Friday 13 January 2017

तेमुर लंग एक निर्दयी शासक

तैमूरलंग


तैमूर लंग (अर्थात तैमूर लंगड़ा) (जिसे 'तिमूर' (8 अप्रैल 1336 18 फ़रवरी 1405) चौदहवी शताब्दी का एक शासक था जिसने महान तैमूरी राजवंश की स्थापना की थी। उसका राज्य पश्चिम एशिया से लेकर मध्य एशिया होते हुए भारत तक फैला था। उसकी गणना संसार के महान्‌ और निष्ठुर विजेताओं में की जाती है। वह बरलस तुर्क खानदान में पैदा हुआ था। उसका पिता तुरगाई बरलस तुर्कों का नेता था। भारत के मुग़ल साम्राज्य का संस्थापक बाबर तिमूर का ही वंशज था।
परिचय

तैमूर का जन्म सन्‌ 1336 में ट्रांस-आक्सियाना (Transoxiana), ट्रांस आमू और सर नदियों के बीच का प्रदेश, मावराउन्नहर, में केश या शहर-ए-सब्ज नामक स्थान में हुआ था। उसके पिता ने इस्लाम कबूल कर लिया था। अत: तैमूर भी इस्लाम का कट्टर अनुयायी हुआ। वह बहुत ही प्रतिभावान्‌ और महत्वाकांक्षी व्यक्ति था। महान्‌ मंगोल विजेता चंगेजखाँ की तरह वह भी समस्त संसार को अपनी शक्ति से रौंद डालना चाहता था और सिकंदर की तरह विश्वविजय की कामना रखता था। सन्‌ 1369 में समरकंद के मंगोल शासक के मर जाने पर उसने समरकंद की गद्दी पर कब्जा कर लिया और इसके बाद उसने पूरी शक्ति के साथ दिग्विजय का कार्य प्रारंभ कर दिया। चंगेज खाँ की पद्धति पर ही उसने अपनी सैनिक व्यवस्था कायम की और चंगेज की तरह ही उसने क्रूरता और निष्ठुरता के साथ दूर-दूर के देशों पर आक्रमण कर उन्हें तहस नहस किया। 1380 और 1387 के बीच उसने खुरासान, सीस्तान, अफगानिस्तान, फारस, अजरबैजान और कुर्दीस्तान आदि पर आक्रमण कर उन्हें अधीन किया। 1393 में उसने बगदाद को लेकर मेसोपोटामिया पर आधिपत्य स्थापित किया। इन विजयों से उत्साहित होकर अब उसने भारत पर आक्रमण करने का निश्चय किया। उसके अमीर और सरदार प्रारंभ में भारत जैसे दूरस्थ देश पर आक्रमण के लिये तैयार नहीं थे, लेकिन जब उसने इस्लाम धर्म के प्रचार के हेतु भारत में प्रचलित मूर्तिपूजा का विध्वंस करना अपना पवित्र ध्येय घोषित किया, तो उसके अमीर और सरदार भारत पर आक्रमण के लिये राजी हो गए।
मूर्तिपूजा का विध्वंस तो आक्रमण का बहाना मात्र था। वस्तुत: वह भारत के स्वर्ण से आकृष्ट हुआ। भारत की महान्‌ समृद्धि और वैभव के बारे में उसने बहुत कुछ बातें सुन रखी थीं। अत: भारत की दौलत लूटने के लिये ही उसने आक्रमण की योजना बनाई थी। उसे आक्रमण का बहाना ढूँढ़ने की अवश्यकता भी नहीं महसूस हुई। उस समय दिल्ली की तुगलुक सल्तनत फिरोजशाह के निर्बल उत्तराधिकारियों के कारण शोचनीय अवस्था में थी। भारत की इस राजनीतिक दुर्बलता ने तैमूर को भारत पर आक्रमण करने का स्वयं सुअवसर प्रदान दिया।
1398 के प्रारंभ में तैमूर ने पहले अपने एक पोते पीर मोहम्मद को भारत पर आक्रमण के लिये रवाना किया। उसने मुलतान पर घेरा डाला और छ: महीने बाद उसपर अधिकार कर लिया।
