कुचल दिया। शाहजहाँ ने पिता जहाँगीर के समक्ष आत्समर्पण कर दिया और उसे क्षमा मिल गई। जमानत के रूप में शाहजहाँ के दो पुत्रों दारा शिकोह और औरंगज़ेब को बंधक के रूप में राजदरबार में रखा गया। 1625 ई. तक शाहजहाँ का विद्रोह पूर्णतः शान्त हो गया।
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महावत ख़ाँ का विद्रोह
शाहजहाँ के विद्रोह को दबाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करने वाले महावत ख़ाँ से नूरजहाँ को ईर्ष्या होने लगी। नूरजहाँ को इसका अहसास था, कि महावत ख़ाँ उन लोगों में से है, जिन्हें शासन के कार्यों में मेरा प्रभुत्व स्वीकार नहीं है। महावत ख़ाँ एवं शाहज़ादा परवेज की निकटता से भी नूरजहाँ को ख़तरा था। अतः उसके प्रभाव को कम करने के लिए नूरजहाँ ने उसे बंगाल जाने एवं युद्ध के समय लूटे गये धन का हिसाब देने को कहा। इन कारणों के अतिरिक्त कुछ और कारण भी थे, जिससे अपमानित महसूस कर महावत ख़ाँ ने विद्रोह कर काबुल जा रहे सम्राट जहाँगीर को झेलम नदी के तट पर 1626 ई. में क़ैद कर लिया। नूरजहाँ एवं उसके भाई आसफ़ ख़ाँ को भी बन्दी बना लिया। क़ैद में रखने पर भी महावत ख़ाँ ने जहाँगीर के प्रति निष्ठा एवं सम्मान की बात नहीं सोची। रोहतास में नूरजहाँ एवं जहाँगीर ने कूटनीति के द्वारा अपने को महावत ख़ाँ के प्रभाव से मुक्त कर लिया। महावत ख़ाँ अपनी सुरक्षा के लिए ‘थट्टा’ की ओर भाग गया। 28 अक्टूबर, 1626 को परवेज की मृत्यु के बाद एक तरह से महावत ख़ाँ कमज़ोर हो गया और वह शाहजहाँ की सेवा में चला गया।
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नूरजहाँ की मृत्यु

जहाँगीर के जीवन काल में नूरजहाँ सर्वशक्ति सम्पन्न रही, किंतु 1627 ई. में जहाँगीर की मृत्यु के उपरांत उसकी राजनीतिक प्रभुता नष्ट हो गई। नूरजहाँ की मृत्यु 1645 ई. में हुई। अपनी मृत्यु पर्यन्त तक का शेष जीवन उसने लाहौर में बिताया। उसकी कलात्मक रुचि का प्रमाण उस भव्य एवं आकर्षक मक़बरे में उपलब्ध है, जिसे उसने अपने पिता एत्मादुद्दोला के अस्थि अवशेषों पर आगरा में बनवाया था। कलाविदों के अनुसार यह मक़बरा बारीक और साज-सज्जा की दृष्टि से अनुपम है।
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