Monday 1 May 2017

सत्यजित राय

सत्यजित राय / सत्यजित रे जन्म: 2 मई, 1921 - मृत्यु: 23 अप्रॅल, 1992) बीसवीं शताब्दी के विश्व की महानतम फ़िल्मी हस्तियों में से एक थे, जिन्होंने यथार्थवादी धारा की फ़िल्मों को नई दिशा देने के अलावा साहित्य, चित्रकला जैसी अन्य विधाओं में भी अपनी प्रतिभा का परिचय दिया। सत्यजित राय प्रमुख रूप से फ़िल्मों में निर्देशक के रूप में जाने जाते हैं, लेकिन लेखक और साहित्यकार के रूप में भी उन्होंने उल्लेखनीय में ख्याति अर्जित की है। सत्यजित राय फ़िल्म निर्माण से संबंधित कई काम ख़ुद ही करते थे। इनमें निर्देशन, छायांकन, पटकथा, पार्श्व संगीत, कला निर्देशन, संपादन आदि शामिल हैं। फ़िल्मकार के अलावा वह कहानीकार, चित्रकार और फ़िल्म आलोचक भी थे। सत्यजित राय कथानक लिखने को निर्देशन का अभिन्न अंग मानते थे। सत्यजित राय ने अपने जीवन में 37 फ़िल्मों का निर्देशन किया, जिनमें फ़ीचर फ़िल्में, वृत्त चित्र और लघु फ़िल्में शामिल हैं। इनकी पहली फ़िल्म 'पाथेर पांचाली' को कान फ़िल्मोत्सव में मिले “सर्वोत्तम मानवीय प्रलेख” पुरस्कार को मिलाकर कुल ग्यारह अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिले। विश्व में भारतीय फ़िल्मों को नई पहचान दिलाने वाले सत्यजित राय भारत रत्न (1992) के अतिरिक्त पद्म श्री (1958), पद्म भूषण (1965), पद्म विभूषण (1976) और रेमन मैग्सेसे पुरस्कार (1967) से सम्मानित हैं। विश्व सिनेमा में अभूतपूर्व योगदान के लिए सत्यजित राय को मानद 'ऑस्कर अवॉर्ड' से अलंकृत किया। इसके अलावा उन्होंने और उनके काम ने कुल 32 राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार प्राप्त किये।

जीवन परिचय

अपने माता-पिता की इकलौती संतान सत्यजित राय के पिता 'सुकुमार राय' की मृत्यु सन् 1923 में हुई जब सत्यजित राय मुश्किल से दो वर्ष के थे। उनका पालन-पोषण उनकी माँ 'सुप्रभा राय' ने अपने भाई के घर में ममेरे भाई-बहनों, मामा-मामियों वाले एक भरे-पूरे और फैले हुए कुनबे के बीच किया। उनकी मां जो लंबे सधे व्यक्तित्व की स्वामिनी थीं, 
वो रवीन्द्र संगीत की मंजी हुई गायिका थीं और उनकी आवाज़ काफ़ी दमदार थी। सत्यजित राय के दादाजी 'उपेन्द्रकिशोर राय' एक लेखक एवं चित्रकार थे और इनके पिताजी भी बांग्ला में बच्चों के लिए रोचक कविताएँ लिखते थे और वह एक चित्रकार भी थे। यह परिवार अपरिहार्य रूप से टैगोर घराने के नजदीक था। प्रेसीडेंसी कॉलेज कलकत्ता से स्नातक होने के बाद राय पेंटिंग के अध्ययन के लिए जिसमें वे प्रारंभिक अवस्था में ही अपनी योग्यता प्रदर्शित कर चुके थे, रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित रवीन्द्र भारती विश्वविद्यालय, शांतिनिकेतन चले गए।

शांतिनिकेतन में शिक्षा

उस समय पर शांतिनिकेतन साहित्य और कला की नयी भारतीय चेतना के केंद्र के रूप में न केवल देश में बल्कि विश्व भर में चर्चित था। रवीन्द्रनाथ टैगोर के प्रति आकर्षण समूचे भारत से छात्र और अध्यापकों को यहाँ खींच लाता था। अन्य देशों से भी छात्र यहाँ आते थे और इस तरह एक ऐसी नयी भारतीय संस्कृति के विकास की परिस्थितियां निर्मित हो रही थीं जो अपनी स्वयं की परंपराओं पर आधारित थीं। शांतिनिकेतन में सत्यजित राय ने नंदलाल बोस और विनोद बिहारी मुखोपाध्याय जैसे सिद्धहस्त कलाकारों से शिक्षा प्राप्त की, जिन पर बाद में उन्होंने ‘इनर आई’ फ़िल्म भी बनाई।

प्रेस और प्रकाशन संस्थान


सन 1942 में मध्य भारत के कला स्मारकों के भ्रमण के बाद राय ने शांतिनिकेतन छोड़ दिया। शीघ्र ही उन्हें एक ब्रिटिश विज्ञापन एजेंसी 'डी .जे. केमर एंड कंपनी' में वाणिज्यिक कलाकार (कमर्शियल आर्टिस्ट) के रूप में रोज़गार मिल गया जहाँ काम करते हुए उन्होंने पुस्तकों के आवरण पृष्ठों की साज सज्जा (डिजाइनिंग) और रेखांकन कार्य पर्याप्त मात्रा में किया। यह काम उन्होंने भारतीय पुस्तक प्रकाशन के क्षेत्र में नए मानक स्थापित करने वाले अग्रणी प्रकाशन संस्थान 'साइनेट प्रेस' के लिए किया। जिन पुस्तकों का उन्होंने रेखांकन किया उनमें से एक 'विभूति भूषण बंद्योपाध्याय' की पाथेर पांचाली का संक्षिप्त संस्करण भी था।

सिनेमा में रुचि और प्रशिक्षण

इस समय तक, फ़िल्मों में उनकी रुचि पर्याप्त रूप से उजागर हो चुकी थी। सन् 1947 में उन्होंने अन्य लोगों के साथ 'कलकत्ता फ़िल्म सोसायटी' की स्थापना की और भारतीय सिनेमा की समस्याओं तथा सिनेमा किस तरह का चाहिए, विषय पर लेख लिखे। कलकत्ता फ़िल्म सोसायटी ने बड़ी संख्या में सिने प्रेमियों को जुटाया जिनमें से कुछ प्रमुख फ़िल्म निर्माता बने। राय की पहल ने न केवल उन्हें फ़िल्म शिक्षण प्रदान किया बल्कि अन्य को भी फ़िल्मी शिक्षा प्रदान की, क्योंकि कलकत्ता फ़िल्म सोसायटी ने विश्व सिनेमा की बहुत सी ऐसी प्रमुख कृतियों का प्रदर्शन किया जो इससे पूर्व भारत में कभी नहीं दिखाई गई थीं।