अप्रैल 1398 में तैमूर स्वयं एक भारी सेना लेकर समरकंद से भारत के लिये रवाना हुआ और सितंबर में उसने सिंधु, झेलम तथा रावी को पार किया। 13 अक्टूबर को वह मुलतान से 70 मील उत्तर-पूरब में स्थित तुलुंबा नगर पहुँचा। उसने इस नगर को लूटा और वहाँ के बहुत से निवासियों को कत्ल किया तथा बहुतों को गुलाम बनाया। फिर मुलतान और भटनेर पर कब्जा किया। वहाँ हिंदुओं के अनेक मंदिर नष्ट कर डाले। भटनेर से वह आगे बढ़ा और मार्ग के अनेक स्थानों को लूटता-खसोटता और निवासियों को कत्ल तथा कैद करता हुआ दिसंबर के प्रथम सप्ताह के अंत में दिल्ली के निकट पहुँच गया। यहाँ पर उसने एक लाख हिंदू कैदियों को कत्ल करवाया। पानीपत के पास निर्बल तुगलक सुल्तान महमूद ने 17 दिसम्बर को 40,000 पैदल 10,000 अश्वारोही और 120 हाथियों की एक विशाल सेना लेकर तैमूर का मुकाबिला किया लेकिन बुरी तरह पराजित हुआ। भयभीत होकर तुगलक सुल्तान महमू गुजरात की तरफ चला गया और उसका वजीर मल्लू इकबाल भागकर बारन में जा छिपा।
दूसरे दिन तैमूर ने दिल्ली नगर में प्रवेश किया। पाँच दिनों तक सारा शहर बुरी तरह से लूटा-खसोटा गया और उसके अभागे निवासियों को बेभाव कत्ल किया गया या बंदी बनाया गया। पीढ़ियों से संचित दिल्ली की दौलत तैमूर लूटकर समरकंद ले गया। अनेक बंदी बनाई गई औरतों और शिल्पियों को भी तैमूर अपने साथ ले गया। भारत से जो कारीगर वह अपने साथ ले गया उनसे उसने समरकंद में अनेक इमारतें बनवाईं, जिनमें सबसे प्रसिद्ध उसकी स्वनियोजित जामा मस्जिद है।
तैमूर भारत में केवल लूट के लिये आया था। उसकी इच्छा भारत में रहकर राज्य करने की नहीं थी। अत: 15 दिन दिल्ली में रुकने के बाद वह स्वदेश के लिये रवाना हो गया। 9 जनवरी 1399 को उसने मेरठ पर चढ़ाई की और नगर को लूटा तथा निवासियों को कत्ल किया। इसके बाद वह हरिद्वार पहुँचा जहाँ उसने आस पास की हिंदुओं की दो सेनाओं को हराया। शिवालिक पहाड़ियों से होकर वह 16 जनवरी को कांगड़ा पहुँचा और उसपर कब्जा किया। इसके बाद उसने जम्मू पर चढ़ाई की। इन स्थानों को भी लूटा खसोटा गया और वहाँ के असंख्य निवासियों को कत्ल किया गया। इस प्रकार भारत के जीवन, धन और संपत्ति को अपार क्षति पहुँचाने के बाद 19 मार्च 1399 को पुन: सिंधु नदी को पार कर वह भारतभूमि से अपने देश को लौट गया।
क्रूर-
तैमूर लंग दूसरा चंगेज़ख़ाँ बनना चाहता था। वह चंगेज़ का वंशज होने का दावा करता था, लेकिन असल में वह तुर्क था। वह लंगड़ा था, इसलिए 'तैमूर लंग' (लंग = लंगड़ा) कहलाता था। वह अपने बाप के बाद सन 1369 ई. में समरकंद का शासक बना। इसके बाद ही उसने अपनी विजय और क्रूरता की यात्रा शुरू की। वह बहुत बड़ा सिपहसलार था, लेकिन पूरा वहशी भी था। मध्य एशिया के मंगोल लोग इस बीच में मुसलमान हो चुके थे और तैमूर खुद भी मुसलमान था। लेकिन मुसलमानों से पाला पड़ने पर वह उनके साथ जरा भी मुलायमित नहीं बरतता था। जहाँ-जहाँ वह पहुँचा, उसने तबाही और बला और पूरी मुसीबत फैला दी। नर-मुंडों के बड़े-बड़े ढेर लगवाने में उसे ख़ास मजा आता था। पूर्व में दिल्ली से लगाकर पश्चिम में एशिया-कोचक तक उसने लाखों आदमी क़त्ल कर डाले और उनके कटे सिरों को स्तूपों की शक्ल में जमवाया।

