Sunday 21 May 2017

शेरशाह सूरी

शेरशाह सूरी ( जन्म: 1485-86 हिसार अथवा 1472 सासाराम - मृत्यु: 22 मई 1545 बुन्देलखण्ड) का वास्तविक नाम 'फ़रीद ख़ाँ' था। शेरशाह सूरी का भारत के इतिहास में विशेष स्थान है। शेरशाह, सूर साम्राज्य का संस्थापक था। इसके पिता का नाम हसन खाँ था। शेरशाह को शेर ख़ाँ के नाम से भी जाना जाता है। इतिहासकारों का कहना है कि अपने समय में अत्यंत दूरदर्शी और विशिष्ट सूझबूझ का आदमी था। इसकी विशेषता इसलिए अधिक उल्लेखनीय है कि वह एक साधारण जागीदार का उपेक्षित बालक था। उसने अपनी वीरता, अदम्य साहस और परिश्रम के बल पर दिल्ली के सिंहासन पर क़ब्ज़ा किया था।
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जन्म और बचपन
शेरशाह सूरी के जन्म तिथि और जन्म स्थान के विषय में इतिहासकारों में मतभेद हैं। कुछ इतिहासकारों ने इसका जन्म सन् 1485-86, हिसार, फ़िरोजा हरियाणा में और कुछ सन् 1472, सासाराम बिहार में बतलाया है। इब्राहिम ख़ाँ के पौत्र और हसन के प्रथम पुत्र फ़रीद (शेरशाह) के जन्म की तिथि अंग्रेज़ इतिहासकार ने सन् 1485-1486 बताई है। शेरशाह सूरी पर विशेष खोज करने वाले भारतीय विद्वान श्री कालिका रंजन क़ानूनगो ने भी फ़रीद का जन्म सन् 1486 माना है। हसन ख़ाँ के आठ लड़के थे। फ़रीद ख़ाँ और निज़ाम ख़ाँ एक ही अफ़ग़ान माता से पैदा हुए थे। अली और यूसुफ एक माता से। ख़ुर्रम (कुछ ग्रंथों में यह नाम मुदहिर है) और शाखी ख़ाँ एक अन्य माँ से और सुलेमान और अहमद चौथी माँ से उत्पन्न हुए थे। फ़रीद की माँ बड़ी सीधी-सादी, सहनशील और बुद्धिमान थी। फ़रीद के पिता ने इस विवाहिता पत्नी के अतिरिक्त अन्य तीन दासियों को हरम में रख लिया था। बाद में इन्हें पत्नी का स्थान प्राप्त हुआ। फ़रीद और निज़ाम के अतिरिक्त शेष छह पुत्र इन्हीं की संतान थे। कुछ समय बाद हसन ख़ाँ, फ़रीद और निज़ाम की माँ से उदासीन और दासियों के प्रति आसक्त रहने लगा। वह सुलेमान और अहमद ख़ाँ की माँ के प्रति विशेष आसक्त था। वह इसे अधिक चाहने लगा था। हसन की यह चहेती (सुलेमान और अहमद ख़ाँ की माँ) फ़रीद और निज़ाम की माँ से जलती थी, क्योंकि सबसे बड़ा होने के कारण फ़रीद जागीर का हकदार था। इस परिस्थिति में फ़रीद का दुखी होना स्वाभाविक ही था। पिता उसकी ओर से उदासीन रहने लगा।
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बुलंद हौसला
फ़रीद ख़ाँ बचपन से ही बड़े हौसले वाला इंसान था। उसने अपने पिता से आग्रह किया कि मुझे अपने मसनदेआली उमर खान के पास ले चलिये और प्रार्थना कीजिये कि वह मुझे मेरे योग्य कोई काम दें। पिता ने पुत्र की बात यह कहकर टाल दी कि अभी तुम बच्चे हो। बड़े होने पर तुम्हें ले चलूंगा। किंतु फ़रीद ने अपनी मां से आग्रह किया और अपने पिता को इस बात के लिए राजी किया। हसन, फ़रीद को उमर खान के पास ले गया। उमर खान ने कहा कि बड़ा होने पर इसे मैं कोई न कोई काम दूंगा किंतु अभी इसे महाबली (इसका दूसरा नाम हनी है) ग्राम का बलहू नामक भाग जागीर के रूप में देता हूँ। फ़रीद ने बड़ी प्रसन्नता से अपनी माँ को इसकी सूचना दी।
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पारिवारिक विवाद