विदेश में प्रशिक्षण

सन 1950 में उनके नियोक्ताओं ने उन्हें अग्रिम प्रशिक्षण के लिए लंदन भेजा। यह उनकी लिंड्से एंडर्सन और गाविन लम्बर्ट से मित्रता हुई और उन्होंने अपने साढ़े चार माह के प्रवास के दौरान लगभग सौ फ़िल्में देखीं जिनमें बाइसिकिल थीवस तथा अन्य इतालवी नव-यथार्थवादी फ़िल्में शामिल थीं, जिन्होंने सत्यजित राय के ऊपर गहरा प्रभाव छोड़ा। जलयान द्वारा भारत वापस लौटते समय ही उन्होंने पाथेर पांचाली की पटकथा लिखना शुरू किया। सन् 1952 में भारत के पहले अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव का आयोजन हुआ जिसमें उन्होंने एक बार फिर इतालवी नव-यथार्थवादी फ़िल्मों से साक्षात्कार किया। साथ ही जापान सहित अन्य देशों की फ़िल्मों भी उन्होंने देखीं।
प्रारंभिक प्रशिक्षण हॉलीवुड फ़िल्मों से
सत्यजित राय का सिनेमा का प्रारंभिक प्रशिक्षण हॉलीवुड फ़िल्मों के अध्ययन के रूप में हुआ- वास्तव में आज़ादी से पूर्व वे ये ही फ़िल्में देख सकते थे। जैसा कि उन्होंने बार-बार कहा- उन्होंने फ़िल्म निर्माण मुख्यत: अमरीकी फ़िल्मों को बार-बार देखकर सीखा। तार्किक और (कम से कम सतह पर) यथार्थवादी वर्णन की हॉलीवुड शैली ने उनके ऊपर गहरा प्रभाव छोड़ा।
पाथेर पांचाली की सफलता
पाथेर पांचाली की निर्विवाद सफलता के बाद ही हुआ कि सत्यजित राय ने, जिन्हें फ़िल्म निर्माण के दौरान कुछ महीनों की छुट्टी सवेतन प्रदान की गई थी, अंतत: डी.जे. केमर एंड कंपनी की अपनी नौकरी छोड़ दी। विज्ञापन में उनकी रुचि पूरी तरह कभी भी समाप्त नहीं हुई, अपनी प्राथमिक फ़िल्मों के लिए प्रचार सामग्री खुद ही तैयार करने के अलावा वे कई वर्षों तक क्लेरियन एडवरटाइजिंग सर्विसेज (डी.जे. केमर के उत्तराधिकारी, और कर्मचारियों के स्वामित्व वाली) के एक निदेशक के रूप में कार्य करते रहे। यहाँ उनके कई पुराने साथी अभी कार्य करते हैं।
पाथेर पांचाली के बाद राय अक्सर कहा करते थे कि उन्होंने फ़िल्म निर्माण फ़िल्में देखकर सीखा। जो बातें फ़िल्में नहीं सिखा पाईं वे उन्होंने काम के दौरान सीखीं। यद्यपि 'पाथेर पांचाली' को सन् 1956 में केन्स में एक पुरस्कार दिया गया था, पर वास्तव में सन् 1957 में 'वेनिस महोत्सव' में 'अपराजितो' को मिला ग्रांड प्राइस पुरस्कार ही था जो पाथेर पांचाली को अंतर्राष्ट्रीय आलोक में लाया। न्यूयार्क में पाथेर पांचाली सितंबर सन् 1958 से पहले प्रदर्शित (रिलीज़) नहीं हो पाई।

फ़िल्म कृतियों का सजीव वर्णन

अपनी कार्य यात्रा के अधोबिंदु तक पहुंचने से पूर्व सत्यजित राय ने नायक (1966) का निर्माण किया, इसकी कहानी स्वयं उन्होंने लिखी थी और इसमें नायक के रूप में बंगाल के प्रतिभाशाली सिने अभिनेता उत्तम कुमार को लिया गया था। कंचनजंघा की तरह वे एक बार फिर श्रेष्ठ सम्मिति पूर्ण कसे हुए और वर्गाकार ढांचे का निर्माण करते हैं। फ़िल्म का समूचा अभिनय नायक का अपनी एक भूमिका के लिए पुरस्कार लेने जाने की दिल्ली की एक रात की रेल यात्रा के दौराना घटित होता है। उत्तम कुमार जो समुचित बौद्धिकता, विनम्रता और लोकप्रियता वाले अभिनेता हैं, एक तरह से स्वयं अपने आपको ही अभिनीत कर रहे हैं। शर्मिला टैगोर जो बाद में अखिल भारतीय हिन्दी फ़िल्मों की एक बड़ी स्टार बनी, यहाँ एक पत्रकार की भूमिका में है जो उसी रेलगाड़ी में यात्रा कर रही है और फ़िल्म अभिनेता का साक्षात्कार लेती है।

अपराजितो (1956)

अपराजितो में अपनी पूर्ववर्ती फ़िल्म के तात्विक गुण नहीं हैं, न इसकी संरचना इसे वैसी ही संतोषकारी पूर्ण कृति बना पाती है। यह फ़िल्म अपेक्षाकृत तीन भागों में बंट जाती है, संरचनात्मक रूप से अपराजितो मुख्यत: पाथेर पांचाली और 'अपुर संसार' के बीच पुल के रूप में अर्थपूर्ण है। स्वयं अपने आप में यह पर्याप्त संतुलित नहीं है, बनारस जीवंत हो उठता है अपनी दार्शनिक गहराई और भावनात्मक प्रत्यक्षता में अपराजितो राय की फ़िल्मों में असाधारण है, ख़ासतौर पर बनारस के दृश्यों में।

अपुर संसार (1959)

सत्यजित राय के संरचनात्मक दृढ़ता के गुण की ओर वापस मुड़ती है और अपराजितो की दृष्टिकोण की शुद्धता को जारी रखती है और उससे आगे भी पहुंचती हैं फ़िल्म एक ऐसे दृढ़ प्राकृतिक तर्क के साथ आगे बढ़ती है जो इसके काव्य को पूरी तरह औचित्यपूर्ण ठहराता है, स्वयं घटनाओं में से उभरता हुआ जैसा कि वह है न कि घटनाओं के ऊपर फ़िल्म निर्माता द्वारा थोपा हुआ।

जलसा घर (1958)

वास्तविक मार्मिकता का ख़ूबसूरत आह्वान। फ़िल्म दोनों ही काम करती है, उनकी क्षमताओं का विकास करती है और उन्हें उनकी पहली दो फ़िल्मों के नव यथार्थवादी दायरों से बाहर भी ले जाती है। जलसा घर यथार्थ परक मुख्यत: लोकेशन शॉट वाली तथा ग़ैर पेशेवरों द्वारा अभिनीत फ़िल्म है। जलसा घर में उन्होंने स्टूडियों के परिवेश को अधिक महत्त्व दिया और बंगाली सिनेमा की एक बड़ी हस्ती छवि विश्वास को निर्देशित किया। यहाँ वे विश्रांति और नव यथार्थवाद की मान्यताओं को छोड़कर वैयक्तिक चरित्र और परिस्थिति के प्रति उनके सम्मोहन के अधिक निकट आए। जलसा घर और पारस पत्थर दोनों में अपनी पहली दो फ़िल्मों के विपरीत सत्यजित राय अधिकाधिक संभावित भिन्न-भिन्न वस्तुओं को साधने की कोशिश करते हैं। वह निर्धनता के शोकाकुल नव यथार्थवादी इतिहासकार के रूप में स्वयं को रूढ़ करने से इंकार कर देते हैं। फिर भी जलसा घर उसी तरह से सामाजिक परिवर्तन की एक कहानी है जैसे कि त्रयी की पहली दो फ़िल्में हैं, और एक निर्धन व्यक्ति की तरह ही पारस पत्थर का क्लर्क भी हमारी सहानुभूति जीत लेता है।