बर्बर व्यक्तित्व

चंगेज़ ख़ाँ और उसके मंगोल भी बेरहम और बरबादी करने वाले थे, पर वे अपने ज़माने के दूसरे लोगों की तरह ही थे। लेकिन तैमूर उनसे बहुत ही बुरा था। अनियंत्रित और पैशाचिक क्रूरता में उसका मुक़ाबला करने वाला कोई दूसरा नहीं था। कहते हैं, एक जगह उसने दो हज़ार ज़िन्दा आदमियों की एक मीनार बनवाई और उन्हें ईंट और गारे में चुनवा दिया। 'तैमूर लंग' दूसरा चंगेज़ ख़ाँ बनना चाहता था। वह चंगेज़ का वंशज होने का दावा करता था, लेकिन असल में वह तुर्क था। वह लंगड़ा था, इसलिए 'तैमूर लंग' कहलाता था। वह अपने बाप के बाद सन 1369 ई. में समरकंद का शासक बना। इसके बाद ही उसने अपनी विजय और क्रूरता की यात्रा शुरू की। वह बहुत बड़ा सिपहसलार था, लेकिन पूरा वहशी भी था। मध्य एशिया के मंगोल लोग इस बीच में मुसलमान हो चुके थे और तैमूर खुद भी मुसलमान था। लेकिन मुसलमानों से पाला पड़ने पर वह उनके साथ जरा भी मुलामियत नहीं बरतता था। जहाँ-जहाँ वह पहुँचा, उसने तबाही और बला और पूरी मुसीबत फैला दी। नर-मुंडों के बड़े-बड़े ढेर लगवाने में उसे ख़ास मजा आता था। पूर्व में दिल्ली से लगाकर पश्चिम में एशिया-कोचक तक उसने लाखों आदमी क़त्ल कर डाले और उनके कटे सिरों को स्तूपों की शक़्ल में जमवाया।