पिता और शेरशाह के आपसी सम्बन्ध कटु होते जा रहे थे। इस कारण कौटुंबिक विवाद खड़ा होने लगा। इस विवाद का एक अच्छा फल भी हुआ। पिता की उदासीनता, विमाता की निष्ठुरता माता की गंभीरता और परिवार में बढ़ते हुए विद्वेषमय वातावरण से बालक फ़रीद ख़ाँ (शेरशाह) शुरू से ही गंभीर, दृढ़निश्चयी और आत्मनिर्भर होने लगा। यद्यपि नारनौल से सहसराम और खवासपुर पहुँचकर तथा वहाँ बड़ी जागीर पा जाने से हसन ख़ाँ का दर्जा बढ़ गया था, तथापि फ़रीद और निज़ाम तथा इनकी माता के प्रति हसन के व्यवहार में अवनति ही होती गई। बाप-बेटे का सम्बन्ध दिन पर दिन बिगड़ता ही गया। फ़रीद रुष्ट होकर जौनपुर चला गया और स्वयं जमाल ख़ाँ की सेवा में उपस्थित हो गया। जब हसन ख़ाँ को पता चला कि फ़रीद जौनपुर चला गया है, तब उसे यह भय हुआ कि कहीं वह जमाल ख़ाँ से मेरी शिकायत न कर दे। अतः उसने जमाल ख़ाँ को पत्र लिखा कि, "फ़रीद मुझसे रुष्ट होकर आपके पास चला गया है। कृपया उसे मनाकर मेरे पास भेज देने का कष्ट करें। यदि वह आपके कहने पर भी घर वापस आने के लिए तैयार न हो तो, आप उसे अपनी सेवा में रखकर उसके लिए धार्मिक आचार शास्त्र की शिक्षा का प्रबंध करने की अनुकंपा करें"। 
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बहलोल की मृत्यु
बहलोल की मृत्यु हो जाने पर सिकंदर लोदी दिल्ली के सिंहासन पर बैठा। उसने अपने भाई बैबक खान (बरबक खान) से जौनपुर सूबा (तत्कालीन) जीत लिया। उसने जमाल खान को जौनपुर का शासक नियुक्त किया और उसे आदेश दिया कि वह 12 हज़ार घुड़सवारों की व्यवस्था करके उनमें जौनपुर के सूबे को जागीरों के रूप में बांट दें। जमाल खान, हसन खान को जिसकी सेवा से वह बहुत प्रसन्न था, जौनपुर ले आया और उसे 500 घुड़सवारों की सेना की व्यवस्था के लिए बनारस के समीप सहसराम, हाज़ीपुर और टांडा की जागीरें प्रदान कर दीं।
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हुमायुँ और शेरशाह
आगरा में हुमायूँ की अनुपस्थिति के दौरान (फ़रवरी, 1535-1537 तक) शेरशाह ने अपनी स्थिति और मज़बूत कर ली थी। वह बिहार का निर्विरोध स्वामी बन चुका था। नज़दीक और पास के अफ़ग़ान उसके नेतृत्व में इकट्ठे हो गये थे। हालाँकि वह अब भी मुग़लों के प्रति वफ़ादारी की बात करता था, लेकिन मुग़लों को भारत से निकालने के लिए उसने ख़ूबसूरती से योजना बनायी। बहादुर शाह से उसका गहरा सम्पर्क था। बहादुर शाह ने हथियार और धन आदि से उसकी बहुत सहायता भी की थी। इन स्रोतों के उपलब्ध हो जाने से उसने एक कुशल और बृहद सेना एकत्र कर ली थी। उसके पास 1200 हाथी भी थे। हुमायूँ के आगरा लौटने के कुछ ही दिन बाद शेरशाह ने अपनी सेना का उपयोग बंगाल के सुल्तान को हराने में किया था और उसे तुरन्त 1,300,000 दीनार (स्वर्ण मुद्रा) देने के लिए विवश किया था।
एक नयी सेना को लैस करके हुमायूँ ने वर्ष के अन्त में चुनार को घेर लिया। हुमायूँ ने सोचा था कि, ऐसे शक्तिशाली क़िले को पीछे छोड़ना उचित नहीं होगा, क्योंकि इससे उसकी रसद के मार्ग को ख़तरा हो सकता था। लेकिन अफ़ग़ानों ने दृढ़ता से क़िले की रक्षा की। कुशल तोपची रूमी ख़ाँ के प्रयत्नों के बावजूद हुमायूँ को चुनार का क़िला जीतने में छः महीने लग गये। इसी दौरान शेरशाह ने धोखे से रोहतास के शक्तिशाली क़िले पर अधिकार कर लिया। वहाँ वह अपने परिवार को सुरक्षित छोड़ सकता था। फिर उसने बंगाल पर दुबारा आक्रमण किया और उसकी राजधानी गौड़ पर अधिकार कर लिया।
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चौंसा एवं बिलग्राम के युद्ध
