टीपू सुल्तान ( जन्म: 20 नवम्बर,
1750 ई. ; मृत्यु- 4 मई 1799
ई.) भारतीय इतिहास के
प्रसिद्ध योद्धा हैदर अली का
पुत्र था। पिता की
मृत्यु के बाद पुत्र टीपू सुल्तान ने मैसूर सेना
की कमान को संभाला था, जो अपनी पिता की ही भांति योग्य एवं पराक्रमी था। टीपू को अपनी
वीरता के कारण ही 'शेर-ए-मैसूर' का ख़िताब अपने पिता से प्राप्त हुआ था। टीपू द्वारा
कई युद्धों में हारने के बाद मराठों एवं
निज़ाम ने अंग्रेज़ों से संधि कर ली थी। ऐसी स्थिति में टीपू ने भी अंग्रेज़ों से संधि
का प्रस्ताव किया और चूंकि अंग्रेज़ों को भी टीपू की शक्ति का अहसास हो चुका था, इसलिए
छिपे मन से वे भी संधि चाहते थे। दोनों पक्षों में वार्ता मार्च, 1784 में हुई और
इसी के फलस्वरूप 'मंगलौर की संधि' सम्पन्न हुई।
कई बार अंग्रेज़ों के छक्के छुड़ा देने वाले टीपू सुल्तान को भारत के
पूर्व राष्ट्रपति एवं
महान वैज्ञानिक डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल
कलाम ने विश्व का सबसे पहला रॉकेट अविष्कारक बताया था।
जीवन
परिचय
टीपू सुल्तान का जन्म मैसूर के सुल्तान हैदर अली
के घर 20 नवम्बर, 1750 को 'देवनहल्ली', वर्तमान में कर्नाटक का कोलार ज़िला में
हुआ था। टीपू सुल्तान का पूरा नाम फ़तेह
अली टीपू था। वह बड़ा वीर, विद्याव्यसनी तथा संगीत और स्थापत्य का प्रेमी था। उसके पिता ने दक्षिण
में अपनी शक्ति का विस्तार आरंभ किया था। इस कारण अंग्रेज़ों के साथ-साथ निजाम और मराठे
भी उसके शत्रु बन गए थे। टीपू ने 18 वर्ष की उम्र में अंग्रेज़ों के विरुद्ध पहला युद्ध जीता था। अंग्रेज़ संधि करने को बाध्य हुए। लेकिन पांच वर्ष बाद ही
संधि को तोड़कर निजाम और मराठों को साथ लेकर अंग्रेज़ों ने फिर आक्रमण कर दिया।
टीपू सुल्तान ने अरब, काबुल, फ्रांस आदि देशों में अपने दूत भेजकर उनसे सहायता मांगी,
पर सफलता नहीं मिली। अंग्रेज़ों को इन कार्रवाइयों का पता था। अपने इस विकट शत्रु को
बदनाम करने के लिए अंग्रेज़ इतिहासकारों ने इसे धर्मांध बताया है। परंतु वह बड़ा सहिष्णु
राज्याध्यक्ष था। यद्यपि भारतीय शासकों ने उसका साथ नहीं दिया, पर उसने किसी भी भारतीय
शासक के विरुद्ध, चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान, अंग्रेज़ों से गठबंधन नहीं किया।
बेहतर
रणनीतिकार
टीपू सुल्तान काफ़ी बहादुर होने के साथ ही दिमागी
सूझबूझ से रणनीति बनाने में भी बेहद माहिर था। अपने शासनकाल में भारत में बढ़ते ईस्ट इंडिया कंपनी के
साम्राज्य के सामने वह कभी नहीं झुका और उसने अंग्रेज़ों से जमकर लोहा लिया। मैसूर
की दूसरी लड़ाई में अंग्रेज़ों को खदेड़ने में उसने अपने पिता हैदर अली की काफ़ी मदद की। उसने अपनी बहादुरी से जहाँ कई
बार अंग्रेज़ों को पटखनी दी, वहीं निज़ामों को भी कई मौकों पर धूल चटाई। अपनी हार से
बौखलाए हैदराबाद के निज़ाम ने टीपू सुल्तान से गद्दारी की और अंग्रेज़ों
से मिल गया।
संधि
मैसूर की तीसरी लड़ाई में भी जब अंग्रेज़ टीपू को नहीं
हरा पाए तो उन्होंने मैसूर के इस शेर से 'मंगलोर की संधि' नाम से एक समझौता कर लिया।
संधि की शर्तों के अनुसार दोनों पक्षों ने एक दूसरे के जीते हुए प्रदेशों को वापस कर
दिया। टीपू ने अंग्रेज़ बंदियों को भी रिहा कर दिया। टीपू के लिए यह संधि उसकी उत्कृष्ट
कूटनीतिक सफलता थी। उसने अंग्रेज़ों से अलग से एक संधि कर मराठों की सर्वोच्चता को