भारत पर आक्रमण

१३९९ ई. में तैमूर का भारत पर भयानक आक्रमण हुआ। अपनी जीवनी 'तुजुके तैमुरी' में वह कुरान की इस आयत से ही प्रारंभ करता है 'ऐ पैगम्बर काफिरों और विश्वास न लाने वालों से युद्ध करो और उन पर सखती बरतो।' वह आगे भारत पर अपने आक्रमण का कारण बताते हुए लिखता है-
हिन्दुस्तान पर आक्रमण करने का मेरा ध्येय काफिर हिन्दुओं के विरुद्ध धार्मिक युद्ध करना है (जिससे) इस्लाम की सेना को भी हिन्दुओं की दौलत और मूल्यवान वस्तुएँ मिल जायें।
काश्मीर की सीमा पर कटोर नामी दुर्ग पर आक्रमण हुआ। उसने तमाम पुरुषों को कत्ल और स्त्रियों और बच्चों को कैद करने का आदेश दिया। फिर उन हठी काफिरों के सिरों के मीनार खड़े करने के आदेश दिये। फिर भटनेर के दुर्ग पर घेरा डाला गया। वहाँ के राजपूतों ने कुछ युद्ध के बाद हार मान ली और उन्हें क्षमादान दे दिया गया। किन्तु उनके असवाधान होते ही उन पर आक्रमण कर दिया गया। तैमूर अपनी जीवनी में लिखता है कि 'थोड़े ही समय में दुर्ग के तमाम लोग तलवार के घाट उतार दिये गये। घंटे भर में १०,००० (दस हजार) लोगों के सिर काटे गये। इस्लाम की तलवार ने काफिरों के रक्त में स्नान किया। उनके सरोसामान, खजाने और अनाज को भी, जो वर्षों से दुर्ग में इकट्‌ठा किया गया था, मेरे सिपाहियों ने लूट लिया। मकानों में आग लगा कर राख कर दिया। इमारतों और दुर्ग को भूमिसात कर दिया गया।
दूसरा नगर सरसुती था जिस पर आक्रमण हुआ। 'सभी काफिर हिन्दू कत्ल कर दिये गये। उनके स्त्री और बच्चे और संपत्ति हमारी हो गई। तैमूर ने जब जाटों के प्रदेश में प्रवेश किया। उसने अपनी सेना को आदेश दिया कि 'जो भी मिल जाये, कत्ल कर दिया जाये।' और फिर सेना के सामने जो भी ग्राम या नगर आया, उसे लूटा गया। पुरुषों को कत्ल कर दिया गया और कुछ लोगों, स्त्रियों और बच्चों को बंदी बना लिया गया।'
दिल्ली के पास लोनी हिन्दू नगर था। किन्तु कुछ मुसलमान भी बंदियों में थे। तैमूर ने आदेश दिया कि मुसलमानों को छोड़कर शेष सभी हिन्दू बंदी इस्लाम की तलवार के घाट उतार दिये जायें। इस समय तक उसके पास हिन्दू बंदियों की संख्या एक लाख हो गयी थी। जब यमुना पार कर दिल्ली पर आक्रमण की तैयारी हो रही थी उसके साथ के अमीरों ने उससे कहा कि इन बंदियों को कैम्प में नहीं छोड़ा जा सकता और इन इस्लाम के शत्रुओं को स्वतंत्र कर देना भी युद्ध के नियमों के विरुद्ध होगा। तैमूर लिखता है-
इसलिये उन लोगों को सिवाय तलवार का भोजन बनाने के कोई मार्ग नहीं था। मैंने कैम्प में घोषणा करवा दी कि तमाम बंदी कत्ल कर दिये जायें और इस आदेश के पालन में जो भी लापरवाही करे उसे भी कत्ल कर दिया जाये और उसकी सम्पत्ति सूचना देने वाले को दे दी जाये। जब इस्लाम के गाजियों (काफिरों का कत्ल करने वालों को आदर सूचक नाम) को यह आदेश मिला तो उन्होंने तलवारें सूत लीं और अपने बंदियों को कत्ल कर दिया। उस दिन एक लाख अपवित्र मूर्ति-पूजककाफिर कत्ल कर दिये गये।
तुगलक बादशाह को हराकर तैमूर ने दिल्ली में प्रवेश किया। उसे पता लगा कि आस-पास के देहातों से भागकर हिन्दुओं ने बड़ी संख्या में अपने स्त्री-बच्चों तथा मूल्यवान वस्तुओं के साथ दिल्ली में शरण ली हुई हैं। उसने अपने सिपाहियों को इन हिन्दुओं को उनकी संपत्ति समेत पकड़ लेने के आदेश दिये।
तैमूरलंग के शासन काल में भारत के लोगों पर जो अत्याचार हुए हैं, उसकी कहानी जानकर रूह कांप जाती है। तैमूरलंग लंगड़ा था, लेकिन उसमें क्रूरता कूट-कूटकर भरी थी। उसने इस्लाम को बढ़ाने के नाम पर पश्चिम एशिया से लेकर मध्य एशिया होते हुए भारत तक खूब लूटपाट और नरसंहार किया था। 