1539 ई. में चौंसा का एवं 1540 ई. में बिलग्राम या कन्नौज के युद्ध जीतने के बाद शेरशाह 1540 ई. में दिल्ली की गद्दी की पर बैठा। उत्तर भारत में द्वितीय अफ़ग़ान साम्राज्य के संस्थापक शेर ख़ाँ द्वारा बाबर के चदेरी अभियान के दौरान कहे गये ये शब्द अक्षरशः सत्य सिद्ध हुए, “ कि अगर भाग्य ने मेरी सहायता की और सौभाग्य मेरा मित्र रहा, तो मै मुग़लों को सरलता से भारत से बाहर निकाला दूँगा।” चौंसा युद्ध के पश्चात् शेर ख़ाँ ने ‘शेरशाह’ की उपाधि धारण कर अपना राज्याभिषेक करवाया। कालान्तर में इसी नाम से खुतबे (उपदेश या प्रशंसात्मक रचना) पढ़वाये एवं सिक्के ढलवाये। जिस समय शेरशाह दिल्ली के सिंहासन पर बैठा, उसके साम्राज्य की सीमायें पश्चिम में कन्नौज से लेकर पूरब में असम की पहाड़ियों एवं चटगाँव तथा उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में झारखण्ड की पहाड़ियों एवं बंगाल की खाड़ी तक फैली हुई थी।
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गक्खरों से युद्ध
1541 ई. में शेरशाह सूरी ने गक्खरों को समाप्त करने के लिए एक अभियान किया। वह गक्खरों को इसलिए समाप्त करना चाहता था क्योंकि, यह जाति आये दिन मुग़लों की सहायता किया करती थी। शेरशाह गक्खर जाति को समाप्त करने के अपने लक्ष्य को तो पूरा नहीं कर सका, लेकिन फिर भी वह गक्खरों की शक्ति को कम करने में अवश्य सफल रहा। शेरशाह ने अपनी उत्तरी-पश्चिमी सीमा को सुरक्षित करने के लिए एक शक्तिशाली ‘रोहतासगढ़’ नामक क़िले का निर्माण करवाया। हैबत ख़ाँ एवं खवास ख़ाँ के प्रतिनिधित्व में शेरशाह ने यहाँ पर एक अफ़ग़ान सैनिक टुकड़ी को नियुक्त कर दिया।
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बंगाल का विद्रोह (1541 ई.)
बंगाल का सूबेदार ख़िज़्र ख़ाँ, जो एक स्वतन्त्र शासक की तरह व्यवहार कर रहा था, के विद्रोह को कुचलने के लिए शेरशाह बंगाल आया। उसने ख़िज़्र ख़ाँ को बन्दी बना लिया। भविष्य में दोबारा बंगाल में विद्रोह को रोकने के लिए शेरशाह ने यहाँ एक नवीन प्रशासनिक व्यवस्था को प्रारम्भ किया, जिसके अन्तर्गत पूरे बंगाल को कई सरकारों (ज़िलों) में बाँट दिया गया और साथ ही प्रत्येक सरकार में एक छोटी सेना के साथ ‘शिक़दार’ (किसी श्रेत्र विशेष का अधिकारी) नियुक्त कर दिया गया। शिक़दारों को नियंत्रित करने के लिए एक ग़ैर सैनिक अधिकारी ‘अमीन-ए-बंगला’ की नियुक्ति की गई। सर्वप्रथम यह पद ‘क़ाज़ी फ़जीलात’ नाम के व्यक्ति को दिया गया।
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मालवा (1542 ई.)
गुजरात के शासक बहादुर शाह के मरने के बाद मालवा के सूबेदार मल्लू ख़ाँ ने अपने को ‘कादिर शाह’ के नाम से मालवा का स्वतन्त्र शासक घोषित कर लिया। उसने अपने नाम से सिक्के ढलवाये एवं 'खुबते' (उपदेश या प्रशंसात्मक रचना) पढ़वाये। शेरशाह मालवा को अपने अधीन करने के लिए कादिर शाह पर आक्रमण करने के लिए आगे बढ़ा और अप्रैल, 1542 ई. में रास्ते में ही शेरशाह ने ग्वालियर के क़िले पर अधिकार कर वहाँ के शासक पूरनमल को अपने अधीन कर लिया। कादिर शाह ने शेरशाह से भयभीत होकर सारंगपुर में उसके समक्ष आत्म समर्पण कर दिया। उसके समर्पण के बाद मांडू, उज्जैन एवं सारंगपुर पर शेरशाह का क़ब्ज़ा हो गया। शेरशाह ने भद्रता का परिचय देते हुए कादिर शाह को लखनौती व कालपी का गर्वनर नियुक्त किया, परन्तु कादिर शाह, शेरशाह से डरकर अपने परिवार के साथ गुजरात के शासक महमूद तृतीय की शरण में चला गया। शेरशाह ने सुजात ख़ाँ को मालवा का गर्वनर नियुक्त कर वापस जाते समय ‘रणथम्भौर’ के शक्तिशाली क़िले को अपने अधीन कर पुत्र आदिल ख़ाँ को वहाँ का गर्वनर बना दिया।
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रायसीन (1543 ई.)