देवी

फ़िल्म देवी ने रूढ़िवादियों में अपने प्रति कुछ विरोध पैदा किया और साथ ही उदारपंथियों को भी विचलित किया, पर यह फ़िल्म ‘प्रगति’ का पक्ष नहीं लेती। सन् 1960 का वर्ष रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म शताब्दी वर्ष था। सत्यजित राय ने इसको एक फ़ीचर फ़िल्म और एक दीर्घ वृत्तचित्र के साथ मनाया। यह उस व्यक्ति के पति एक श्रद्धांजलि थी जो भारतीयों, विशेष रूप से बंगालियों की कुछ पीढ़ियों का पथ-प्रदर्थक रहा था। बड़ी संख्या में लिखी गई टैगोर की कहानियों में से बहुत-सी कहानियां उत्कृष्ट शिल्पबद्ध हैं, फिर भी उनमें सहजता, मानवता है जो उन्हें एक विशाल पाठक वर्ग में लोकप्रिय बना देती है।

पोस्ट मास्टर

पोस्ट मास्टर में सत्यजित राय एक बार फिर अपने रूप में दिखाई देते हैं। चालीस मिनट की यह फ़िल्म अपने संक्षिप्त लेकिन कुशलता से शिल्पबद्ध किए गए अपने रूपाकार के भीतर मानवीय गरिमा से आप्लावित है।

कंचनजंघा (1962)

सत्यजित राय की पहली रंगीन फ़िल्म थी, जो उनकी अपनी कहानी पर आधारित थी और इस दृष्टि से भी पहली कि इसमें तत्कालीन समाज को साधा गया था। पारस पत्थर में कलकत्ता के जीवन की झलकियां हैं लेकिन यथार्थ और फैंटेसी का मिश्रण इसे किनारे कर देता है, और उसे तत्कालीन सामाजिक रीति-रीवाजों पर टिप्पणी के रूप में मुश्किल से ही व्याख्यायित किया जा सकता है। लेकिन पारस पत्थर के कुछ दृश्यों की तरह कंचनजंघा में भी समाज के विभिन्न वर्गों के बीच की, भले ही यह सौम्य क्यों न हो, टकराहट को उजागर किया गया है।

अभियान (1962)

सत्यजित राय के कैरियर में एक ऐसे विचलन का प्रतिनिधित्व करती है जिसकी व्याख्या इसी रूप में की जा सकती है कि सत्यजित राय जिस काम के लिए प्रशंसित होते हैं, कुछ समय बाद वे उस काम की सीमाओं को तोड़कर बाहर आना चाहते हैं और किसी नए और अप्रचलित पर हाथ आज़माना चाहते हैं, टैक्सी ड्राइवरों, तस्करों और रखैल औरतों की दुनिया राय के मध्यवर्गीय अनुभव से उतनी ही दूर है जितनी कि कोई भी वस्तु हो सकती है। 
सत्यजित राय की अगली तीन फ़िल्मों- 
महानगर (1963), चारुलता (1964) और लघु फ़ीचर फ़िल्म कापुरुष (1965)- में औरत के प्रति एक नया बोध दिखाई देता है, पुरुष की परछाईं के रूप में नहीं बल्कि उसकी अपनी निजता के रूप में। महानगर में पहली बार ऐसा होता है कि हम ऐसी औरत को सामने पाते हैं जो अपनी स्वयं की ज़िंदगी की दिशा निर्धारित करने की संभावनाओं के प्रति जागरूक है। विशिष्टता यह है कि जागृति का यह स्पर्श पति की ओर से आता है, क्योंकि पारंपरिक रूप से पुरुष स्वतंत्र है ठीक उसी तरह जैसे कि वे स्त्रियों को ग़ुलाम बनाए हुए हैं। सत्यजित राय का विश्लेषणात्मक तरीक़ा और कम शब्दों तथा सटीकता के साथ मानसिक घटना को अभिव्यक्त करने की उनकी क्षमता चारुलता में अपने शिखर पर पहुंचती है। उनका तरीक़ा इस कथन को उचित ठहराता है कि भारतीय परंपरा में सज्जा और अभिव्यक्ति दो अलग अलग वस्तुएं न होकर एक हैं। उनका शिल्प विवरण की ऐसी उत्कृष्टता तक पहुंचता है जो कौशल को कला में, मात्रा को गुण में और सज्जा को भावनात्मक अभिव्यक्ति में बदल देता है। चारुलता में जो पूरी दोषरहित है, कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण दृश्य भी हैं जिनका उल्लेख किया जाना चाहिए। चारु के अकेलेपन को दर्शाने वाला प्रारंभिक दृश्य शब्दरहित चरित्र चित्रण का उत्कृष्ट उदाहरण है जिसकी तुलना जलसा घर के दृश्य से की जा सकती है। यहाँ इस दृश्य को एक दूरबीन (ओपेरा ग्लास) की विकसित तकनीक द्वारा संपन्न किया गया है। फ़िल्म का झूले का दृश्य फ़िल्म का सर्वाधिक प्रभावशाली दृश्य है और रेनेवां जैसे प्रकाश छाया चित्रण से रौशन है, इस दृश्य को सूक्ष्मता से तराशा गया है जहाँ हर बार क्षणांश के लिए चारु का पैर ज़मीन का स्पर्श करता है ताकि झूले की गति को अतिरिक्त बल दिया जा सके। फिर वह क्षण है जब चारु झूले की गति को धीमा करती है अपनी दूरबीन अमल पर स्थिर करती है और, स्याह होते चेहरे के साथ, अनुभव करती है कि वह उससे प्रेम करने लगी है। सत्यजित राय की शब्दरहित संप्रेषण की शैली में यह एक बड़ी उपलब्धि है, बचपन के दिनों को उसके स्मृत करने के लंबे दृश्यों में, जिसमें एक ख़ूबसूरत लय है जिसे झूले के मंददोलन के साथ उस नाव के दोलन को मिलाकर गढ़ा गया है जिसका पाल कुशलता से तैयार किया गया है और जिसमें उसका चेहरा धीरे से विलीन हो जाता है। यह एक लयात्मक स्थानांतरण है जो हमें चारु की उस मन:स्थिति के समांतर खड़ा कर देता है जिसमें वह अतीत की ललक से भरी हुई है और जिस बारे में वह लिखना चाहती है। वर्णन का यह श्रेष्ठ गुण ही राय की फ़िल्म को साधारण रूप रेखा के साथ कही गई कहानी से सौंदर्य की दृष्टि से ऊपर उठा देता है।

'नायक' और 'कंचनजंघा'

नायक और कंचनजंघा में गहरी समानता है। पहाड़ की भव्यता को फ़िल्मी नायक की भव्यता से स्थानांतरित किया गया है। फ़िल्म के पात्रों की दृष्टि से और दर्शकों की दृष्टि से फ़िल्मी अभिनेता को वैसी ही प्रतिष्ठा प्राप्त है जैसी कि कंचनजंघा में। स्थान दार्जिलिंग की जगह रेलगाड़ी, दोनों ही स्थान पात्रों को नियमित दैनिक जीवन से काटते हैं और संक्षिप्त अवधि के लिए उन्हें एक साथ कर देते हैं। दैनिक जीवन से अलगाव दोनों ही मामलों में उनकी निजी समस्याओं को सतह पर लाने में मदद करता है। रंग और निरंतर परिवर्तित प्रकाश के स्थान पर यहाँ रेलगाड़ी की स्थायी गति है। इसका अतिरिक्त पहलू इसकी बदलती ध्वनियां हैं।

चिड़ियाखाना (1967)