1.    पानीपत में तुगलक सुल्तान महमूद को हरा की थी दिल्ली पर चढ़ाई...
तैमूर बरलस के तुर्क खानदान में पैदा हुआ था। उसका पिता तुरगाई बरलस तुर्कों का नेता था। भारत में मुगल साम्राज्य का संस्थापक बाबर तैमूरलंग का ही वंशज था। बचपन में परिवार की माली हालत ठीक नहीं होने के चलते छोटी-मोटी चोरियां शुरू की, फिर लूट का इतना बड़ा नाम बन गया कि आज तक इसके मुकाबले कोई नाम नहीं है।
- उसके सलाहकार अमीर और लड़ाकू सरदार भारत पर आक्रमण के लिए तैयार नहीं थे, लेकिन जब उसने इस्लाम धर्म के प्रचार के लिए भारत में मूर्तिपूजा का विध्वंस करना अपना ध्येय घोषित किया तो उसके अमीर और सरदार भारत पर आक्रमण के लिए राजी हो गए।
- अप्रैल 1398 में तैमूर खुद बड़ी सेना लेकर समरकंद से भारत के लिए रवाना हुआ और सितंबर में उसने सिंधु, झेलम तथा रावी को पार किया। 
पानीपत के पास लड़ी गई जंग, फिर 15 दिन दिल्ली को लूटा
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तैमूर ने जब हरियाणा में प्रवेश किया तो उसने अपनी सेना को आदेश दिया कि जो भी मिल जाए, कत्ल कर दिया जाए। इसके बाद उसकी सेना के सामने जो भी गांव या नगर आया, उसे लूटा गया। पुरुषों को कत्ल कर दिया गया और स्त्रियों और बच्चों को बंदी बना लिया गया।
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पानीपत के पास निर्बल और कमजोर तुगलक सुल्तान महमूद ने 17 दिसंबर को 40,000 पैदल 10,000 अश्वारोही और 120 हाथियों की एक सेना लेकर तैमूर का मुकाबला किया, लेकिन बुरी तरह पराजित हुआ। 
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पानीपत की विजय के दूसरे दिन तैमूर ने दिल्ली शहर में प्रवेश किया। 5 दिन तक सारा शहर बुरी तरह से लूटा-खसोटा गया और लोगों का कत्ल किया गया। यहां उसने करीब दो लाख लोगों का कत्ल कुछ घंटे में करा दियाथा। 
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आम लोगों और व्यावसायियों की दिल्ली की दौलत तैमूर लूटकर समरकंद ले गया। अनेक जवान और बंदी बनाई गई औरतों और शिल्पियों को भी तैमूर अपने साथ ले गया। भारत से जो कारीगर वह अपने साथ ले गया उनसे उसने समरकंद में अनेक इमारतें बनवाईं।
तैमूरलंग भारत में केवल लूट के लिए ही आया था। उसकी इच्छा भारत में रहकर राज्य करने की नहीं थी, इसीलिए 15 दिन दिल्ली में रुकने के बाद वह स्वदेश के लिए रवाना हो गया।
और कहां-कहां किए तैमूर ने हमले-
- 9 जनवरी, 1399 को उसने मेरठ पर चढ़ाई की और पूरे मेरठ और आसपास के नगरों को लूटा और हजारों बेकसूर निवासियों को कत्ल किया। इसके बाद वह हरिद्वार पहुंचा, जहां उसने आसपास की हिंदुओं की दो सेनाओंकोहराया।
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शिवालिक पहाड़ियों से होकर वह 16 जनवरी को कांगड़ा पहुंचा और उसपर कब्जा किया। इसके बाद उसने जम्मू पर चढ़ाई की। इन स्थानों को भी लूटा-खसोटा गया और वहां के असंख्य निवासियों को कत्ल किया गया। 
भारत की दौलत का आकर्षण
भारत की दौलत ने इस वहशी को आकर्षित किया। अपने सिपहसलारों और अमीरों को भारत पर हमला करने के लिए राज़ी करने में इसे कुछ कठिनाई हुई। समरकंद में एक बड़ी सभा हुई, जिसमें अमीरों ने भारत जाने पर इसलिए ऐतराज किया कि वहाँ गर्मी बहुत ज़्यादा पड़ती है। अंत में तैमूर ने वादा किया कि वह भारत में ठहरेगा नहीं, लूट-मार करके वापस चला आयेगा। उसने अपना वादा पूरा भी किया।