रायसीन के शासक पूरनमल द्वारा 1542 ई. में शेरशाह की अधीनता स्वीकार करने के बाद भी शेरशाह के लिए रायसीन पर आक्रमण करना इसलिए आवश्यक हो गया था, क्योंकि वहाँ की मुस्लिम जनता को पूरनमल से बड़ी शिक़ायत थी। साथ ही रायसीन की सम्पन्नता भी आक्रमण का एक कारण थी। 1543 ई. में रायसीन के क़िले पर घेरा डाला गया। कई महीने तक घेरा डाले रहने पर भी शेरशाह को सफलता नहीं मिली। अन्ततः शेरशाह ने चालाकी से पूरनमल को उसके आत्म-सम्मान एवं जीवन की सुरक्षा का वायदा कर आत्म-समर्पण हेतु तैयार कर लिया। कुतुब ख़ाँ और आदिल ख़ाँ इस शर्त के गवाह बने। परन्तु रायसीन के मुसलमानों के पुनः दबाब के कारण राजपूतों को दण्ड देने के लिए शेरशाह ने एक रात राजपूतों के खेमों को चारों ओर से घेरा लिया। अपने को घिरा हुआ पाकर पूरनमल एवं उसके सिपाहियों ने बहादुरी से लड़ते हुए प्राणोत्सर्ग कर दिया तथा उनकी स्त्रियों ने ‘जौहर’ कर लिया। शेरशाह द्वारा किया गया यह विश्वासघात उसके व्यक्तितत्व पर काला धब्बा है। इस विश्वासघात से कुतुब ख़ाँ इतना आहत हुआ कि उसने आत्महत्या कर ली।
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सिन्ध एवं मुल्तान (1543 ई.)
शेरशाह ने हैवत ख़ाँ के नेतृत में सिंध तथा मुल्तान के विद्रोहियों बख्सू लंगाह एवं फतेह ख़ाँ पर विजय प्राप्त की। शेरशाह ने मुल्तान में फतेह ख़ाँ एवं सिंध में इस्लाम ख़ाँ को सूबेदार नियुक्त किया।
मालदेव से युद्ध (1544 ई.)
मालदेव, मारवाड़ (राजस्थान) पर शासन कर रहा था। उसकी राजधानी जोधपुर थी। उसकी बढ़ती शक्ति से शेरशाह को ईष्र्या थी। अतः बीकानेर नरेश कल्याणमल एवं ‘मेडता’ के शासक वीरमदेव के आमन्त्रण पर शेरशाह ने मालदेव के विरुद्ध अभियान किया। दोनों सेनायें ‘भल’ नामक स्थान पर एक दूसरे के सम्मुख उपस्थित हुई। यहाँ भी शेरशाह ने कूटनीति का सहारा लेते हुए मालदेव के शिविर में यह भ्रांति फैला दी कि, उसके सरदार उसके साथ नहीं हैं। इससे मालदेव ने निराश होकर बिना युद्ध किये वापस होने का निर्णय कर लिया। फिर भी उसके ‘जयता’ एवं ‘कुम्पा’ नाम के सरदारों ने अपने ऊपर किये गये अविश्वास को मिटाने के लिए शेरशाह की सेना से टक्कर ली, परन्तु वे वीरगति को प्राप्त हुए। इस युद्ध को जीतने के बाद शेरशाह ने कहा कि, "मै मुट्ठी भर बाजरे के लिए हिन्दुस्तान के साम्राज्य को प्रायः खो चुका था।" शेरशाह ने भागते हुए मालदेव का पीछा करते हुए अजमेर, जोधपुर, नागौर, मेड़ता एवं आबू के क़िलों को अधिकार में कर लिया। शेरशाह की यह विजय उसके मरने के बाद स्थायी नहीं रह सकी। अभियान से वापस आते समय शेरशाह ने मेवाड़ को भी अपने अधीन कर लिया। जयपुर के कछवाह राजपूत सरदारों ने भी शेरशाह की अधीनता स्वीकार कर ली। इस प्रकार राजस्थान उसके नियंत्रण में आ गया।
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हिन्दू मित्रता की नीति
दिल्ली के सुल्तानों की हिन्दू विरोधी नीति के ख़िलाफ़ उसने हिन्दुओं से मित्रता की नीति अपनायी। जिससे उसे अपनी शासन व्यवस्था सृदृढ़ करने में सहायता मिली। उसका दीवान और सेनापति एक हिन्दू सरदार था, जिसका नाम हेमू (हेमचंद्र) था। उसकी सेना में हिन्दू वीरों की संख्या बहुत थी। उसने अपने राज्य में शांति स्थापित कर जनता को सुखी और समृद्ध बनाने के प्रयास किये। उसने यात्रियों और व्यापारियों की सुरक्षा का प्रबंध किया। लगान और मालगुज़ारी वसूल करने की संतोषजनक व्यवस्था की। शेरशाह सूरी के फ़रमान फ़ारसी भाषा के साथ नागरी अक्षरों में भी होते थे। वह पहला बादशाह था, जिसने बंगाल के सोनागाँव से सिंधु नदी तक दो हज़ार मील लम्बी पक्की सड़क बनवाई थी। उस सड़क पर घुड़सवारों द्वारा डाक लाने−ले−जाने की व्यवस्था थी। यह मार्ग उस समय 'सड़क-ए-आज़म' कहलाता था। बंगाल से पेशावर तक की यह सड़क 500 कोस (शुद्ध= क्रोश) या 2500 किलो मीटर लम्बी थी। शेरशाह ने इस सड़क पर यात्रियों की सुविधा के लिए प्रत्येक कोस पर कोस मीनार बनवायीं, जहाँ पर ठहरने के लिए सराय और पानी का बंदोबस्त रहता था। शेरशाह का भतीजा अदली था, जो शेरशाह के पुत्र और उत्तराधिकारी इस्लामशाह के बाद 1554 ई. में गद्दी पर बैठा था। यहाँ एक बिन्दु स्मरणीय यह है कि शेरशाह ने अफ़ग़ानों के दबाब के कारण हिन्दुओं से जज़िया करको समाप्त नहीं किया था।
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कालिंजर अभियान एवं मृत्यु (1545 ई.)
