पूरा नाम
– अबुल मुजफ्फर
मुहीउद्दीन औरंगजेब आलमगीर. Aurangzeb
जन्मस्थान – दाहोद (गुजरात)
पिता – शाहजहां
माता – मूमताज महल
विवाह – बेगम नवाब बाई, औरंगाबादी महल, उदयपुरी महल, झैनाबदी महल
जन्मस्थान – दाहोद (गुजरात)
पिता – शाहजहां
माता – मूमताज महल
विवाह – बेगम नवाब बाई, औरंगाबादी महल, उदयपुरी महल, झैनाबदी महल
अबुल मुज़फ्फर मुहिउद्दीन मुहम्मद औरंगज़ेब आलमगीर (४ नवम्बर
१६१८ – ३ मार्च १७०७) जिसे आमतौर पर औरंगज़ेब या आलमगीर (स्वंय को दिया हुआ शाही नाम जिसका अर्थ होता
है विश्व विजेता) के नाम से जाना जाता था भारत पर राज्य करने वाला छठा मुग़ल शासक था। औरंगजेब का जन्म गुजरात के दाहोद
गाव में हुआ। शाह जहाँ और मूमताज महल के वो तीसरे बेटे थे। 26 फ़रवरी 1628 में जब शाहजहा
ने लिखित तौर पर ये बताया की औरंगजेब ही उनके तख़्त के काबिल है। इसके बाद औरंगजेब
को बाहर युद्ध विद्या सिखने भेजा गया, और युद्ध कला में निपुण होने के बाद वे फिर
से अपने परिवार के साथ रहने लगे औरंगज़ेब ने भारतीय उपमहाद्वीप पर आधी सदी से भी ज्यादा समय तक राज्य किया।
वो अकबर के बाद सबसे ज्यादा समय तक शासन करने वाला
मुग़ल शासक था। औरंगज़ेब के शासन में मुग़ल साम्राज्य अपने विस्तार के चरमोत्कर्ष पर पहुंचा। वो
अपने समय का शायद सबसे धनी और शातिशाली व्यक्ति था जिसने अपने जीवनकाल में दक्षिण भारत में प्राप्त विजयों के जरिये मुग़ल साम्राज्य को साढ़े बारह लाख वर्ग मील में फैलाया और १५
करोड़ लोगों पर शासन किया जो की दुनिया की आबादी का १/४ था। पर उसकी
मृत्यु के पश्चात मुग़ल साम्राज्य सिकुड़ने लगा।
व्यक्तित्व
औरंगजेब पवित्र जीवन व्यतीत करता था। अपने व्यक्तिगत जीवन में वह एक आदर्श
व्यक्ति था। वह उन सब दुर्गुणों से सर्वत्र मुक्त था, जो एशिया के राजाओं में सामन्यतः थे। वह यति-जीवन जीता
था। खाने-पीने, वेश-भूषा और जीवन की अन्य सभी-सुविधाओं में वह संयम बरतता था। प्रशासन के भारी
काम में व्यस्त रहते हुए भी वह अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए क़ुरान की नकल करके और टोपियाँ सीकर कुछ पैसा कमाने
का समय निकाल लेता था।
शुरूआती जीवन
औरंगजेब का शुरुवाती जीवन बहुत ही गंभीर रहा और वह एक भक्त रूप में बड़ा हुआ। वह बहुत दिन तक मुस्लिम कट्टरपंथियों
से जुड़ा रहा और मुग़ल साम्राज्य के शाहिपने, मादकता और वासना से दूर रहा। २६ फ़रवरी १६२८ को जब शाहजहाँ को मुग़ल सम्राट घोषित किया गया तब औरंगजेब आगरा किले में अपने माता पिता के साथ रहने के लिए
वापस लौटा। यहीं पर औरंगजेब ने अरबी और फारसी की औपचारिक शिक्षा प्राप्त की।
शाह जहाँ जब
बूढ़े होकर बीमार हो गये तो औरंगजेब – Aurangzeb
ने उन्हें कैद
में डाला। कुछ इतिहासकरों का ऐसा कहना है की,
शाह जहाँ ताजमहल पर पूरा मुग़ल ख़जाना खर्च कर रहें थे इसीलिए
उन्हें कैद में डाला गया। शाहजहां की मौत कैदखाने में हुई। इस तरह वे हिन्दुस्तान
के एकछत्र सम्राट बन गये।
औरंगजेब के पूर्वज अकबर, बाबर आदी शासकों ने भारत को जो समृध्दि प्रदान की थी, औरंगजेब
ने उसमें वृध्दि तो अवश्य की परन्तु अपने कट्टरपन तथा अपने पिता और भाइयों के
प्रति दुर्व्यवहार के कारण उन्हें देश की जनता का विरोध भी मोल लेना पड़ा।
उनका शासन 1658 से
लेकर उनकी मृत्यु 1707 तक चला। उन्होंने 48 साल तक अपना शासन स्थापीत रखा।
सत्तासन
मुग़ल प्रथाओं के अनुसार, शाहजहाँ ने 1634 में शहज़ादा औरंगज़ेब को दक्कन का सूबेदार नियुक्त किया। औरंगज़ेब किरकी (महाराष्ट्र) को गया जिसका नाम बदलकर उसने औरंगाबाद कर दिया। 1637 में उसने रबिया दुर्रानी से
शादी की। इधर शाहजहाँ मुग़ल दरबार का कामकाज अपने बेटे दारा शिकोह को सौंपने लगा। 1644 में औरंगज़ेब की बहन एक
दुर्घटना में जलकर मर गई। औरंगज़ेब इस घटना के तीन हफ्ते बाद आगरा आया जिससे उसके पिता शाहजहाँ को उसपर बेहद क्रोध आया। उसने औरंगज़ेब को
दक्कन के सूबेदार के ओहदे से बर्ख़ास्त कर दिया। औरंगज़ेब 7 महीनों तक दरबार नहीं
आ सका। बाद में शाहजहाँ ने उसे गुजरात का सूबेदार बनाया। औरंगज़ेब ने सुचारू रूप से
शासन किया और उसे इसका सिला भी मिला, उसे बदख़्शान (उत्तरी अफ़गानिस्तान) और बाल्ख़ (अफ़गान-उज़्बेक) क्षेत्र का सूबेदार बना