तत्कालीन भारत

उत्तर भारत में उस वक़्त मुसलमानी राज्य था। दिल्ली में एक सुल्तान राज करता था। लेकिन यह मुसलमानी रियासत कमज़ोर थी और सरहद पर मंगोलों से बराबर लड़ाई करते-करते इसकी कमर टूट गई थी। इसलिए जब तैमूर मंगोलों की फ़ौज लेकर आया तो उसका कोई कड़ा मुक़ाबला नहीं हुआ और वह क़त्लेआम करता और खोपडियों के स्तूप बनाता हुआ मज़े के साथ आगे बढ़ता गया। हिन्दू और मुसलमान दोनों क़त्ल किये गए। मालूम होता है कि उनमें कोई फ़र्क़ नहीं किया गया। अब ज़्यादा क़ैदियों को सम्भालना मुश्किल हो गया तो उसने उनके क़त्ल का हुक्म दे दिया और इस तरह से एक लाख क़ैदी मार डाले गए। कहते हैं, एक जगह हिन्दू और मुसलमान दोनों ने मिलकर जौहर की राजपूती रस्म अदा की थी, यानी युद्ध में लड़ते-लड़ते मर जाने के लिए बाहर निकल पड़े थे। रास्ते भर वह यही करता गया। तैमूर की फ़ौज के पीछे-पीछे अकाल और महामारी चलती थी। दिल्ली में वह 15 दिन रहा और उसने इस बड़े शहर को कसाईख़ाना बना दिया। बाद में कश्मीर को लूटता हुआ वह समरकंद वापस लौट गया।

तैमूर के बाद दिल्ली

तैमूर के जाने के बाद दिल्ली मुर्दों का शहर रह गया। चारों तरफ अकाल और महामारी का राज था। दो महीने न कोई राजा था और न संगठन, न व्यवस्था। बहुत कम लोग ही वहाँ रह गये। यहाँ तक कि जिस आदमी को तैमूर ने दिल्ली का वाइसराय नियुक्त किया था, वह भी मुल्तान चला गया।

ईरान और इराक में तबाही

इसके बाद तैमूर ईरान और इराक में तबाही और बरबादी फैलाता हुआ पश्चिम की तरफ बढ़ा। अंगोरा में सन् 1402 ई. में उस्मानी तुर्कों की एक बड़ी फ़ौज के साथ इसका मुक़ाबला हुआ। अपने सैनिक कौशल से उसने तुर्कों को हरा दिया। लेकिन समुद्र के आगे उसका बस नहीं चला और वह बासफोरस को पार न कर सका। इसलिए यूरोप उससे बच गया।

वास्तुकला का शौक़ीन

हालाँकि तैमूर वहशी था, पर वह समरकंद में और मध्य एशिया में दूसरी जगहों पर ख़ूबसूरत इमारतें बनवाना चाहता था। इसलिए बहुत दिन पहले के सुल्तान महमूद की तरह उसने भारत के कारीगरों, राजगीरों और होशियार मिस्त्रियों को इकट्ठा किया और उन्हें अपने साथ ले गया। इनमें से जो सबसे अच्छे कारीगर और राजगीर थे, उन्हें उसने अपनी शाही नौकर में रख लिया। बाकी को उसने पश्चिम एशिया के ख़ास-ख़ास शहरों में भेज दिया। इस तरह इमारतें बनाने की कला की एक नई शैली का विकास हुआ।

मृत्यु

तीन वर्ष के बाद 18 फ़रवरी सन् 1405 ई. में, जब वह चीन की तरफ बढ़ रहा था, तैमूर मर गया। उसी के साथ उसका लम्बा-चौड़ा साम्राज्य भी, जो क़रीब-क़रीब सारे पश्चिम एशिया में फैला हुआ था, गर्त हो गया। उस्मानी तुर्कमिस्र और सुनहरे क़बीले इसे खिराज देते थे। लेकिन उसकी योग्यता सिर्फ़ उसकी अदभुत सिपहसलारी तक ही सीमित थी। साइबेरिया के बर्फिस्तान में उसकी कुछ रण-यात्रायें असाधारण रही हैं। पर असल में वह एक जंगली ख़ानाबदोश था। उसने न तो कोई संगठन बनाया और न ही चंगेज़ की तरह साम्राज्य चलाने के लिए अपने पीछे कोई क़ाबिल आदमी छोड़ा। इसलिए तैमूर का साम्राज्य उसी के साथ ही खत्म हो गया और सिर्फ़ बरबादी और क़त्लेआम की यादें अपने पीछे छोड़ गया। मध्य एशिया में होकर जितने भी भाग्य-परीक्षक और विजेता गुज़रे हैं, उनमें से चार के नाम लोगों को अभी तक याद हैं- सिकन्दरसुल्तान महमूदचंगेज़ ख़ाँ और तैमूर।





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