यह अभियान शेरशाह का अन्तिम सैन्य अभियान था। कालिंजर का शासक कीरत सिंह था। उसने शेरशाह के आदेश के विपरीत ‘रीवा’ के महाराजा वीरभान सिंह बघेला को शरण दे रखी थी। इस कारण से नवम्बर, 1544 ई. में शेरशाह ने कालिंजर क़िले का घेरा डाल दिया। लगभग 6 महीने तक क़िले को घेरे रखने के बाद भी सफलता के आसार न देख कर शेरशाह ने क़िले पर गोला, बारुद के प्रयोग का आदेश दिया। ऐसा माना जाता है कि, क़िले की दीवार से टकराकर लौटे एक गोले के विस्फोट से शेरशाह की 22 मई, 1545 ई. को मृत्यु हो गई। मृत्यु के समय वह ‘उक्का’ नाम का एक अग्नेयास्त्र चला रहा था। उसके मरने से पूर्व क़िले को जीत चुका था। उसकी मृत्यु पर इतिहासकार क़ानूनगो ने कहा, "इस प्रकार एक महान राजनीतिज्ञ एवं सैनिक का अन्त अपने जीवन की विजयों एक लोकहितकारी कार्यों के मध्य में ही हो गया।”
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शेरशाह के निर्माण कार्य
शेरशाह सूरी ने अपने जीवन में अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पन्न किए और कई प्रकार के निर्माण कार्य भी करवाए। उसके निर्माण कार्यों में सड़कों, सरायों एवं मस्जिदों आदि का बनाया जाना प्रसिद्ध है। वह पहला मुस्लिम शासक था, जिसने यातायात की उत्तम व्यवस्था की और यात्रियों एवं व्यापारियों की सुरक्षा का संतोषजनक प्रबंध किया। उसने बंगाल के सोनागाँव से लेकर पंजाब में सिंधु नदी तक, आगरा से राजस्थान और मालवा तक पक्की सड़कें बनवाई थीं। सड़कों के किनारे छायादार एवं फल वाले वृक्ष लगाये गये थे, और जगह-जगह पर सराय, मस्जिद और कुओं का निर्माण कराया गया था। ब्रजमंडल के चौमुहाँ गाँव की सराय और छाता गाँव की सराय का भीतरी भाग उसी के द्वारा निर्मित हैं। दिल्ली में उसने 'शहर पनाह' बनवाया था, जो आज वहाँ का 'लाल दरवाज़ा' है। दिल्ली का 'पुराना क़िला' भी उसी के द्वारा बनवाया माना जाता है।
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साहित्य प्रेमी
शेरशाह सूरी ने कई दार्शनिकों के ग्रंथ पढ़े। उसने सिकंदरनामा, गुलिस्तां और बोस्तां आदि ग्रंथों को कंठस्थ कर लिया। सम्राट बन जाने के बाद भी उसकी दिलचस्पी इतिहास के ग्रंथों और प्राचीन शासकों के जीवनचरितों के प्रति बराबर बनी रही। पुस्तकों में लिखी बातों को वह जीवन में उतारने का सफलतापूर्वक प्रयास करता था।
श्री कालिकारंजन क़ानूनगो ने लिखा है :- ‘‘बचपन में उसने साहित्य का जो अध्ययन किया, उसने उस सैनिक जीवन के मार्ग से उसे पृथक कर दिया, जिस पर शिवाजी, हैदर अली और रणजीत सिंह जैसे निरक्षण वीर साधारण परिस्थिति से ऊँचे उठकर राजा की मर्यादा प्राप्त कर लेते हैं। भारत के इतिहास में हमें दूसरा कोई व्यक्ति नहीं मिलता, जो अपने प्रारंभिक जीवन में सैनिक रहे बिना ही एक राज्य की नींव डालने में समर्थ हुआ हो।
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दार्शनिकों के विचार
"मलिक मुहम्मद जायसी", "फ़रिश्ता" और "बदायूंनी" ने शेरशाह के शासन की बड़ी प्रशंसा की है। बदायूंनी ने लिखा है कि-
·         बंगाल से पंजाब तक तथा आगरा से मालवा तक सड़क पर दोनों ओर छाया के लिए फल वाले वृक्ष लगाये गये थे।
·         कोस−कोस पर एक सराय, एक मस्जिद और कुँए का निर्माण किया था।
·         मस्जिद में एक इमाम और अजान देने वाला एक मुल्ला था।
·         निर्धन यात्रियों का भोजन बनाने के लिए एक हिन्दू और मुसलमान नौकर था।