दिया गया।
इसके बाद उसे मुल्तान और सिंध का भी गवर्नर बनाया गया। इस दौरान वो फ़ारस के सफ़वियों से कंधार पर नियंत्रण के लिए लड़ता रहा पर उसे हार के अलावा और कुछ मिला तो वो था- अपने पिता की उपेक्षा। 1652 में उसे दक्कन का सूबेदार फ़िर से बनाया गया। उसने गोलकोंडा और बीजापुर के खिलाफ़ लड़ाइयाँ की और निर्णायक क्षण पर शाहजहाँ ने सेना वापस बुला ली। इससे औरंगज़ेब को बहुत ठेस पहुँची क्योंकि शाहजहाँ ऐसा उसके भाई दारा शिकोह के कहने पर कर रहा था।
सत्तासंघर्ष
सन् 1652 में शाहजहाँ बीमार पड़ा और ऐसा लगने लगा कि शाहजहाँ की मौत आ जाएगी। दारा शिकोह, शाह सुजा और औरंगज़ेब में सत्ता संघर्ष चलने लगा। शाह सुज़ा, जिसने अपने को बंगाल का गवर्नर घोषित करवाया था को हारकर बर्मा के अराकान क्षेत्र जाना पड़ा और 1659 में औरंगज़ेब ने
शाहजहाँ को कैद करने के बाद अपना राज्याभिषेख करवाया। दारा शिकोह को फाँसी दे दी गई।
ऐसा कहा जाता है कि शाहजहाँ को मारने के लिए औरंगज़ेब ने दो बार ज़हर भिजवाया। पर
जिन हकीमों से उसने ज़हर भिजवाया था वो शाहजहाँ के वफ़ादार थे और शाहजहाँ के विष
देने के बज़ाय वे खुद ज़हर पी गए।
शासक औरंगज़ेब
मुग़ल, खासकर अकबर के बाद से, गैर-मुस्लिमों पर उदार रहे थे लेकिन औरंगज़ेब
उनके ठीक उलट था। औरंगज़ेब ने जज़िया कर फिर से आरंभ करवाया, जिसे अकबर ने खत्म कर दिया था। उसने कश्मीरी ब्राह्मणों को इस्लाम कबूल करने पर मजबूर किया। कश्मीरी ब्राह्मणों
ने सिक्खों के नौवें गुरु तेगबहादुर से मदद मांगी। तेगबहादुर ने इसका विरोध किया
तो औरंगज़ेब ने उन्हें फांसी पर लटका दिया। इस दिन को सिक्ख आज भी अपने त्यौहारों
में याद करते हैं।
औरंगज़ेब ने
पूरे साम्राज्य पर फतवा-ए-आलमगीरी (शरियत या इस्लामी कानून पर आधारित) लागू किया
और कुछ समय के लिए गैर-मुस्लिमो पर अतिरिक्त कर भी लगाया। गैर-मुसलमान जनता पर
शरियत लागू करने वाला वो पहला मुसलमान शासक था
औरंगज़ेब की धार्मिक नीति
सम्राट औरंगज़ेब ने इस्लाम धर्म के महत्व को स्वीकारते हुए ‘क़ुरान’ को अपने शासन का आधार बनाया। उसने सिक्कों पर
कलमा खुदवाना, नौरोज का त्यौहार मनाना, भांग की खेती करना, गाना-बजाना
आदि पर रोक लगा दी। 1663 ई. में सती प्रथा पर प्रतिबन्ध लगाया। तीर्थ कर पुनः लगाया। अपने शासन काल के 11 वर्ष में
‘झरोखा दर्शन’, 12वें वर्ष में ‘तुलादान प्रथा’ पर प्रतिबन्ध लगा दिया, 1668 ई. में हिन्दू त्यौहारों पर प्रतिबन्ध लगा दिया। 1699 ई. में उसने हिन्दू
मंदिरों को तोड़ने का आदेश दिया। बड़े-बड़े नगरों में औरंगज़ेब द्वारा ‘मुहतसिब’ (सार्वजनिक
सदाचारा निरीक्षक) को नियुक्त किया गया। 1669 ई. में औरंगज़ेब ने बनारस के ‘विश्वनाथ मंदिर’ एवं मथुरा के ‘केशव राय मदिंर’ को तुड़वा
दिया। उसने शरीयत के विरुद्ध लिए जाने वाले लगभग 80 करों को समाप्त करवा दिया।
इन्हीं में ‘आबवाब’ नाम से जाना जाने वाला ‘रायदारी’ (परिवहन कर) और ‘पानडारी’ (चुंगी कर) नामक
स्थानीय कर भी शामिल थे। औरंगज़ेब ‘दारुल हर्ब’ (क़ाफिरों का देश भारत) को ‘दारुल इस्लाम’ (इस्लाम का
देश) में परिवर्तित करने को अपना महत्त्वपूर्ण लक्ष्य मानता था।
अत्याचारी व्यक्ति
औरंगज़ेब के समय में ब्रज में आने वाले तीर्थ−यात्रियों पर भारी कर
लगाया गया। मंदिर नष्ट किये लगे, जज़िया कर फिर से लगाया गया और हिन्दुओं को मुसलमान बनाया गया। उस समय के कवियों की रचनाओं में
औरंगज़ेब के अत्याचारों का उल्लेख है। तोड़े गये मंदिरों की जगह पर मस्जिद और सराय
बनाई गईं तथा मकतब और कसाईखाने कायम किये गये। हिन्दुओं के दिल को दुखाने के लिए
गो−वध करने की खुली छूट दे दी गई।
धर्माचार्यों का निष्क्रमण
जब ब्रज में इतना अत्याचार होने लगा, तब यहाँ के
धर्मप्राण भक्तजन अपनी देव−मूर्तियाँ और धार्मिक पोथियों को लेकर भागने का विचार
करने लगे। किंतु कहाँ जायें, यह उनके लिए बड़ी समस्या थी। वे तीर्थ
स्थानों में रह कर अपना धर्म−कर्म करना चाहते थे; किंतु यहाँ रहना उनके लिए असंभव हो गया था।
मथुरा की दुर्दशा
उस समय कुछ प्रभावशाली हिन्दू राज्यों की स्थिति औरंगज़ेब के मज़हबी तानाशाही