महापुरुष के साथ-साथ, चिड़ियाखाना (1967) ऐसी फ़िल्म है जिसे राय की कृति के रूप में स्वीकार करना किसी के लिए भी कठिन हो सकता है। इसको राय के एक सहायक द्वारा निर्देशित किया जाना था लेकिन निर्माता के दबाव के कारण सत्यजित राय को स्वयं इसे अपने हाथ में लेना पड़ा था। एक दृश्य को छोड़कर जैसा कि पहले कहा गया है, समूची फ़िल्म एक सामान्य औसत बंगाली फ़िल्म के स्तर पर चलती है, यदि नायक में इसके ख़ूबसूरत शिल्प और मानवीय पहलुओं के पीछे सामान्य स्तरीयता है तो इसके बाद आने वाली फ़िल्म इनसे भी वंचित है। एक शताब्दी से भी अधिक तक फैले कालखंड में आए सामाजिक परिवर्तन के वे महान इतिहासकार थे। उन्होंने इसे संपूर्णता में देखा क्योंकि यह देखना एक फ़ासले से था। लेकिन इस फ़ासले ने उन्हें वस्तुओं की तात्कालिक वास्तविकता ख़ासतौर से तत्कालीन समाज की वास्तविकता से दूर रखा। स्वयं अपने लिखे हुए का उद्धरण (साइट एंड साउंड, विंटर 1966-67)- जलती हुई ट्रामों, सांप्रदायिक दंगों, बेरोज़गारी, बढ़ती हुई कीमतों, खाद्य की कमी वाला कलकत्ता राय की फ़िल्मों में मौजूद नहीं है, हालांकि राय इस शहर में रह रहे होते हैं लेकिन उनके और ‘पीड़ा का काव्य’ के बीच जो कि पिछले दस वर्षों से बांग्ला साहित्य पर छाया हुआ है, कोई संबंध नहीं है। जैसे जैसे वक़्त गुजरता गया राय के प्रति यह शिकायत एक फुसफुसाहट के स्तर से बढ़कर कर्ण कटु शोर में बदल गयी।

कापुरुष और महापुरुष

कापुरुष उन पूर्व फ़िल्मों की कमज़ोर पुनरावृत्ति है जिनका अंत अपनी स्वतंत्रता की खोज में बाधित और आहत तथा अपेक्षाकृत अधिक बुद्धिमान औरत द्वारा अपने स्वच्छंदतावादी प्रेमी के अस्वीकार में होता है। नयी उभरती औरत की विषयवस्तु वाली शृंखला के एक भाग के रूप में ही कापुरुष का महत्त्व निहित है। कापुरुष के लगभग कटुतापूर्ण अंत के बाद भी महापुरुष (फ़िल्म के दूसरे भाग की कहानी) की अधमनी और अनुपयुक्त खर मस्ती को स्वीकार करना कठिन है। सत्यजित राय का व्यंग्य हमेशा प्रभावकारी होता है लेकिन उनकी विनोदप्रियता में उनके पिता की उस प्रतिभा का अभाव दिखता है जिसमें वे मौज मस्ती और मूर्खता, असंगति, कटुता और विद्रूपता का आनंददायी मिश्रण तैयार कर दिया करते थे। 'कापुरुष और महापुरुष' को महत्त्वहीन मानकर नकार दिया गया। नायक बॉक्स आफ़िस पर सफल नहीं हुई और चिड़ियाखाना टिप्पणी के योग्य नहीं मानी गयी। बंगाल तथा अन्य स्थानों के कुछ समूहों ने ऋत्विक घटक के काम में अधिक जीवंत समसामयिकता को देखना शुरू कर दिया। 

घटक की अजांत्रिक (1958)

आपने बहुत ही (अभियान के ड्राइवर की तुलना में) विश्वनीय टैक्सी ड्राइवर के साथ, मेघे ढाका तारा (1960) पूर्वी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों के जीवन की तीखी तस्वीर और अंत में ‘मैं जीना चाहता हूं’ की ऊँची आवाज़ के साथ और अंतत: स्वर्ण रेखा (1965) ने अपनी प्रबल स्पष्टता और पतित क्रांतिकारियों की तीखी विडंबना के साथ, बांग्ला मानस पर गहरा प्रभाव छोड़ा। जब राय की प्रेरणा धीमी हो रही थी तब घटक को बंगाली सिनेमा के वास्तविक भविष्य का प्रतिनिधित्व करने वाले कहीं अधिक महान व्यक्तित्व के रूप में स्थापित करने के ज़ोरदार दावे किए गए। विदेशों में घटक की पहचान बहुत कम थी जबकि राय अपनी पूर्व फ़िल्मों के बल पर, भारत की तुलना में कहीं अधिक विदेशों में क़द ऊंचा बना रहे थे।

भुवन शोम (1969)

मृणाल सेन भुवन शोम (1969) हिन्दी में, के साथ अखिल भारतीय परिदृश्य पर रोशनी में आए। उनके नव-फ्रांसीसी सिनेमा के प्रति लगाव ने अंतत: एक ऐसी शैली का विकास किया जो सत्यजित राय की शैली से भिन्न थी। इन सब ने राय को कितना प्रभावित किया यह कहना कठिन है और इसका अनुमान लगाना निरर्थक है। इसका परिणाम गोपी गायने बाघा बायने (1968) के निर्माण में हुआ। यह उपेन्द्र किशोर राय चौधरी द्वारा लिखित मनोरंजक फ़ंतासी पर आधारित थी। बच्चों की दुनिया में वे मूल्य, जो सत्यजित राय ने टैगोरवादी आदर्शों से बनी पहले की दुनिया से प्राप्त किए थे, पूरी तरह समाप्त नहीं हुए थे। सत्यजित राय की बाल फ़िल्मों में वह निर्दोषिता और अपने होने का वह श्रेष्ठ भाव है जो उनकी प्रारंभिक वयस्क फ़िल्मों में था। आत्म सजगता का भाव प्राय: अपु और परेश बाबू, विश्वंभर राय और काली किंकर राय, आरती और चारुलता में समान रूप से मौजूद प्रवृत्ति है। वे सब बच्चों और जानवरों की तरह अपने आप में तल्लीन हैं, पूरी तरह अपने अपने भाग्य विधानों से जुड़े रहे। बच्चों की फ़िल्मों में मनुष्येतर जो भी प्राणी मिलते हैं वे परी कथा रूप में मिलते हैं, राय की इन फ़िल्मों में आनंद की एक गोपन अनुभूति छिपी रहती है। इनमें मौजार्टवादी संगीत का गुण है जहां बच्चे बुराई से प्रभावित नहीं होते, वहाँ अगर बादल हैं तो इसलिए कि उनमें से चमकता हुआ सूर्य बाहर आ सके।