·         'प्रबंध की यह व्यवस्था थी कि, बिल्कुल अशक्त बुड्ढ़ा अशर्फियों का थाल हाथ पर लिये चला जाय और जहाँ चाहे वहाँ पड़ा रहे। चोर या लुटेरे की मजाल नहीं कि, आँख भर कर उसकी ओर देख सके।
उत्तराधिकारी
शेरशाह की मृत्यु के उपरान्त 1545 ई. में उसका पुत्र 'जलाल ख़ाँ' 'इस्लामशाह' की उपाधि धारण कर सुल्तान बना। आदिल ख़ाँ को परास्त कर एवं साम्राज्य में सरदारों के विद्रोहों का दमन कर उसने सुल्तान के सम्मान और शक्ति में वृद्धि की और अफ़ग़नों की स्वतंत्र प्रकृति को पूर्णतया दबा दिया। इस्लाम शाह के समय में प्रान्तीय सूबेदार सुल्तान का तो क्या सुल्तान के जूतों का भी सम्मान करते थे। उसने 1553 ई.तक शासन किया। शासन व्यवस्था में इस्लामशाह ने अपेक्षित सुधार किये। उत्तर पश्चिम की सीमा की सुरक्षा के लिए वहाँ पाँच क़िले खड़े किये। ये क़िले 'शेरगढ़', 'इस्लामगढ़', 'रसीदगढ़', 'फ़िरोजगढ़' और 'मानकोट' में थे। इनको सम्मिलित रूप से ‘मानकोट के क़िले’ कहा जाता है।
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दिल्ली पर हुमायूँ का अधिकार
इस्लामशाह के शासन संबंधी सुधारों में सबसे महत्त्वपूर्ण सुधार विभिन्न क़ानूनों का निर्माण और उनका सभी स्थानों पर लागू किया जाना था। इस्लामशाह के पश्चात् उसके उत्ताधिकारियों के समय सूर-साम्राज्य 5 भागों में बँट गया। सूर-साम्राज्य की आपसी कलह का लाभ उठाकर हुमायूँ ने भारत पर आक्रमण कर "मच्छीवारा" और "सरहिन्द" के युद्धों को जीतकर 1555 ई. में दिल्ली पर अधिकार कर लिया।
शेरशाह की प्रशासन-व्यवस्था
शेरशाह को व्यवस्था सुधारक के रूप में माना जाता है, व्यवस्था प्रवर्तक के रूप में नही। शेरशाह का शासन अत्यधिक केन्द्रीकृत था। सम्पूर्ण साम्राज्य को 47 सरकारों (ज़िलों) में बाँट दिया गया था। ड़ॉ. क़ानून गों के अनुसार- "उसके प्रान्तीय शासन में सरकार से ऊँचा विभाजन नहीं किया गया था, और प्रान्त एवं सूबों जैसी शासन की कोई ईकाई नहीं थी। परमात्मा सरन, क़ानून गों के विचारों से असहमति व्यक्त करते हैं। प्रत्येक सरकार में दो प्रमुख अधिकारी होते थे- 'शिक़दार-ए-शिक़दारों' (शिक़दार=किसी श्रेत्र-विशेष का अधिकारी), और 'मुस्सिफ-ए-मुस्सिफां'। प्रत्येक सरदार कई परगनों में बँटे थे। प्रत्येक परगने में एक शिक़दार, एक मुन्सिफ, एक 'फ़ोतदार' (ख़ज़ांची, तहसीलदार) और दो 'कारकुन' (कार्यकर्ता, काम करने वाला, कर्मचारी) होते थे।
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'शेरशाह सूरी एक ऐसा व्यक्ति था, जो ज़मीनी स्तर से उठ कर शंहशाह बना। ज़मीनी स्तर का यह शंहशाह अपने अल्प शासनकाल के दौरान ही जनता से जुड़े अधिकांश मुद्दो को हल करने का प्रयास किया। हालांकि शेरशाह सूरी का यह दुर्भाग्य रहा कि उसे भारतवर्ष पर काफ़ी कम समय शासन करने का अवसर मिला। इसके बावजूद उसने राजस्व, प्रशासन, कृषि, परिवहन, संचार व्यवस्था के लिए जो काम किया, जिसका अनुसरण आज का शासक वर्ग भी करता है। शेरशाह सूरी एक शानदार रणनीतिकार, आधुनिक भारतवर्ष के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला महान शासक के रुप में नजर आएगा। जिसने अपने संक्षिप्त शासनकाल में शानदार शासन व्यवस्था का उदाहरण प्रस्तुत किया। शेरशाह सूरी ने भारतवर्ष में ऐसे समय में सुढृढ नागरिक एवं सैन्य व्यवस्था स्थापित की जब गुप्त काल के बाद से ही एक मज़बूत राजनीतिक व्यवस्था एवं शासक का अभाव-सा हो गया था। शेरशाह सूरी ने ही सर्वप्रथम अपने शासन काल में आज के भारतीय मुद्रा रुपया को जारी किया। इसीलिए इतिहासकार शेरशाह सूरी को आधुनिक रुपया व्यवस्था का अग्रदूत भी मानते है। मौर्यों के पतन के बाद पटना पुनः प्रान्तीय राजधानी बनी, अतः आधुनिक पटना को शेरशाह द्वारा बसाया माना जाता है।