से मुक्त थी, अत: ब्रज के अनेक धर्माचार्य एवं भक्तजन अपने परिवार के साथ वहाँ जा कर बसने
लगे। उस अभूतपूर्व धार्मिक निष्क्रमण के फलस्वरूप ब्रज में गोवर्धन और गोकुल जैसे
समृद्धिशाली धर्मस्थान उजड़ गये और वृन्दावन शोभाहीन हो गया था। औरंगज़ेब के शासन
में ब्रज की जैसी बर्बादी हुई, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता है। औरंगज़ेब
के अत्याचारों से मथुरा की जनता अपने पैतृक आवासों को छोड़ कर निकटवर्ती हिन्दू
राजाओं के राज्यों में जाकर बसने लगी थी। जो रह गये थे, वे बड़ी कठिन
परिस्थिति में अपने जीवन बिता रहे थे। उस समय में मथुरा का कोई महत्त्व नहीं था।
उसकी धार्मिकता के साथ ही साथ उसकी भौतिक समृद्धि भी समाप्त हो गई थी। प्रशासन की
दृष्टि से उस समय में मथुरा से अधिक महावन, सहार और सादाबाद का महत्त्व था, वहाँ
मुसलमानों की संख्या भी अपेक्षाकृत अधिक थी।
साम्राज्य विस्तार
औरंगज़ेब के शासन काल में युद्ध-विद्रोह-दमन-चढ़ाई इत्यादि का तांता लगा रहा। पश्चिम
में सिक्खों की संख्या और शक्ति में बढ़ोत्तरी हो रही थी।
दक्षिण में बीजापुर और गोलकुंडा को अंततः उसने हरा दिया पर इस बीच शिवाजी की मराठा सेना ने उनको नाक में दम कर दिया। शिवाजी को
औरंगज़ेब ने गिरफ़्तार कर तो लिया पर शिवाजी और सम्भाजी के भाग निकलने पर उसके लिए बेहद फ़िक्र का
सबब बन गया। आखिर शिवाजी महाराजा ने औरंगजेब को हराया और भारत में मराठो ने पुरे
देश में अपनी ताकत बढाई शिवाजी की मृत्यु के बाद भी मराठों ने औरंग़जेब को परेशान
किया। इस बीच हिन्दुओं को इस्लाम में परिवर्तित करने की नीति के कारण राजपूत उसके ख़िलाफ़ हो गए थे और उसके 1707 में मरने
के तुरंत बाद उन्होंने विद्रोह कर दिया।
औरंगजेब का राज्य बहोत ही विस्तृत था इस वजह से उस समय मुघल
साम्राज्य सबसे विशाल और शक्तिशाली साम्राज्य माना जाता था। औरंगजेब के पुरे जीवन
में उसने अपना राज्य दक्षिण में 3.5 लाख किलोमीटर तक विस्तृत किया और जिसमे 150-200 लाख
लोग उसके राज्य में रहने लगे थे।
बुंदेला का युद्ध
15 दिसम्बर 1634, औरंगजेब नें अपनी पहली सेना तैयार की जिसमे
कुल 10000 घोड़े और 4000 लोग थे। औरंगजेब कि सेना लाल तम्बुओं का
इस्तेमाल करती थी। शाहजहाँ द्वारा बुंदेलखंड भेजी गयी सेना का
दायित्व औरंगजेब के हाँथ में रखा गया था। यह युद्ध ओरछा के शासक झुझार सिंह के
खिलाफ लड़ा गया और इसमें जुझार सिंह को वहाँ से हटा दिया गया।
औरंगजेब का
शासन कल दो बराबर भागों में गिर पड़ा लगभग 1680 तक। वह एक मिश्रित हिन्दू-मुस्लिम साम्राज्य
का सक्षम मुस्लिम सम्राट था। लोग खासकर उसके बेरहमी स्वभाव कि वजह से उसे पसंद
नहीं करते थे परन्तु उसकी ताकत और कौशल के लिए उसे सम्मानित भी किया जा चूका था।
इस अवधि के दौरान
उसने दो बार 1664 और 1670 में महँ बंदरगाह लूटा। फारसियों कि जगह, मध्य एशिया, तुर्क पर भी कब्ज़ा कर लिया था। फारसियों कि
जगह, मध्य एशिया, तुर्क पर भी कब्ज़ा कर लिया था। औरंगजेब नें अपने परदादा अकबर के नुस्कों को
अपनाया, हर किसी कि दुश्मन है, उन्हें सामजस्य में रखो और उन्हें शाही सेवा में रखो। इस प्रकार शिवाजी को
हराया गया और सुलह के लिए 1666, आगरा में, सेना में एक स्थान दिया गया।
1680 में शिवाजी कि मृत्यु के पश्चात, औरंगजेब को अपने शासन के दृष्टिकोण और नीति
में एक परिवर्तन करना पड़ा।
औरंगज़ेब की दक्षिण नीति
औरंगज़ेब की दक्षिण नीति के
विषय में इतिहासकारों
का मानना है कि-
1. अपनी साम्राज्यवादी प्रवृति के कारण दक्षिण
के राज्यों को औरंगज़ेब जीतना चाहता था। शाहजहाँ की भाँति दक्कन के प्रति औरंगज़ेब
की नीति भी अंशतः राजनीतिक हित से और अंशतः धार्मिक विचारों से प्रभावित थी।
2. दक्षिण में मराठा शक्ति का शिवाजी के नेतृत्व में वहाँ के शिया सम्प्रदाय के
सुल्तानों के सहयोग से दिन-प्रतिदिन उत्थान हो रहा था, इस कारण भी औरंगज़ेब ने दक्षिण राज्यों को
कुचलना चाहा। इस मत का समर्थन आधुनिक इतिहासकार करते हैं।
औरंगज़ेब के दक्षिण में
सैनिक अभियान के पीछे उपरोक्त कारण ही विद्यमान थे।
बीजापुर 1657-1687 ई.
सिंहासन पर बैठने के
उपरान्त औरंगज़ेब ने बीजापुर के शासक आदिलशाह द्वितीय को 1657 ई.