आठवाँ दशक

जब तक सत्यजित राय ने वयस्क दुनिया में नयी समझ और नयी पहचान शुरू की तब तक आठवां दशक शुरू हो चुका था। सन् 1969 में जब अरण्येर दिनरात्रि बनाई गई, बंगाल का वयस्क विश्व लपटों से घिर चुका था। ‘जलती ट्रामों वाला कलकत्ता’ जो सत्यजित राय की फ़िल्मों में कभी नहीं देखा गया, एक अग्निपुंज में बदल चुका था। हर रोज़ हत्याएं हो रही थीं, देसी बम और बंदूकें आम दृश्य और ध्वनियों के हिस्से बन गए थे, युवकों का तीखा असंतोष नक्सलवादी आंदोलन में उभर रहा था जिसमें बहुत से प्रतिभावान विश्वविद्यालयीन युवक शामिल हो गए थे। न केवल इस नयी परिघटना को ही बल्कि पुनर्जागरण के अवशिष्ट गौरव को पीछे छोड़ आई थी और उन्हें लेकर अधीर होने लगी थी। लेकिन ज़िम्मेदारी का पाठ अरण्येर दिनरात्रि के मनोरंजन का सबसे छोटा अंश है। चारुलता से हर तरीक़े से भिन्न होने के बावजूद इस फ़िल्म में संरचना और संगीतात्मक लय में वैसी ही परिपूर्णता है। इसमें वैसी ही गीतात्मकता, पुनरावृत्तियों और अनुगूंजों का वैविध्य और वैसी ही स्वरानुक्रम की सटीकता मौजूद है। फ़िल्म का रूप अनेक प्रकार से ज्यां रेनेवां की फ़िल्म ‘रूल्स आफ द गेम्स’ की याद दिलाता है। भारतीय ख़ासतौर पर बंगाली बुद्धिजीवीयों की दृष्टि में विषयवस्तु स्वयं को विधान से आसानी से अलग कर लेती है, भारतीय बुद्धिजीवी संरचना और विवरण के अवलोकन को विषयवस्तु की तरह ही कला के आवश्यक तत्त्व के रूप में मुश्किल से ही देख पाता है। बर्गमैन की द सेवेन सील को वह पसंद करता है और स्माइल आफ़ ए समर नाइट के जादुई आकर्षण को वह महसूस नहीं कर पाता। जब अरण्येर दिनरात्रि को पहले पहल प्रदर्शित किया गया था तो इसे बहुत लोगों ने अतिसामान्य बताकर खारिज कर दिया था। प्राय: राय के दर्शक ही अधिक साहित्यिक सिद्ध होते हैं, उनकी इस फ़िल्म में चरण दर चरण निर्मिति इतनी परिपूर्ण है जितनी कि चारुलता में थी। इसकी लय में अधिक वैविध्य है, इस पात्र के पास संचालन की अपनी गति और शैली है जो इस गुट की लापरवाह तथा अलग अलग प्रवृत्ति, आंतरिक दायित्व बोध की कमी को उजागर करती है। पात्रों की ये भिन्नाएं उन गुणों के बावजूद हैं जो उनमें समान रूप में मौजूद हैं।

समकालीन वास्तविकता से साक्षात्कार

सत्यजित राय की पेशेवर ज़िंदगी में प्रतिद्वंद्वी कई मायनों में प्रथम मुक़ाम है। पहली दफ़ा इस फ़िल्म में वे उस तकनीक का प्रयोग करते हैं जिसे वे कभी मृणाल सेन के साथ हुए एक तीखे सार्वजनिक विवाद में चालू लटका कहकर ख़ारिज कर चुके थे। कहानी एक नकार से शुरू होती है, नकार से ही अनेक बिंदुओं को पकड़ती हैं, ख़ासकर उस दृश्य में यह नकार अपनी पराकाष्ठा पर है जहां नर्स वेश्या अपनी कंचुकी खोलने को उद्यत दिखाई पड़ती है। बीच बीच में सिद्धार्थ की मेडिकल शिक्षा की छवियां अचानक और संक्षिप्त रूप में दिखती हैं उदाहरण के लिए जब सुगठित काया वाली एक लडकी गली से गुजरती है तो पर्दे पर ‘स्त्री वक्षस्थल’ का डायग्राम उभरता है जिसकी तकनीकी व्याख्या एक शिक्षक कर रहा होता है। फिर काल्पनिक कामनापूर्ति के दृश्यों की झांकियां भी हैं, जैसे एक दृश्य में सिद्धार्थ द्वारा अपनी बहन के बॉस को पीटते हुए दिखाया जाता है। यहाँ ऐसा लगता है मानो राय यह सिद्ध करने के लिए कृतसंकल्प हों कि अगर लटकों-झटकों की बात है, तो उनके प्रयोग में भी वे उतने ही सिद्धहस्त हैं जितने की दूसरे या संभवत: उनसे बेहतर। सत्यजित राय की दूसरी महत्त्वपूर्ण कृति शांतिनिकेतन के अपने पूर्व शिक्षक-चित्रकार विनोद बिहारी मुखोपाध्याय पर बना वृत्तपूर्ण है। दृष्टि खो देने के बाद भी श्री मुखोपाध्याय सक्रिय चित्रकारी में लगे रहे थे। बीस मिनट के इस वृत्तचित्र दि इनर आइ (1972) में राय ने चित्रकार के जीवन और कृतियों के बारे में तथ्यपरक जानकारी अपनी विशिष्ट शैली में दी है। यहां चित्रकार के नेत्रहीन होने के साथ व्यर्थ की भावुकता कहीं भी नहीं दिखती। नतीजतन, तथ्यों की बारीक़ प्रस्तुति तब अत्यंत मार्मिक हो उठती है जब चित्रकार को हम उसके अंधेपन के दौर में पाते हैं और देखते हैं कि कैसे यह नेत्रहीन चित्रकार घर के इर्द-गिर्द घूम लेता है, कैसे बिना किसी की सहायता के अपने लिए चाय बना लेता है आदि आदि।

