Tuesday 23 May 2017

राजा शिव प्रसाद

राजा शिव प्रसाद (जन्म- 1823, वाराणसी, उत्तर प्रदेश; मृत्यु- 1895) प्रारंभिक हिन्दी गद्य साहित्य के निर्माता थे। राजा राममोहन राय, राजा शिव प्रसाद, जुगलकिशोर शुक्ल और बंकिमचंद्र चटर्जी जैसे दिग्गज कलमकारों ने ही पत्र-पत्रिकाओं को जनजागरण का अहम हथियार बनाया था)  वे शिक्षा-विभाग में कार्यरत थे। उनके प्रयत्नों से स्कूलों में हिन्दी को प्रवेश मिला। उस समय हिन्दी की पाठ्यपुस्तकों का बहुत अभाव था। उन्होने स्वयं इस दिशा में प्रयत्न किया और दूसरों से भी लिखवाया। आपने 1845 में 'बनारस अखबार' नामक एक हिन्दी पत्र निकाला और इसके माध्यम से हिन्दी का प्रचार-प्रसार किया। इनकी भाषा में फारसी-अरबी के शब्दों का अधिक प्रयोग होता था।
राजा साहब 'आम फहम और खास पसंद' भाषा के पक्षपाती और ब्रिटिश शासन के निष्ठावान् सेवक थे। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने इन्हें गुरु मानते हुए भी इसलिए इनका विरोध भी किया था। फिर भी इन्हीं के उद्योग से उस समय परम प्रतिकूल परिस्थितियों में भी शिक्षा विभाग में हिंदी का प्रवेश हो सका। साहित्य, व्याकरण, इतिहास, भूगोल आदि विविध विषयों पर इन्होंने प्राय: ३५ पुस्तकों की रचना की जिनमें इनकी सवान-ए उमरी (आत्मकथा), राजा भोज का सपना, आलसियों का कोड़ा और 'इतिहासतिमिरनाशक' उल्लेख्य हैं।
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जीवन परिचय
शिवप्रसाद सितारेहिंद का जन्म बनारस की 'भाट की गली' में माघ शुक्ल २, संवत् १८८० को जैन परिवार में हुआ था। जागेश्वर महादेव की कृपा से उत्पन्न समझकर नाम शिवप्रसाद रखा गया। घर पर और स्कूल में संस्कृतहिंदीबँगलाफारसीअरबी और अँगरेजी की शिक्षा प्राप्त की।
इनके पिता का नाम गोपीचंद था। पूर्वजों का मूल स्थान रणथंभोर था। वंश के मूल पुरुष गोखरू से ग्याहरवीं पीढ़ी में उत्पन्न भाना नामक इनका पूर्वज अलाउद्दीन खिलजी के साथ रणथंभोर विजय के बाद चंपानेर चला गया। इनके एक पूर्वज को शाहजहाँ ने 'राय' की और दूसरे पूर्वज को मुहम्मदशाह ने 'जगत्सेठ' की उपाधि दी थी। नादिरशाही में परिवार के दो आदमियों के मारे जाने पर इनका परिवार मुर्शिदाबाद चला गया। बंगाल के सूबेदार कासिम अली खाँ के अत्याचारों से तंग आकर इनके दादा राजा अँग्रेजों से मिल गए जिसपर सूबेदार ने उन्हें कैद कर लिया। किसी प्रकार वहाँ से भागकर ये बनारस चले आए और यहीं बस गए।
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जब शिवप्रसाद जी ग्यारह साल के थे, पिता का देहांत हो गया। सत्रह साल की उम्र में ही भरतपुर के राजा की सेवा में गए और राज्य के वकील का पद प्राप्त किया। तीन साल बाद नौकरी छोड़ दी। कुछ दिन बेकार रहकर सन् १८४५ में ब्रिटिश सरकार की सेवा स्वीकार की और सुबराँव के सिख युद्ध में सर हेनरी लारेंस की जासूस के रूप में सहायता की। तत्पश्चात् शिमले की एजेंटी के मीर मुंशी नियुक्त हुए। सात साल बाद नौकरी छोड़ काशी चले आए परंतु शीघ्र ही गवर्नर जेनरल के एजेंट के आग्रह पर पुन: मीर मुंशी का पद सवीकार किया और दो ही सालों के भीतर पहले बनारस में शिक्षा विभाग के संयुक्त इंस्पेक्टर और तत्पश्चात् बनारस और इलाहाबाद के स्कूल इंस्पेक्टर नियुक्त हुए। सन् १८७२ ई. में सी. आई. ई. और सन् १८८७ ई. में लार्ड मेयो ने उन्हें इंपीरियल कौंसिल का सदस्य बनाया जहाँ एलबर्ट बिल का विरोध कर उन्होंने उसे पारित न होने दिया। सन् १८७८ ई. में सरकारी नौकरी से पेंशन ले ली। इनकी यह इच्छा कि 'काशी की मिट्टी जल्द काशी में मिले' २३ मई सन् १८९५ ई. को पूरी हुई।