की संधि का पालन न करने के कारण दण्ड देने के लिए जयपुर के राजा जयसिंह को 1665 ई. में दक्षिण भेजा। जयसिंह ने बीजापुर के पूर्व शिवाजी के
ख़िलाफ़ महत्त्वपूर्ण लड़ाई में सफलता प्राप्त कर 1665 ई. में ‘पुरन्दर की सन्धि’ की। पुरन्दर के बाद जयसिंह ने
शिवाजी के सहयोग से बीजापुर पर नवम्बर, 1665 ई. में आक्रमण किया। प्रारम्भिक सफलता से उत्साहित होकर
जयसिंह ने कई ग़लत निर्णय लिये, जिस कारण वह बीजापुर पर अधिकार करने में असफल रहा।
औरंगज़ेब ने नाराज़ होकर जयसिंह को 1666 ई. में वापस आने का आदेश दिया। रास्ते में ‘बुरहानपुर’ की समीप 11 जुलाई, 1666 ई. को जयसिंह की मृत्यु हो गई।
दिसम्बर, 1672 ई.
में आदिलशाह की मृत्यु के बाद उसका अल्पव्यस्क पुत्र सिकन्दर आदिलशाह बीजापुर का
सम्राट बना। उसके समय में बीजापुर में दो गुट-एक खवास ख़ाँ के नेतृत्व में एवं दूसरा
बहलोल ख़ाँ के नेतृत्व में सक्रिय था। दोनों गुटों के आन्तरिक मतभेदों का फ़ायदा
उठाकर मुग़ल सूबेदार बहादुर ख़ाँ ने 1676 ई. में बीजापुर पर आक्रमण किया, परन्तु
अभियान असफल रहा। 1679 ई. में दिलेर ख़ाँ को दक्कन का सूबेदार बना कर बीजापुर
को जीतने का अधिकार सौंपा गया, उसके सहयोग हेतु शाहआलम भी दक्षिण आया, परन्तु
इन दोनों को भी असफलता का सामना करना पड़ा। अप्रैल, 1685 ई. में शाहज़ादा आजम के नेतृत्व में
मुग़ल सेनाओं ने बीजापुर पर आक्रमण किया। कई महीनों तक दुर्ग को घेरे रखने पर भी
कोई सफलता नहीं मिलने पर 13 जुलाई, 1685 ई. को स्वयं सम्राट औरंगज़ेब ने आक्रमण की कमान अपने हाथों
में ले ली। परिणामस्वरूप 22 सितम्बर, 1685 ईं को बीजापुर के शासक सिकन्दर आदिलशाह ने आत्मसमर्पण कर
दिया। औरंगज़ेब ने सिकन्दर शाह का स्वागत किया और उसे ख़ान का पद दिया तथा एक लाख
रुपये वार्षिक पेंशन भी दी और उसे दौलताबाद के दुर्ग में क़ैद करवा दिया, जहाँ
23 अप्रैल, 1700 ई.
को इसकी मृत्यु हो गई। अन्ततः बीजापुर मुग़ल अधिकार में आ गया।
गोलकुण्डा
1656 ई.
में गोलकुण्डा के सुल्तान एवं मुग़ल सम्राट के बीच हुई सन्धि की अवहेलना
करने, मुग़लों
के साथ संघर्ष में बीजापुर एवं मराठों को सहयोग करने तथा हीरे-जवाहरात, सोने-चाँदी के खानों की भरमार के कारण ही औरंगज़ेब ने गोलकुण्डा पर
अधिकार करने का निर्णय किया। गोलकुण्डा पर औरंगज़ेब के सैनिक अभियान के समय वहाँ
का अयोग्य एवं विलासप्रिय शासक अबुल हसन था। शासन की पूरी ज़िम्मेदारी ‘मदन्ना’ और ‘अकन्ना’ नामक ब्राह्मणों के हाथों में थी। औरंगज़ेब ने जुलाई, 1685 ई.
में ‘मुअज्जम’ को
ख़ानेजहाँ के साथ गोलकुण्डा पर अधिकार के लिए भेजा। सुल्तान अबुल हसन ने डर कर
मुग़लों की सभी शर्तों को मान कर संधि कर ली, परन्तु कालान्तर में सुल्तान ने संधि की अवहेलना करना
प्रारम्भ कर दिया, जिस कारण से स्वयं सम्राट औरंगज़ेब ने 7 फ़रवरी, 1687 ई.
को आक्रमण की बागडोर संभालते हुए लगभग आठ महीने के अथक प्रयास के बाद भी सफलता
नहीं मिली तो, औरंगज़ेब
ने अब्दुलागानी नामक एक अफ़ग़ान सरदार को लालच देकर फाटक खुलवा लिया और 1697 ई.
को दुर्ग पर अधिकार किया। सुल्तान को 50,000 रुपये की वार्षिक पेंशन देकर ‘दौलताबाद’ के
क़िले में क़ैद कर दिया गया। साथ ही गोलकुण्डा का पूर्ण विलय मुग़ल साम्राज्य में
हो गया। इस प्रकार कहा जाता है कि, 'जिस प्रकार अकबर ने असीरगढ़ का क़िला सोने की कुंजियों से खोला, उसी
प्रकार औरंगज़ेब ने गोलकुण्डा का क़िला सोने की कुंजियों से खोला।
मराठों से संघर्ष
1. मुग़लों से शिवाजी का पहला संघर्ष 1656 ई. में हुआ, जब शिवाजी ने अहमदनगर एवं जुन्नार के क़िले पर आक्रमण किया।
2. 1659 ई. मे शिवाजी ने
बीजापुरी सरदार अफजल ख़ाँ को हराया।1663 ई.
में मुग़ल
सूबेदार शाइस्ता ख़ाँ को पराजित किया।
शिवाजी की दक्षिण में बढ़ती
शक्ति को
कुचलने के लिए औरंगज़ेब ने जयसिंह को दक्षिण भेजा। जयसिंह एवं शिवाजी के मध्य 22 जून, 1665 ई.