हिन्दी फ़िल्म

सत्यजित राय वर्षों तक हिन्दी में फ़िल्म बनाने के प्रस्तावों की अनसुनी करते रहे। हिन्दी भाषा की उन्हें कोई जानकारी नहीं थी और इसीलिए वे जानते थे कि भाषा की यह ग़ैरजानकारी फ़िल्म-निर्माण की उनकी निजी शैली को रास नहीं आएगी। अभी तक उनकी फ़िल्मों में एक भी संवाद नहीं था, जिसे उन्होंने खुद न लिखा हो। लेकिन 'शतरंज के खिलाड़ी' में वे ऐसा नहीं कर सके। अंशत: रंगीन माध्यम में काम करने की जरूरत से तो शायद अंशत उस विशिष्ट कालावधि और परिदृश्य की व्यापकता के आकर्षण से अनुप्राणित होकर राय ने न केवल हिन्दी वरन वाजिद अली शाह के जमाने की शिष्ट उर्दू में फ़िल्म बनाना स्वीकार किया।  
मुंशी प्रेमचंद की यह मशहूर कहानी अपने कलेवर में अत्यंत संक्षिप्त है। कहानी एक महत्त्वपूर्ण विरोधाभास का महज रेखांकन करती है कि कैसे, तब अंग्रेज़ों द्वारा लखनऊ पददलित किया जा रहा था, दो नवाबों ने शतरंज के खेल में अपनी पूरी ज़िंदगी खपा दी। भाषा की जानकारी नहीं होने का ही नतीजा था कि सत्यजित राय को इस फ़िल्म में दूसरों की सहायता लेनी पड़ी, तथापि उन्होंने इस फ़िल्म में ख्यातिलब्ध और निपुण कलाकारों को ही भूमिकाएं सौंपी थीं। नवाब की भूमिका में अमजद ख़ान जो कि समकालीन लोकप्रिय हिन्दी फ़िल्मों के ठप्पेदार खलनायक के रूप में मशहूर थे तथा जिनसे दर्शक स्नेहित घृणा करते थे, ख़ासे उम्दा लगे। दोनों नवाबों की भूमिकाओं में जिन्हें क्रमश: संजीव कुमार तथा सईद जाफ़री ने निभाया है, भी अभिनय की दृष्टि से उत्कृष्ट हैं। फिर भी जाफ़री के अभिनय में लखनऊ की शिष्ट वाक्पटुता तथा संस्कार (परिष्करण) की ज़्यादा सच्ची अभिव्यक्ति हुई है। हालांकि यह सत्यजित राय की किसी भी अन्य फ़िल्म से ज़्यादा बजट की फ़िल्म थी जिसमें हिन्दी फ़िल्मों के अति लोकप्रिय सितारों ने भूमिकाएं की थीं, फिर भी कलकत्ता को छोड़कर जहाँ इसने कमोबेश अच्छा व्यवसाय दिया था, शतरंज के खिलाड़ी कहीं भी एकमुश्त बड़े माने पर रिलीज़ नहीं हो पाई। ढेर सारी आलोचनाएं भी मिलीं, ख़ासकर उन लोगों की जो वाजिद अली शाह को ‘भारत का अंतिम स्वायत्त शासक’ के रूप में महिमामंडित होते देखना चाहते थे। इस विषय पर एक साक्षात्कार के दौरान अपनी राय ज़ाहिर करते हुए सत्यजित राय ने कहा था:
बहुत ही संभव है कि अवध के अतिक्रमण की घटना कोई ऐसा चित्रण करे जिसमें वाजिद अली शाह का महिमामंडन हो तथा आटरैम की भर्त्सना। ऐसे चित्रण से, ज़ाहिर है, फ़िल्म की लोकप्रियता में स्वत: इज़ाफ़ा हो जाता। मेरी फ़िल्म इस अयथार्थवादी चित्रण से मुक्त है। यह फ़िल्म उस प्रवृत्ति को भी हतोत्साहित करती है जो सामंतवाद और उपनिवेशवाद के प्रति मायूस किंतु ‘स्वीकृत प्रक्रिया’ के रूप में अक्सर उनकी कमियों को नज़रअंदाज कर देती है या फिर उनकी बुराइयों को समझने के साथ-साथ उनके चरित्रों में ख़ास मानवीय प्रवृत्तियाँ देखने का आग्रह करती है। इन मानवीय प्रवृत्तियों का अन्वेषण नहीं किया जाता, बल्कि ऐतिहासिक साक्ष्य से उन्हें पुष्ट किया जाता है। मैं जानता था कि ऐसे चित्रण से मनोवृत्ति का द्वैध पैदा होगा तथापि शतरंज के खिलाड़ी को मैं ऐसी कहानी नहीं मानता जिसमें आसानी से किसी एक पक्ष का हिमायती बना जा सके। यह कहानी मेरे लिए विचारोत्तेजक ज़्यादा है जिसमें दो संस्कृतियों की टकराहट है- एक निष्प्राण और अप्रभावी संस्कृति है तो दूसरी अमंगलकारी किंतु ऊर्ज्वसित। इन दो धुर छोरों की उन अर्द्ध अर्थच्छायाओं को भी पकड़ने की कोशिश की है जो इन दोनों छोरों के बीच झलकती हैं।

शतरंज के खिलाड़ी

प्रेमचन्द की यह कहानी आज़ादी से बहुत पहले लिखी गई थी। सत्यजित राय की फ़िल्म भी उसी यथार्थ को दर्शाती है जो तब से लेकर अब तक अपरिवर्तित रही है। सच ही, आज के इस दौर में जब पुनरुत्थानवादी हिन्दू कट्टरता तथा हरिजनों के विरुद्ध दमन की वारदातें बढ़ रही हैं, फ़िल्म नए रूप में प्रासंगिक हो जाती है। सत्यजित राय प्रेमचंद की कहानी में कोई भी परिवर्तन नहीं करते, शीर्षक से लेकर पंक्ति-दर-पंक्ति वे प्रेमचन्द का अनुसरण करते हैं और कहना न होगा कि राय के लिए यह प्रविधि अस्वाभाविक है। तथापि सत्यजित राय इस फ़िल्म को प्रभावित कर देने वाली विश्वसनीयता से लैस कर देते हैं- एक ऐसी विश्वसनीयता जिसे कोई सिद्धहस्त व्यक्ति ही चलचित्रों के माध्यम से व्यक्त कर सकता है। शतरंज के खिलाड़ी की अनुवर्ती राय की फ़िल्में या तो उल्लासकारी हैं। या बच्चों के लिए उपदेशात्मक कहानियां, (जय बाबा फेलुनाथ, हीरक राजार देशे) या फिर दूरदर्शन के लिए बनाई गई लघु फ़िल्में (पिकू, सद्गति) जबकि लोग उनसे यह आस लगाए बैठे थे कि वे मानव मन की गहरी अनुभूतियों पर आधारित कोई महती कृति लेकर उपस्थित होंगे।

शास्त्रीयतावाद

सत्यजित राय की उन फ़िल्मों को छोड़कर जो उनकी अपनी कहानियों पर थीं, सत्यजित राय की फ़िल्में ख्याति प्राप्त साहित्यिक मूल कथाओं, अधिकांशत: प्रतिष्ठित कृतियों पर आधारित थीं। श्रीलंका के निर्देशक लेस्टर पेरीज को लिखे एक पत्र में (मैरी सेटन के पोट्रेट आफ़ एक डायरेक्टर, सत्यजित राय में उद्धृत) सत्यजित राय ने खेद व्यक्त किया है कि-
फ़िल्म के बाह्य का महत्त्व पहले की तुलना में अधिक बढ़ना शुरू हो रहा है। लोग इस बारे में चिंतित होते हुए नहीं दिखते कि आप क्या कहते हैं, यदि आप जो कह रहे हैं उसे पर्याप्त अस्पष्ट या अप्रत्यक्ष और ग़ैरपारंपरिक तरीके से कह रहे हैं तो- और एक सामान्य दिखने वाली फ़िल्म कमतर आंक ली जाती है- मेरा आशय यह नहीं है कि सभी नए यूरोपीय फ़िल्म निर्माता प्रतिभाविहीन हैं लेकिन यह मेरी गंभीर आशंका अवश्य है कि क्या वे सेक्स के अत्यधिक उदार दोहन के बिना, जिसकी अनुमति उनकी सामाजिक संहिता उन्हें देती हुई प्रतीत होती है, आजीविका कमाना जारी रख सकते थे।[1]

रचनात्मक दृष्टि

सत्यजित राय की फ़िल्म की पांडुलिपि की न कभी प्रतिलिपि तैयार की गई, न उसे जिल्दबद्ध किया गया और न वितरित। सत्यजित राय जब इसे अपनी अवधारणा समझाने के लिए अभिनेताओं के सामने पढ़ते थे तो उसे अपनी छाती के निकट रखते थे। इसमें संवाद, अभिनय की टिप्पणियां और अवस्थान (लोकेशन) के अलावा भी बहुत कुछ होता था, इसमें रेखांकन, आख्यायन, संगीतात्मक परिकल्पनाएं, विस्तृत विवरण जो उनकी मूल धारणा को स्मृत कराएं, और संबंध, चेहरे, स्थान आदि होते थे जो फ़िल्मांकन और संपादन के समय तक के लिए तय रहते थे। वर्षों के अनुभव के साथ सत्यजित राय ने फ़िल्म निर्माण के कई विभागों में अपना प्रवेश करा लिया था।