अस्वीकार कर दिया। इस संधि से गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स असहमत
था। उसने संधि के बाद कहा-
"यह लॉर्ड मैकार्टनी कैसा आदमी है। मैं अभी भी विश्वास
करता हूँ कि वह संधि के बावजूद कर्नाटक को खो डालेगा।"
पालक्काड
क़िला
'पालक्काड क़िला', 'टीपू का क़िला' नाम से भी प्रसिद्ध
है। यह पालक्काड टाउन के मध्य भाग में स्थित है। इसका निर्माण 1766 में किया गया था।
यह क़िला भारतीय पुरातात्त्विक सर्वेक्षण के अंतर्गत संरक्षित स्मारक है। मैसूर के
सुल्तान हैदर अली ने
इस क़िले को 'लाइट राइट' यानी 'मखरला' से बनवाया था। जब हैदर ने मालाबार और कोच्चि को
अपने अधीन कर लिया, तब इस क़िले का निर्माण करवाया। उनके पुत्र टीपू सुल्तान ने भी
यहाँ अधिकार जमाया था। पालक्काड क़िला टीपू सुल्तान का केरल में
शक्ति-दुर्ग था, जहाँ से वह ब्रिटिशों के
ख़िलाफ़ लड़ता था। इसी तरह सन 1784 में एक युद्ध में कर्नल फुल्लेर्ट के नेतृत्व में
ब्रिटिश सैनिकों ने 11 दिन दुर्ग को घेर कर रखा और अपने अधीन कर लिया। बाद में कोष़िक्कोड
के सामूतिरि ने क़िले को जीत लिया ।1790 में ब्रिटिश सैनिकों ने क़िले पर पुनः अधिकार
कर लिया। बंगाल में
'बक्सर का युद्ध'
को तथा दक्षिण में मैसूर का चौथा युद्ध को
जीत कर भारतीय राजनीति पर अंग्रेज़ों ने अपनी पकड़ मजबूत कर ली।
मृत्यु
'फूट डालो, शासन करो' की नीति चलाने वाले अंग्रेज़ों
ने संधि करने के बाद टीपू से गद्दारी कर डाली। ईस्ट इंडिया कंपनी ने
हैदराबाद के साथ मिलकर चौथी बार टीपू पर ज़बर्दस्त हमला किया और आख़िरकार 4 मई सन्
1799 ई. को मैसूर का शेर श्रीरंगपट्टनम की
रक्षा करते हुए शहीद हो गया। 1799 ई. में उसकी पराजय तथा मृत्यु पर अंग्रेज़ों ने मैसूर
राज्य के एक हिस्से में उसके पुराने हिन्दू राजा के जिस नाबालिग पौत्र को गद्दी पर
बैठाया, उसका दीवान पुरनिया को नियुक्त कर दिया।
टीपू
की असफलता के कारण
टीपू सुल्तान की असफलता के दो महत्त्वपूर्ण कारण
थे-
·
फ़्राँसीसी मित्रता
और देशी राज्यों को मिलाकर संयुक्त मोर्चा बनाने में टीपू असफल रहा।
·
वह अपने पिता हैदर अली की भांति कूटनीतिज्ञ और दूरदर्शिता का पक्का नहीं
था।
विकास
कार्य
टीपू की शहादत के बाद अंग्रेज़ श्रीरंगपट्टनम से दो रॉकेट ब्रिटेन के 'वूलविच संग्रहालय' की आर्टिलरी गैलरी में प्रदर्शनी
के लिए ले गए। सुल्तान ने 1782 में अपने पिता के निधन के बाद मैसूर की कमान संभाली थी और अपने अल्प समय के शासनकाल
में ही विकास कार्यों की झड़ी लगा दी थी। उसने जल भंडारण
के लिए कावेरी नदी के
उस स्थान पर एक बाँध की नींव रखी, जहाँ आज 'कृष्णराज सागर बाँध' मौजूद है। टीपू ने
अपने पिता द्वारा शुरू की गई 'लाल बाग़ परियोजना' को सफलतापूर्वक पूरा किया। टीपू निःसन्देह
एक कुशल प्रशासक एवं योग्य सेनापति था। उसने 'आधुनिक कैलेण्डर' की शुरुआत की और सिक्का
ढुलाई तथा नाप-तोप की नई प्रणाली का प्रयोग किया। उसने अपनी राजधानी श्रीरंगपट्टनम में
'स्वतन्त्रता का वृक्ष' लगवाया और साथ ही 'जैकोबिन क्लब' का सदस्य भी बना। उसने अपने
को नागरिक टीपू पुकारा।
टॉमस मुनरो ने टीपू के बारें में लिखा है कि-
"नवीनता की अविभ्रांत भावना तथा प्रत्येक वस्तु के स्वयं
ही प्रसूत होने की रक्षा उसके चरित्र की मुख्य विशेषता थीं।"
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