को प्रसिद्ध 'पुरन्दर
की संधि' हुई।
संधि की शर्तों के अनुसार शिवाजी ने 4 लाख हूण वाले 23 क़िलें मुग़लों को सौंप दिए तथा अपने पुत्र शम्भुजी को मुग़ल सेवा में भेजकर जयसिंह के कहने पर स्वयं 22 मार्च, 1666 ई. को आगरा के क़िलें में ‘दीवाने आम’ में औरंगज़ेब के समक्ष प्रस्तुत हुए। यहाँ से शिवाजी को
क़ैद कर ‘जयपुर
भवन’ में
रख दिया गया, जहाँ
से शिवाजी फरार हो गये। इसके बाद शिवाजी तीन वर्षों तक मुग़लों के साथ शान्ति
पूर्वक रहे। औरंगज़ेब ने उन्हें राजा की उपाधि तथा बरार में एक जागीर दी तथा उनके पुत्र शम्भुजी को 'पंचहज़ारी
सरदार' के
पद पर नियुक्ति किया। शिवाजी ने ‘रायगढ़’ में 16 जून, 1674 ई. को अपना राज्याभिषेक करवाकर ‘छत्रपति’ की
उपाधि धारण की। 14 अप्रैल, 1680 ई. को उनकी मृत्यु के बाद उनका पुत्र शम्भुजी मराठा शासक बना। औरंगज़ेब ने एक संघर्ष में 1 मार्च, 1689 ई.
को उसकी हत्या कर रायगढ़ पर अधिकार कर लिया। औरंगज़ेब को
मराठों के संघर्ष में काफ़ी धन-जन की हानि सहनी पड़ी। नेपोलियन प्रथम कहा करता था-
"स्पेन के फोड़े ने मेरा नाश किया, वैसे ही दक्षिण के फोड़े ने औरंगज़ेब का नाश किया।
औरंगज़ेब के पतन के साथ-साथ इसने मुग़ल साम्राज्य के पतन का मार्ग भी प्रशस्त कर
दिया"।
औरंगज़ेब के विरुद्ध हुए महत्त्वपूर्ण विद्रोह
औरंगज़ेब की नीतियों के
विरुद्ध हुए
विद्रोहों के पीछे महत्त्वपूर्ण कारण उसका राजत्व सिद्धान्त तथा उसकी धार्मिक
असहिष्णुता थी। किसानों के विद्रोह के पीछे भूमि से जुड़े हुए विवाद, सिक्खों के विद्रोह के पीछे धार्मिक कारण, राजपूतों के विद्रोह के पीछे उत्तराधिकार की समस्या एवं अफ़ग़ानों
के विद्रोह के पीछे एक अलग अफ़ग़ान राज्य के गठन की भावना कार्य कर रही थी।
जाट विद्रोह
धार्मिक असहिष्णुता एवं किसान विरोधी नीतियों के कारण ही औरंगज़ेब
के समय का पहला विद्रोह मथुरा में जाट नेता ‘गोकुला’ के नेतृत्व में 1669 ई. में प्रारम्भ हुआ। मुग़ल सेनापति अब्दुल नवी विद्रोह को कुचलने के प्रयास में मारा गया।
मुग़ल फ़ौजदार हसन अली ख़ाँ के नेतृत्व में मुग़ल सेना ने गोकुल को पकड़ कर उसके
शरीर को कई भागों में बाँट डाला। 1686 ई. में जाट नेता ‘राजाराम’ एवं ‘रामचेरा’ ने जाट विद्रोह का नेतृत्व किया।
राजाराम ने मुग़ल सेनानायक मुगीर ख़ाँ की हत्या कर सिकन्दरा में स्थित अकबर के मक़बरे में भी लूट-पाट की। इतिहासकार मनूची लिखता है कि, "उसने अकबर की हड्डियों को खोद कर
जला भी दिया"। औरंगज़ेब के पुत्र बीदर बख्श एवं आमेर नरेश विशन सिंह को एक
विशाल मुग़ल सेना के साथ भेजा गया। इन दोनों को जाटों के ख़िलाफ़ 1689 ई. में सफलता मिली और राजाराम
संघर्ष में मारा गया। राजाराम के बाद उसके भतीजे चूरामन ने जाट विद्रोह का नेतृत्व
संभाला। चूरामन ने स्वतंत्र भरतपुर राज्य की नींव डाली। यह औरंगज़ेब के अन्तिम समय तक जाट विद्रोह का
नेतृत्व करता रहा। औरंगज़ेब की नीति के विरुद्ध दूसरे सशस्त्र विरोध का नेतृत्व बुन्देला राजा छत्रसाल ने किया। शिवाजी के दृष्टांत से प्रोत्साहित होकर छत्रसाल ने ‘साहस और स्वतंत्रता का जीवन व्यतीत
करने का स्वप्न देखा।’ उसने मुग़लों पर
कई विजय प्राप्त कीं तथा पूर्वी मालवा में अपने लिए एक स्वतंत्र राज्य स्थापित करने में सफल रहा।
सिक्ख विद्रोह
16वीं
शताब्दी में ‘सिक्ख
सम्प्रदाय’ की
स्थापना ‘गुरु नानक’ जी ने की। सिक्खों के चौथे गुरु रामदास के समय गुरुत्व का
पद पैतृक हो गया। अमृतसर के प्रसिद्ध स्वर्ण मन्दिर का निर्माण उन्हीं के समय में हुआ, जिसके
लिए सम्राट अकबर ने भूमि उपलब्ध करवाई। 5वें गुरु अर्जुन देव के समय में
प्रसिद्ध सिक्ख ग्रंथ ‘गुरुग्रंथ साहिब’ का संकलन किया गया। गुरु अर्जुन ने सिक्ख सम्प्रदाय को
दृढ़ता प्रदान करने का प्रयास किया। विद्रोही शाहज़ादे खुसरो को गुरु ने अपना
आशीर्वाद दिया था, जिसकी वजह से 1606 ई. में जहाँगीर ने गुरु को फाँसी दे दी। गुरु अर्जुन के पुत्र गुरु हरगोविंद सिंह ने शाहजहाँ के विरुद्ध विद्रोह कर उसकी सेना को 1628 ई.