पटकथा लेखन

सत्यजित राय अपनी पटकथा (स्क्रिप्ट) हमेशा स्वयं लिखते थे, कभी-कभी अपनी कहानियाँ भी वे तैयार करते थे, वे किसी और की स्क्रिप्ट पर फ़िल्म बनाने की स्वप्न में भी नहीं सोच सकते थे। पाथेर पांचाली के दिनों में भी उन्हें मशीन पर काम करते हुए संपादक के पीछे खड़ा हुआ देखा जा सकता था। जब वे फ़िल्म देख रहे होते थे तो अपने रूमाल को चबा डालते थे और फ़िल्म संपादक कभी कभी रचनात्मक सुझाव दे दिया करता था, जिनमें से कुछ को वे बाल सुलभ रोमांच के साथ स्वीकार कर लिया करते थे और अन्य को अपने निर्भाव चेहरे से अस्वीकार कर दिया करते थे। अभिनय का निर्देशन ऐसी चीज़ है जहाँ अधिकांश फ़िल्म निर्माता पूरे विस्तार में जाते हैं। सत्यजित राय शूटिंग से पहले संवादों की रिहर्सल नहीं करवाते थे जैसे कि अन्य निर्देशक करवाते हैं। संवाद उनकी फ़िल्मों में नाटक से बहुत भिन्न भूमिका निभाते हैं, और ये वातावरण का इतना अविभाज्य हिस्सा होते हैं कि एक कमरे के भीतर इनकी रिहर्सल करना इन्हें अर्थहीन बना सकता है। दूसरी ओर, प्रमुख रूप से ग़ैर व्यावसायिकों के साथ, वे सिर के प्रत्येक कोण, हर छोटी से छोटी भाव भंगिमा का निर्देश देते थे। अपने पात्र को सही सही ढाल चुकने के बाद वे अभिनेता की प्राकृतिक क्षमता और अभिव्यक्ति पर भरोसा करते थे कि इन्होंने जो कुछ भी मानवीय महत्त्व के साथ बताया है उसे वह अपने हाव-भाव से अभिव्यक्त करे। बच्चों के साथ वे घुटनों के बल झुक जाया करते थे और एक षड्यंत्रकारी के जैसे ढंग से फुसफुसाया करते थे, लेकिन उनसे हर संभव समान रूपता प्राप्त करने की कोशिश करते थे। केवल शेष (जो काफ़ी कुछ रह जाता था) को ही बच्चे के अपने सहज व्यवहार पर छोड़ते थे।

सत्यजित राय का लेंस

सत्यजित राय का प्रिय लेंस 40 एम.एम. था जो सामान्य मानवीय दृष्टि के सर्वाधिक अनुकूल होता है। वे अत्यधिक निकटवर्ती शाट और अत्यधिक दीर्घकोण (वाइड ऐंगिल) से बचने की प्रवृत्ति रखते थे, उनके विचार से ये दोनों ही एक प्रकार के उद्दीपक थे, एक एकांत का अतिक्रमण करता हुआ और दूसरा परिप्रेक्ष्य को बनावटी बनाता हुआ। संगीत के प्रति अपने जीवनपर्यंत लगाव के रहते (प्रारंभिक दिनों में प्रमुखत: पश्चिमी संगीत), वे सुप्रसिद्ध संगीतज्ञों- रवि शंकर, अली अकबर ख़ान, विलायत ख़ान द्वारा अपनी फ़िल्मों में किए गए योगदान को स्वीकार करने में कठिनाई महसूस करने लगे थे। इन संगीतज्ञों के साथ विस्तृत विचार-विमर्श होने तथा उनकी इच्छा पर अपनी इच्छा थोपने के थकाऊ प्रयासों के बावजूद उनकी यह कठिनाई बढ़ती गई थी।
हीरक राजार देशे, गोपी गायने बाघा बायने के बाद की फ़ंतासी फ़िल्म के लिए राय ने वस्त्र विन्यास, स्वयं अपने द्वारा चयनित सामग्री आदि सहित तथा प्रत्येक रेखांकन के बाद वाले पृष्ठ पर टंकित, के जिल्दबद्ध संस्करण तैयार कराए थे। सत्यजित राय के लिए रचनात्मकता अविभाज्य थी। वे अपने काम के वैसे ही सर्वसिद्ध कर्ता थे जैसा कि कोई भी अन्य व्यक्ति हो सकता था। सामूहिक कार्य के लिए पहचाने जाने वाले एक प्रख्यात माध्यम पर मनोग्रस्तता की हद तक एक कार्मिकता आरोपित किए जाने की कुंजी, पाथेर पांचाली की शूटिंग के दौरान के एक प्रकरण में तलाशी जा सकती है जिसका वर्णन उन्होंने अवर फ़िल्म्स देअर फ़िल्म्स के एक लेख में किया है:
"उस पहले दिन एक शाट जो मुझे लेना था वह अपने भाई अपु-जो उसकी उपस्थिति से अनभिज्ञ था- को लंबे लहराते नरकुलों के पीछे से देखती हुई लड़की दुर्गा का था। मैंने एक सामान्य लेंस से एक मध्य दर्जें का निकट दृश्यबंध (क्लोजअप) लेने की योजना बनाई थी जिसमें उसे कमर के ऊपर से दिखाना था। उस दिन हमारे साथ एक मित्र था जो व्यावसायिक कैमरामैन था। जब मैं नरकुलों के पीछे खड़ा होकर दुर्गा को यह बता रहा था कि उसे क्या करना है, तभी मेरी उड़ती हुई दृष्टि लेंसों से छेड़छाड़ करते हुए अपने मित्र पर पड़ी, उसने यह किया कि कैमरे से सामान्य लेंस निकाल लिया था और उसके स्थान पर ‘लंबी फोकस लेंथ’ वाला लेंस लगा दिया था। जब मैं व्यू फाइंडर से देखने के लिए वहाँ आया तो वह बोला, ‘‘इस लेंस से उसके ऊपर एक नज़र डालो।’’ इससे पहले मैं बहुत कुछ अचल छायांकन (स्टिल फ़ोटोग्राफी) कर चुका था। लेकिन कार्यिटर ब्रेसां के प्रति अपनी अचल निष्ठा के चलते मैंने ‘लांग लेंस’ के साथ कभी काम नहीं किया था। अब व्यू फाइंडर जो दिखा रहा था वह दुर्गा के चेहरे का एक बड़ा दृश्यबंध (क्लोजअप) था, चेहरा पीछे से धूप में था और हिलते चमकते नरकुलों के बीच से, जिन्हें उसने अपने हाथों से हटा रखा था, झांक रहा था। यह बहुत ही आकर्षक प्रतीत हो रहा था, मैंने अपने मित्र को समयानुकूल सलाह देने के लिए धन्यवाद दिया और वह शाट ले लिया। कुछ दिनों बाद, कटिंग रूप में, यह देखकर मैं दहशत में आ गया था कि इस दृश्य को किसी भी तरह इतने बड़े क्लोजअप की जरूरत नहीं थी। अपने सारे सौंदर्य के बावजूद, या इसके कारण ही यह दृश्यबंध (शाट) अन्य दृश्यबंधों से पूरी तरह अलग हो गया था और इस तरह अपने पूरे दृश्य को ही भ्रष्ट कर दिया था। इसने एक झटके से ही मुझे फ़िल्म निर्माण के दो मूल पाठ सिखा दिए :

1.  एक शाट केवल तभी ख़ूबसूरत होता है जब वह सही संदर्भ में हो और इसके सही होने का उसके साथ कोई संबंध नहीं है जो आंख को सुंदर प्रतीत होता है।
2.  विवरण पर किसी भी उस व्यक्ति की सलाह मत मानो जो पूरी फ़िल्म को अपने दिमाग में उतनी स्पष्टता से न बिठाए हुए हो जितनी कि आप बिठाए हुए हैं।"