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वित्त व्यवस्था
शेरशाह की वित्त व्यवस्था के अन्तर्गत सरकारी आय का सबसे बड़ा स्रोत ज़मीन पर लगने वाला कर था, जिसे ‘लगान’ कहते थे। शेरशाह की लगान व्यवस्था 'रैयतवाड़ी व्यवस्था' पर आधारित थी, जिसमें किसानों से प्रत्यक्ष सम्पर्क स्थापित किया जाता था। स्थानीय आय, जिसे कई प्रकार के करों से एकत्र करते थे, उसे ‘अबवास’ कहा जाता था। शेरशाह के समय में भूमि तीन वर्गों अच्छी, साधारण एवं ख़राब में विभाजित थी। पैदावार का लगभग एक तिहाई भाग सरकारी लगान के रूप में लिया जाता था। केवल मुल्तान में उपज का 1/4 भाग लगान के रूप में लिया जाता था। लगान नगद रूप में वसूला जाता था, पर नगद में लेना अधिक पसंद किया जाता था। लगान निर्धारण हेतु तीन प्रणालियाँ प्रचलन में थीं-
1.  बटाई या गल्ला बक्शी
2.  नश्क या मुक्ताई या कनकूत और
3.  नगदी या जब्ती या जमी।
इन तीनों प्रणालियों में किसानों द्वारा नगदी व जमाई व्यवस्था को अधिक सराहा जाता था। तीन प्रकार की 'बटाई', 'खेत बटाई', 'लंक बटाई' एवं 'रास-बटाई' का भी प्रचलन था। किसानों को शेरशाह के शासन काल में 'जरीबाना' या 'सर्वेक्षण शुल्क' एवं ‘मुहासिलाना’ या 'कर संग्रह शुल्क' भी देना पड़ता था, जिनकी दरें क्रमशः भूराजस्व की 2.5 प्रतिशत एवं 5 प्रतिशत थी। इसके अलावा प्रत्येक किसान को पूरी लगान पर 2.5 प्रतिशत अतिरिक्त कर देना होता था। शेरशाह ने कृषि योग्य भूमि और परती भूमि दोनों की नाप करवाई। इस कार्य के लिए उसने अहमद ख़ाँ की सहायता ली। शेरशाह द्वारा प्रचलित 'रैयतवाड़ी व्यवस्था' मुल्तान को छोड़कर राज्य के लिए सभी भागों में लागू थी। मुल्तान में शेरशाह ने राजस्व निर्धारण और संग्रह के लिए पहले से चली आ रही बटाई (हिस्सेदारी) व्यवस्था को ही प्रचलन में रहने दिया तथा वहाँ से उत्पादन का 1/4 भाग लगान वसूल किया, जो अन्यत्र प्रचलित नहीं था।
·         शेरशाह ने भूमि की माप के लिए 32 अंक वाला ‘सिकन्दरीगज’ एवं ‘सन की डंडी’ का प्रयोग किया।
'शासन सुधार के क्षेत्र में भी शेरशाह ने एक जनहितकारी व्यवस्था की स्थापना की, जिससे काफ़ी कुछ अकबर ने भी सीखा था। शासन के सुविधाजनक प्रबन्ध के लिए उसने सारे साम्राज्य को 47 भागों में बाँटा था, जिसे 'प्रान्त' कहा जाता है। प्रत्येक प्रान्त सरकार, परगने तथा गाँव परगने में बँटे थे। काफ़ी कुछ यह व्यवस्था आज की प्रशासनिक व्यवस्था से मिलती है। शेरशाह के शासन काल की भूमि व्यवस्था अत्यन्त ही उत्कृष्ट थी। उसके शासनकाल में महान भू-विशेषज्ञ 'टोडरमल खत्री' था, जिसने आगे चलकर अकबर के साथ भी कार्य किया। शेरशाह ने भूमि सुधार के अनेक कार्य किए। उसने भूमि की नाप कराई, भूमि को बीघों में बाँटा, उपज का 3/1 भाग भूमिकर के लिए निर्धारित किया। उसने भूमिकर को अनाज एवं नकद दोनों रूप में लेने की प्रणाली विकसित कराई। पट्टे पर मालगुजारी लिखने की व्यवस्था की गई। किसानों को यह सुविधा दी गई कि वे अपना भूमिकर स्वयं राजकोष में जमा कर सकते थे। अकबर के शासनकाल की भूमि व्यवस्था काफ़ी कुछ इसी पर आधारित थी। बाद में अंग्रेजों ने भी इसे ही चालू रखा।