में परास्त किया। आठवें गुरु हरकिशन के पुत्र गुरु तेग बहादुर सिंह ने औरंगज़ेब की नीतियों का विरोध
किया तथा इस्लाम धर्म स्वीकार करने का विरोध किया, जिसकी
वजह से उन्हें दिल्ली में क़ैद कर दिसम्बर, 1765 ई. में मार दिया गया। तेग बहादुर ने अपने धर्म को जीवन से
अधिक पसन्द किया। उनके बारे में प्रसिद्ध उक्ति है कि, “उन्होंने
अपना सिर दिया सार न दिया।” सिक्ख गुरुओं में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण गुरु गोविन्द सिंह थे। गुरु गोविन्द सिंह एवं कुछ
पहाड़ी राजाओं के दमन के लिए औरंगज़ेब ने पहले अलप और फिर शाहज़ादे मुअज्जम को 1685 ई.
में भेजा। मुअज्जम पहाड़ी राजाओं को दबाने में सफल हुआ, परन्तु
गुरु गोविन्द के साथ अपने संघर्ष में असफल होकर उसने शान्ति समझौता कर किया। गुरु
गोविन्द ने ‘पाहुल
प्रणाली’ को
आरम्भ किया। इस प्रणाली में दीक्षित होने वाले व्यक्ति को ‘खालसा’ कहा
गया। ‘खालसा
पंथ’ की
स्थापना गुरु गोविन्द सिंह ने 1699 ई. में की। उनके धर्म में दीक्षित होने वाले व्यक्ति को 'पंच
ककार'- केश, कंघा, कृपाण, कच्छ
और कड़ा ग्रहण करना पड़ता था। उनके द्वारा नाम के अंत में ‘सिंह’ शब्द
का प्रयोग प्रारम्भ हुआ। गुरु गोविन्द ने ‘दसवें बादशाह का ग्रंथ’ नामक एक पूरक ग्रंथ का संलकन किया।
एक धर्मोन्मत्त अफ़ग़ान ने 1707 ई. के अन्त में गोदावरी नदी के निकट नांदेर नामक स्थान पर गुरु
गोविन्द सिंह को छुरा मार दिया, जिससे उनकी मृत्यु हो गई।
1701 ई.
में आरंगज़ेब ने कुछ पहाड़ी राजाओं के सहयोग से गुरु गोविन्द सिंह के दुर्ग
आनन्दपुर पर आक्रमण कर दिया। आक्रमण के समय मुग़ल सेना का नेतृत्व सरहिन्द का सूबेदार वज़ीर ख़ाँ ने किया। कई महीने के घेराव के बाद
सिक्ख गुरु को आनन्दपुर से भागकर ‘चमकौर’ में शरण लेनी पड़ी। मुग़ल सेना के चमकौर पहुँचने पर गुरु
अपना रूप बदल कर 1704 ई. में भाग कर ‘खिदराना’ (फिरोजपुर) पहुँचे। इस अन्तिम युद्ध में गुरु गोविन्द सिंह
ने मुग़ल सेना को परास्त कर दिया। 1707 ई. में औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद मुग़ल शक्ति क्रमशः
क्षीण होती गयी। सिक्ख सरदारों ने इस अवसर का फ़ायदा उठा कर छोटे-छोटे स्वतन्त्र
राज्य स्थापित कर लिए।
सतनामी विद्रोह
1672 ई.
में सतनामियों का विद्रोह हुआ। ये मूल रूप से हिन्दू भक्तों के अनुपद्रवी सम्प्रदाय थे। इनका केन्द्र नारनोल (पटियाला) एवं मेवाल (अलवर) क्षेत्र में था। ये लोग व्यापार एवं खेती करते
थे। धर्म के मामले में उन्होंने सतनाम की उपाधि से अपने को सम्मानित
किया है। सतनामियों के विद्रोह का तात्कालिक कारण था- एक मुग़ल पैदल सैनिक द्वारा
उनके एक सदस्य की हत्या करना। अप्रशिक्षित सतनामी किसान शीघ्र ही विशाल शाही फ़ौज
द्वारा परास्त हो गये।
राजपूत विद्रोह
औरंगज़ेब ने राजपूतों के प्रति धर्म के क्षेत्र में अनुदारयता की नीति अपनायी। क़ुरान का कट्टर समर्थक होने के नाते वह अन्य धर्मों मुख्यतः हिन्दू धर्म के प्रति बहुत असहिष्णु था। उसने 12 अप्रैल, 1679 ई.
को हिन्दुओं पर दोबारा ‘जज़िया’ कर लगा दिया। सर्वप्रथम जज़िया कर मारवाड़ पर लागू किया गया। धार्मिक क्रिया-कलापों, त्यौहारों
एवं उत्सवों को प्रतिबन्धित करते हुए औरंगज़ेब ने हिन्दुओं से ‘तीर्थयात्रा
कर’ पुनः
वसूलना शुरू कर दिया। बड़ी संख्या में हिन्दू मंदिरों को तोड़वाने का आदेश देकर
नवीन एवं पुराने मंदिरों के निर्माण पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया गया। औरंगज़ेब की
इन नीतियों का राजपूतों के ऊपर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था।
आधुनिक इतिहासकारों का मानना
है कि, औरंगज़ेब
मुग़ल वंश के अन्य शासकों की तरह राजपूतों के प्रति मैत्री भाव रखता था। औरंगज़ेब
ने यशवंतसिंह को दारा का सहयोग करने के बाद भी पुराना मनसब प्रदान कर गुजरात का सूबेदार बनाया। औरंगज़ेब के समय में हिन्दू मनसबदारों की संख्या लगभग 33 प्रतिशत थी, जबकि शाहजहाँ के समय में यह प्रतिशत मात्र 24.7 प्रतिशत
था। फिर भी यह कहा जा सकता है कि, राजपूतों के प्रति औरंगज़ेब की नीति सदैव सहिष्णुता की
नहीं थी। राजपूतों कें प्रति उसकी कठोर नीति का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारण था, राजपूत
सरदारों द्वारा उत्तराधिकार की लड़ाई लड़ा जाना। मिर्ज़ा राजा जयसिंह अपनी मृत्यु तक (1666 ई.) औरंगज़ेब का मित्र बना रहा, किन्तु