साहित्यिक विचार

अपनी फ़िल्मों की प्रकृति के स्रोत के रूप में वे बार-बार पश्चिमी संगीत की बात करते थे। सिनेमा वह माध्यम है जो भारतीय संगीत की तुलना में पश्चिमी संगीत के अधिक निकट है क्योंकि भारतीय परंपरा में अपरिवर्तनीय समय की अवधारणा मौजूद नहीं है- वहां ‘संयोजन’ रचना नहीं है- अवधि परिवर्तनीय है और संगीतकार की मन स्थिति पर निर्भर करती है। लेकिन सिनेमा समयबद्ध संयोजन है। यही कारण है कि मैं महसूस करता हूँ कि पश्चिमी रूपों की मेरी जानकारी मेरे लिए एक सुविधा के बतौर रही है। एक लाभ यह है कि ‘सोनाटा का रूपाकार एक नाटकीय रूपाकार है जिसके साथ विकास (डेवलपमेंट), कथ्य और लय की पुनरावृत्ति (रिकेपिटुलेशन), और ‘कोडा’ (एक विशेष संगीत रचना से जुड़े हुए) सिंफनी या सोनाटा जैसी संगीत विधाओं ने मेरी फ़िल्मों की संरचना को काफ़ी प्रभावित किया है। चारुलता के लिए मैंने निरंतर मौजार्ट के बारे में सोचा था। सत्यजित राय ने जो किया, वह यह था कि उपनिषदों में अभिव्यक्त भारतीय चिंतन और आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टियों को एक साथ एक ऐसे संश्लेषण में पिरो दिया जो 19वीं शताब्दी के विचारकों और समाज सुधारकों ने विकसित किया था और जिसका चरम टैगोर में है। सत्यजित राय का यह संश्लेषण स्वामीविवेकानन्द और महाऋषि अरविंद के वेदांत दर्शन की भी स्मृति कराता है। इस दर्शन ने हिंदुत्व के सुधार और पुनर्मूल्याकंन की वह पृष्ठभूमि तैयार की थी जो 19वीं और 20वीं शताब्दी के शुरुआती दौर में प्रभावी रही। इसमें अगर भारतीय परंपरा का बहिष्कार है तो बाद के हिंदुत्व के काल दोषपूर्ण पहलुओं का भी बहिष्कार है जिसमें मूर्तिपूजा, पशु बलि, मानव बलि तथा शताब्दियों के दौरान विभिन्न प्रकार के अंधविश्वासों में वृद्धि आदि थे। हिन्दू दर्शन या आध्यात्मिकता का बहिष्कार नहीं था। देवी, महापुरुष या जय बाबा फेलूनाथ जैसी फ़िल्में धर्म के नाम पर की गई समाज विरोधी विकृतियों की आलोचना या उपहास करती है। सत्यजित राय की प्रासंगिकता आज उस समय फिर से बढ़ गई हे जब धार्मिक कट्टरपंथी 19वीं और प्रारंभिक 20वीं शताब्दी के समाज सुधारों की घड़ी को उलटा घुमाने की कोशिश कर रहे हैं ताकि वे तथ्य के स्थान पर मिथक को और लोकतंत्र के स्थान पर सर्वसत्तावाद को स्थापित कर सकें।

सम्मान एवं पुरस्कार

विश्व विख्यात निर्देशक सत्यजित राय ने सबसे ज़्यादा राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार जीते हैं। उन्होंने और उनके काम ने कुल 32 राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार प्राप्त किये।

फ़िल्म समीक्षकों की नज़रों से

सत्यजित राय की फ़िल्मों के आलोचकों की शिकायत रही कि वह मौजूदा समस्याओं से बचते हैं लेकिन 'जन अरण्य' इस लिहाज़ से महत्त्वपूर्ण फ़िल्म है जिसमें परीक्षा प्रणाली, मध्यम वर्ग की आकांक्षा, रोज़गार की समस्या का बेहतरीन चित्रण किया गया है। जन अरण्य की परंपरा में ही प्रतिद्वंद्वी या सीमाबद्ध को भी शामिल किया जा सकता है। राय की फ़िल्मों में स्त्री पात्रों की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है। उनकी कई महिला पात्र पढ़ी लिखी नहीं हैं लेकिन उनकी प्रतिक्रियाएं सच्ची हैं और उनमें प्रेम, घृणा आदि को लेकर स्पष्ट संवेदनशीलता हैं। समीक्षकों के अनुसार सत्यजित राय ने न केवल फ़िल्मों बल्कि रेखांकन के जरिए भी अपनी रचनात्मक ऊर्जा को बखूबी अभिव्यक्त किया। बच्चों की पत्रिकाओं और पुस्तकों के लिए बनाए गए सत्यजित राय के रेखाचित्रों को कला समीक्षक उत्कृष्ट कला की श्रेणी में रखते हैं। साहित्यकार सत्यजित राय की बाल मनोविज्ञान पर जबरदस्त पकड़ थी और इसका परिचय उनकी फेलूदा कहानियों की शृंखला में मिलता है। इस शृंखला की कहानियों में सरसता, रोचकता और पाठकों को बांधकर रखने के सारे तत्व मौजूद हैं।[2]

सत्यजित राय और ऑस्कर

विश्व के दस फ़िल्मकारों में शामिल बांग्ला फ़िल्मकार सत्यजित राय ने अपनी किसी भी फ़िल्म को ऑस्कर की दौड़ में शामिल होने नहीं भेजा। उनकी फ़िल्म ‘पाथेर पांचाली’ (1955) और अपू त्रयी को दुनिया भर के फ़िल्म फेस्टिवल्स में सैकड़ों अवॉर्ड मिले हैं। इसके बावजूद 'राय मोशाय' ने ऑस्कर के फेरे नहीं लगाए। स्वयं ऑस्कर अवॉर्ड 1992 में चल कर कोलकाता आया और विश्व सिनेमा में अभूतपूर्व योगदान के लिए सत्यजित राय को मानद ऑस्कर अवॉर्ड से अलंकृत किया। 
सत्यजित राय बीमार थे। उनके घर आकर ऑस्कर अवॉर्ड के पदाधिकारियों ने उनका सम्मान किया। इस आयोजन की फ़िल्म बनाई गई और उसे ऑस्कर सेरेमनी में प्रदर्शित कर पूरी दुनिया को दिखाया गया।

अंतिम चरण

घरे बाहरे (1984) के निर्माण के साथ सत्यजित राय की जो बीमारी शुरू हुई उससे वे पूर्ण रूप से कभी भी निजात नहीं पा सके और उनका स्वास्थ्य लगातार गिरता रहा। अपने पिता पर बनाए गए आधे घंटे की लघु फ़िल्म को छोड़ दें तो वे पूरे पांच साल तक फ़िल्म निर्माण से अलग रहे। गणशत्रु और उसके बाद की फ़िल्मों का निर्देशक डाक्टरों और नर्सों से घिरा रहता था, दरवाज़े पर एम्बुलेंस गहन चिकित्सा कक्ष के बतौर खड़ी रहती थी। ‘अब मेरा डाक्टर- मुझे फ़िल्म निर्माण की विधि बता रहा है और मुझे आदेश है कि मैं स्टूडियों के अंदर ही कार्य करूं।’ किंतु साथ में उनका यह भी कहना था कि कैमरे के पीछे आकर काम करना उन्हें प्रफुल्लित कर देता था। और दवाइयों से जितनी राहत मिली उससे कहीं अधिक राहत उन्हें कैमरे से मिली। वह हमारे बीच भले ही मौजूद नहीं हैं लेकिन उनकी दर्जनों फीचर फ़िल्मों, कई वृत चित्र और लघु फ़िल्में मौजूद हैं जिनसे उनकी उपस्थिति महसूस की जा सकती है।

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