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हिन्दी और देवनागरी का समर्थन
प्रारम्भिक खड़ी बोली हिन्दी के विकास में हिन्दी और नागरी लिपि के अस्तित्व की लड़ाई लड़ने वालों में राजा शिवप्रसाद ‘सितारे हिन्द’ का नाम अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। वे हिन्दी और नागरी के समर्थन में उस समय मैदान में उतरे जब हिन्दी गद्य की भाषा का परिष्कार और परिमार्जन नहीं हो सका था अर्थात् हिन्दी गद्य का कोई सुव्यवस्थिति और सुनिश्चित नहीं गढ़ा जा सका था। खड़ी बोली हिन्दी घुटनों के बल ही चल रही थी। वह खड़ी होने की प्रक्रिया में तो थी; मगर नहीं हो पा रही थी। क्योंकि एक तरफ अँग्रेजों के आधिपत्य के कारण अँग्रेजी के प्रसार-प्रचार का सुव्यवस्थित अभियान चलाया जा रहा था तो दूसरी तरफ राजकीय कामकाज में, कचहरी में उर्दू समादृत थी।
कहा जाता है कि हिन्दी वाले भी अपनी पुस्तकें फारसी में लिखने लगे थे, जिसके कारण देवनागरी अक्षरों का भविष्य ही खतरे में पड़ गया था। जैसा कि बालमुकुन्दजी की इस टिप्पणी से स्पष्ट होता है-
जो लोग नागरी अक्षर सीखते थे, वे फारसी अक्षर सीखने पर विवश हुए और हिन्दी भाषा हिन्दी न रहकर उर्दू न गयी हिन्दी उस भाषा का नाम रहा जो टूटी-फूटी चाल पर देवनागरी अक्षरों में लिखी जाती थी
धीरे-धीरे उर्दू के फैशन और हिन्दी विरोध के कारण देवनागरी अक्षरों का लोप होने लगा। अदालती और राजकीय कामकाज में उर्दू का बोलबाला होने से उर्दू पढ़े-लिखे लोगों की भाषा बनने लगी। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक उर्दू की व्यापकता थी। खड़ी बोली का अरबी-फारसी रूप ही लिखने-पढ़ने की भाषा होकर सामने आ रहा था। हिन्दी को इससे बड़ा आघात पहुँचा।
राजा शिव प्रसाद का लिपि सम्बन्धी प्रतिवेदन (1868 ई.)
फ़ारसी लिपि के स्थान पर नागरी लिपि और हिन्दी भाषा के लिए पहले प्रयास के र्रु में राजा शिव प्रसाद का 1868 ई. में उनके लिपि सम्बन्धी प्रतिवेदन (court character in the upper provinces of India) से आरम्भ हुआ था।
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कृतियाँ
साहित्य, व्याकरण, इतिहास, भूगोल आदि विविध विषयों पर इन्होंने प्राय: ३५ पुस्तकों की रचना की। राजा शिव प्रसाद की रचनाओं में निम्नलिखित रचनाएँ बहुत प्रसिद्ध थीं-
मानव धर्मसार
वामा मनरंजन
आलसियों का कोड़ा
विद्यांकर
राजा भोज का सपना
इतिहास तिमिर नाशक
बैताल पच्चीसी
सवान-ए उमरी (आत्मकथा)
लिपि सम्बन्धी प्रतिवेदन (1868 ई.)

गोविन्द रघुनाथ धत्ते ने सन 1845 में राजा शिव प्रसाद की मदद से ‘बनारस अख़बार’ निकाला था।
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