जयसिंह का पुत्र रामसिंह मराठों का कट्टर समर्थक था।
मेवाड़ तथा मारवाड़ के प्रति नीति
मारवाड़ पर औरंगज़ेब की
निगाहें काफ़ी
दिन से गड़ी थीं। 20 दिसम्बर, 1678 ई. को ‘जामरुद्र’ में महाराजा यशवंतसिंह की मृत्यु के बाद औरंगज़ेब ने उत्तराधिकारी के अभाव में
मुग़ल साम्राज्य का बहुत बड़ा कर्ज़ होने का आरोप लगाकर उसे ‘खालसा’ के
अन्तर्गत कर लिया। औरंगज़ेब ने यशवंतसिंह के भतीजे के बेटे इन्द्रसिंह राठौर को
उत्तराधिकार शुल्क के रूप में 36 लाख रुपये देने पर जोधपुर का राणा मान लिया। कालान्तर में महाराजा यशवंतसिंह की
विधवा से एक पुत्र पैदा हुआ, जिसका नाम अजीत सिंह रखा गया। औरंगज़ेब ने यशवंतसिंह के पुत्र और उत्तराधिकारी
पृथ्वी सिंह को ज़हर की पोशाक पहनाकर चालाकी से मरवा दिया। औरंगज़ेब ने अजीत सिंह
और यशवंतसिंह की रानियों को नूरगढ़ के क़िले में क़ैद करा दिया। औरंगज़ेब की शर्त
थी कि, यदि
अजीत सिंह इस्लाम धर्म ग्रहण कर ले तो, उसे
मारवाड़ सौंप दिया जायगा। राठौर नेता दुर्गादास किसी तरह से अजीत सिंह एवं यशवंतसिंह की विधवाओं को साथ
लेकर जोधपुर से भागने में सफल रहा। राठौर दुर्गादास की अपने देश के प्रति
निःस्वार्थ भक्ति के लिए कहा जाता है कि, ‘उस स्थिर ह्रदय को मुग़लों का सोना सत्यपथ से डिगा न सका, मुग़लों
के शस्त्र डरा नहीं सके।’
मारवाड़ के बाद मुग़ल सेना
ने हसनअली ख़ाँ के नेतृत्व मे मेवाड़ के नरेश जयसिंह (राणा) पर आक्रमण किया। इस संघर्ष में दुर्गादास तथा राठौर
के सैनिक भी राणा के साथ थे, फिर भी 1 फ़रवरी, 1681 ई. को राणा पराजित हो गया। मेवाड़ मुग़लों के अधिकार में आ
गया। शाहज़ादा अकबर को वहाँ का शासन सौंपा गया। परन्तु कुछ समय बाद राणा राजसिंह
शाहज़ादा अकबर को पराजित करने में सफल रहा। अकबर की पराजय के बाद औरंगज़ेब ने आजम
को चित्तौड़ भेजा। कालान्तर में उसके (औरंगज़ेब) तीन पुत्रों अकबर, आजम
एवं मुअज्जम ने तीन ओर से मेवाड़ पर आक्रमण किया, परन्तु वे आशिंक सफलता ही प्राप्त
कर सके।
शाहज़ादे का विद्रोह
इस बीच औरंगज़ेब के पुत्र
अकबर ने दुर्गादास
के बहकावे में आकर अपने पिता के ख़िलाफ़ विद्रोह की घोषणा करते हुए स्वयं को 11 जनवरी, 1681 ई.
को भारत का सम्राट घोषित कर दिया। उस समय अजमेर में पड़ाव डाले औरंगज़ेब के पास इतने भी सैनिक नहीं थे कि, वह
विद्रोही शाहज़ादे को दण्ड दे सके। परन्तु सौभाग्य से सहयोग प्राप्त नहीं हो सका, जिसकी
अपेक्षा से उसने विद्रोह किया था। औरंगज़ेब कूटनीति के सहयोग के सहारे दुर्गादास
को अकबर से अलग करने में सफल हुआ। राजपूतों के सहयोग के अभाव में अन्ततः अकबर के समर्थक मुग़ल सम्राट
की सेना में मिल गये। यह सब 12 जनवरी, 1681 ई. को अजमेर के ‘दोराहा’ नामक स्थान पर हुआ, जहाँ पर दोनों ओर की सेनायें आमने-सामने थीं। अकबर
राजपूतों की सहायता से निराश होकर अन्ततः शिवाजी के पुत्र शम्भुजी के पास चला गया, जहाँ पर 1704 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।
मेवाड़ से संधि (1681 ई.)
राणा राजसिंह की मृत्यु के
बाद राणा
जयसिंह मेवाड़ का शासक हुआ। 24 जून, 1681 ई. को राणा जयसिंह एवं औरंगज़ेब के मध्य एक संधि हुई। संधि
की शर्तों के अनुसार, औरंगज़ेब ने पूरा मेवाड़ जयसिंह को वापस कर दिया। जयसिंह
ने राजपूतों पर ‘जज़िया कर’ हटाने के बदले में औरंगज़ेब को ‘मादलपुर’ एवं ‘बेदनूर’ का
क्षेत्र दे दिया। जयसिंह को मुग़ल दरबार में 5000 का मनसबदार बनाया गया। सारे मुग़ल सैनिक मेवाड़ से वापस आ गये।
कालान्तर में औरंगज़ेब ने दक्षिण अभियान में जयसिंह के सहयोग देने के काराण उसे ‘बेदनूर’ और ‘मादलपुर’ के
क्षेत्र वापस कर दिए।
मारवाड़ की स्वाधीनता
मारवाड़ के अजीत सिंह एवं
दुर्गादास तथा
औरंगज़ेब के मध्य लगभग ‘तीस वर्ष’ तक संघर्ष हुआ, फिर भी मुग़ल इन राजपूत वीरों को किसी सन्धि में बाँध सकने
में अक्षम रहे। अन्ततः 1707 ई. में औरंगज़ेब के बाद 1709 ई. में बहादुरशाह प्रथम ने अजीत
सिंह को मारवाड़ के स्वतन्त्र शासक के रूप में स्वीकार किया।
पश्चिमी सीमा क्षेत्र का विद्रोह
इस क्षेत्र में हुए अनेक
विद्रोहों का सामना औरंगज़ेब को करना पड़ा। उस प्रदेश के खेतों की अल्प उपज के
कारण वहाँ की साहसी अफ़ग़ान जातियाँ आम सड़कों पर डकैती तथा उत्तर पश्चिम पंजाब के समृद्ध नगरों के लोगों को डराकर उनसे धन ऐंठती थी। 1667 ई.