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मुद्रा-सुधार
शेरशाह का दूसरा महत्त्वपूर्ण सुधार मुद्रा में सुधार था। उसने सोने, चाँदी एवं तांबे के आकर्षक सिक्के चलवाये। कालान्तर में इन सिक्कों का अनुकरण मुग़ल सम्राटों ने किया। शेरशाह ने 167 ग्रेन सोने की अशरफी, 178 ग्रेन का चाँदी का रुपया एवं 380 ग्रेन तांबे का ‘दाम' चलवाया। उसके शासन काल में कुल 23 टकसालें थी। उसने अपने सिक्कों पर अपना नाम, पद एवं टकसाल का नाम अरबी भाषा एवं देवनागरी लिपि में खुदवाया। शेरशाह के रुपये के विषय में स्मिथ ने कहा कि, "यह रुपया वर्तमान ब्रिटिश मुद्रा प्रणाली का आधार है"।
परिवहन व्यवस्था
शेरशाह सूरी के शासनकाल की सबसे बड़ी विशेषता उसकी परिवहन व्यवस्था है। सड़कें किसी भी राष्ट्र के विकास व्यवस्था की धुरी मानी जाती हैं। शेरशाह सूरी ने इसके महत्व को जाना और अपने समय से आगे सोचकर इतिहास में अमर हो गए। शेरशाह सूरी ने बंगाल के सोनागाँव से सिंध नदी तक दो हज़ार मील लंबी पक्की सड़क बनवाई, जिससे यातायात की उत्तम व्यवस्था हो सके। साथ ही उसने यात्रियों एवं व्यापारियों की सुरक्षा के लिए भी संतोषजनक प्रबंध किया। ग्रांड ट्रंक रोड का निर्माण करवाना शेरशाह सूरी के विलक्षण सोच का परिणाम है। यह सड़क सदियों से देश विकास में अहम भूमिका निभा रही है। उसने सड़कों पर मील के पत्थर लगवाए। उसने डाक व्यवस्था को सही किया और घुड़सवारों द्वारा डाक को लाने−ले−जाने की व्यवस्था की। उसके आदेश फारसी के साथ नागरी अक्षरों में भी होते थे। उसने अनेक भवनों जिसमें 'रोहतासगढ़ का क़िला', अपना 'मक़बरा', दिल्ली का 'पुराना क़िला' का निर्माण कराया। शेरशाह ने सड़कों के किनारे छायादार एवं फल वाले वृक्ष लगवाये, और जगह-जगह पर सराय, मस्जिद और कुओं का निर्माण कराया। दिल्ली में उसने शहरपनाह बनवाया था, जो आज वहाँ का 'लाल दरवाज़ा है।
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स्थापत्य कला
वह क्षेत्र जिसमें शेरशाह का योगदान निस्संदेह ही अविस्मरणीय है, वह है- "स्थापत्य कला का क्षेत्र"। उसके द्वारा ‘सासाराम’ में झील के अन्दर ऊँचे टीले पर निर्मित करवाया गया स्वयं का मक़बरा पूर्वकालीन स्थापत्य शैली की पराकाष्ठा तथा नवीन शैली के प्रारम्भ का द्योतक माना जाता है। इसके अतिरिक्त शेरशाह ने हुमायूँ द्वारा निर्मित ‘दीनपनाह’ को तुड़वाकर उसके ध्वंशावशेषों से दिल्ली में ‘पुराने क़िले’ का निर्माण करवाया। क़िले के अन्दर शेरशाह ने ‘क़िला-ए-कुहना’ मस्जिद का निर्माण करवाया, जिसे उत्तर भारत के भवनों में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। शेरशाह ने रोहतासगढ़ के दुर्ग एवं कन्नौज के स्थान पर ‘शेरसूर’ नामक नगर बसाया। 1541 ई. में उसने पाटलिपुत्र को ‘पटना’ के नाम से पुनः स्थापित किया। शेरशाह ने दिल्ली में ‘लंगर’ की स्थापना की, जहाँ पर सम्भवतः 500 तोला सोना हर दिन व्यय किया जाता था।
मक़बरा
शेरशाह सूरी का शहर बनारस-कोलकाता रोड पर सासाराम था। यहीं पर उसने अपने जीते जी अपना मक़बरा बनवाना शुरू कर दिया था। मक़बरा पत्थरों से बना है। मक़बरे के सबसे ऊपरी सिरे से पूरे सासाराम का दृश्य साफ़ दिखाई देता है।
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