में यूसुफ़जाइयों ने भागू नामक अपने नेता के अधीन सशस्त्र विद्रोह कर दिया। उनकी
एक विशाल संख्या ने अटक से ऊपर सिंधु को पार कर हज़ारा ज़िले पर आक्रमण किया।
औरंगज़ेब द्वारा भेजे गये कामिल ख़ाँ, शमशेर ख़ाँ एवं अमीन ख़ाँ ने इस विद्रोह को शान्त किया।
1627 ई.
में अजमल ख़ाँ के नेतृत्व में हुए विद्रोह को शान्त करने के लिए औरंगज़ेब स्वयं पेशावर के निकट हसन अब्दाल गया तथा कूटनीति एवं शस्त्रों के चतुर
संयोग से बड़ी सफलता प्राप्त की। बहुत सी अफ़ग़ान जातियों को भेंटें, पेंशनें, जागीरें
एवं पद देकर अपने पक्ष में कर लिया। उत्तर पश्चिम के विद्रोह को दबाने में
औरंगज़ेब ने जहाँ अपनी पत्नी सहित अन्य लोगों के परामर्श के अनुसार मेल-जोल वाली
नीति का अनुसरण किया, वहीं दो शक्तियों को आपस में टकराकर उन्हें तोड़ने की नीति
का भी पालन किया। इसमें सन्देह नहीं कि मुग़लों के सीमा युद्धों का अंत सफलता के
साथ हुआ। परन्तु उसका अप्रत्यक्ष परिणाम साम्राज्य के लिए घातक सिद्ध हुआ।
पश्चिमोत्तर सीमा क्षेत्र
का यह अभियान औरंगज़ेब के लिए काफ़ी महंगा पड़ा। धन, जन की हानि के साथ दक्षिण भारत में मुग़लों की स्थिति कमज़ोर हुई। अपने जीवन के अन्तिम
समय में औरंगज़ेब को अपने किये पर घोर पछतावा हुआ तथा प्रायश्चित के साथ ही उसकी
मृत्यु हो गई।
औरंगज़ेब की मृत्यु
औरंगज़ेब जब मुघल साम्राज्य युद्ध कर रहा था तभी अचानक एक लड़ाकू
हाती ने उनके शरीर पर प्रहार किया, जिससे उन्हें कई दिनों तक चोटिल रहने के बाद भी वे युद्ध
में लड़ते रहे, युद्ध
का लगभग पूरा क्षेत्र हतियो से भरा पड़ा था और लड़ते-लड़ते ही अंत में उन्हें मृत्यु
प्राप्त हुई। और उनकी इसी बहादुरी से प्रेरित होकर उन्हें बहादुर का शीर्षक दिया
गया। अंतिम युद्ध में कमजोर पड़ने के बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी थी। वे मुघल
साम्राज्य के एक निडर योद्धा थे। उनका हमेशा से ऐसा मानना था की अगर आप बिना लड़ेही
शत्रु की ताकत देखकर ही हार मान लेते हो तो फिर आपसे बुरा कोई नहीं।
औरंगज़ेब के अन्तिम समय में दक्षिण में मराठों का ज़ोर बहुत बढ़ गया था।
उन्हें दबाने में शाही सेना को सफलता नहीं मिल रही थी। इसलिए सन 1683 में औरंगज़ेब
स्वयं सेना लेकर दक्षिण गया। वह राजधानी से दूर रहता हुआ, अपने शासन−काल
के लगभग अंतिम 25 वर्ष तक उसी अभियान में रहा। 50 वर्ष तक शासन करने के बाद उसकी
मृत्यु दक्षिण के अहमदनगर में 3 मार्च सन 1707 ई. में हो गई। दौलताबाद
में स्थित फ़कीर बुरुहानुद्दीन की क़ब्र के अहाते में उसे दफना दिया गया। उसकी
नीति ने इतने विरोधी पैदा कर दिये, जिस कारण मुग़ल साम्राज्य का अंत ही हो गया।
इसमें संदेह नहीं कि औरंगजेब मुगल सल्तनत के महान सम्राट थे और
उनका समय मुग़ल-साम्राज्य की समृध्दि की समृध्दि का स्वर्णिम युग था।
उनकी मृत्यु के 15-16 वर्ष बाद ही मुगल-साम्राज्य का सितारा डूब गया। बाबर
के खानदान के इस अंतिम मुगल सम्राट को अनेक कारणों से याद किया जाता
है। बाबर जहां भारत में मुगल-साम्राज्य के संस्थापक थे, वहां
औरंगजेब मुगल-साम्राज्य की समाप्ति का कारण बने।
औरंगज़ेब के निर्माण :-
1) औरंगज़ेब ने लाहौर की बादशाही मस्जिद बनवाई थी।
2) 1678 ई. में औरंगज़ेब ने अपनी पत्नी रबिया दुर्रानी की स्मृति में बीबी का मक़बरा बनवाया।
3) औरंगज़ेब ने दिल्ली के लाल क़िले में मोती मस्जिद बनवाई थी।
औरंगजेब इतिहास के सबसे सशक्त और शक्तिशाली राजा माने जाते थे।
उन्होंने पुरे भारत को अपने साम्राज्य में शामिल करने की कोशिश की।2) 1678 ई. में औरंगज़ेब ने अपनी पत्नी रबिया दुर्रानी की स्मृति में बीबी का मक़बरा बनवाया।
3) औरंगज़ेब ने दिल्ली के लाल क़िले में मोती मस्जिद बनवाई थी।
समकालीन संगीतज्ञ
1. सुखी सेन
2. कलावन्त
3. किरपा
4. हयात सरसनैन
5. रसबैन ख़ाँ
तत्कालीन साहित्य
1. रफ़ी ख़ाँ का मुन्तख़ब उल तवारीख़
2. मिर्ज़ा मुहम्मद क़ाज़िम का 'आलमगीर नामा'
3. मुहम्मद साक़ी का 'मआसिरे
आलमगीरी'
4. सुजानराय का 'ख़ुलासत-उल-तवारीख़'
5. ईश्वरदास का 'फ़ुतुहाते आलमगीरी'
6. भामसेन बुरहानपुरी का 'नुक्शा ए-दिलकुशाँ'
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