रानी
चेन्नम्मा (अंग्रेज़ी:Rani Chennamma, जन्म- 23 अक्तूबर, 1778, कित्तूर, कर्नाटक; मृत्यु- 21 फरवरी, 1829 ई.) का दक्षिण भारत के कर्नाटक में वही स्थान है जो स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का है। चेन्नम्मा ने लक्ष्मीबाई से पहले ही अंग्रेज़ों की सत्ता को सशस्त्र चुनौती दी थी और अंग्रेज़ों की सेना को
उनके सामने दो बार मुँह की खानी पड़ी थी। सन् १८२४ में (सन् १८५७ के भारत
के स्वतंत्रता के प्रथम संग्राम से भी ३३ वर्ष पूर्व) उन्होने हड़प नीति (डॉक्ट्रिन ऑफ लेप्स) के विरुद्ध
अंग्रेजों से सशस्त्र संघर्ष किया था। रानी
चेनम्मा के साहस एवं उनकी वीरता के कारण देश के विभिन्न हिस्सों खासकर कर्नाटक में
उन्हें विशेष सम्मान हासिल है और उनका नाम आदर के साथ लिया जाता है। हालांकि
उन्हें युद्ध में कामयाबी नहीं मिली और उन्हें कैद कर लिया गया। अंग्रेजों के कैद
में ही रानी चेनम्मा का निधन हो गया।
परिचय
'चेन्नम्मा' का अर्थ होता है- 'सुंदर कन्या'। इस सुंदर बालिका का जन्म 23 अक्तूबर, 1778 ई. में दक्षिण के कित्तूर (कर्नाटक)
नामक
स्थान पर काकतीय राजवंश में हुआ था। पिता धूलप्पा और
माता पद्मावती ने उसका पालन-पोषण राजकुल के पुत्रों की भाँति किया। उसे संस्कृत भाषा, कन्नड़ भाषा, मराठी भाषा और उर्दू भाषा के साथ-साथ घुड़सवारी, अस्त्र शस्त्र चलाने और युद्ध-कला की भी
शिक्षा दी गई
विवाह
बचपन से
ही घुड़सवारी, तलवारवाजी, तीरंदाजी में विशेष रुचि रखने
वाली रानी चेनम्मा का विवाह कित्तूर के राजा मल्लसर्ज के साथ हुआ। कित्तूर उन
दिनों मैसूर के उत्तर में एक छोटा स्वतंत्र
राज्य था। परन्तु यह बड़ा संपन्न था। यहाँ हीरे-जवाहरात के बाज़ार लगा करते थे और
दूर-दूर के व्यापारी आया करते थे। चेन्नम्मा ने एक पुत्र को जन्म दिया, पर उसकी जल्दी मृत्यु हो गई। कुछ दिन बाद राजा मल्लसर्ज भी
चल बसे। तब राजा मल्लासरता की रानी चेनम्मा ने पुत्र की मौत के बाद शिवलिंगप्पा को
अपना उत्ताराधिकारी बनाया। और चेन्नम्मा
के सहयोग से राजकाज चलाने लगा। शिवलिंग के भी कोई संतान नहीं थी। इसलिए
उसने अपने एक संबंधी गुरुलिंग को गोद लिया और वसीयत लिख दी कि राज्य का काम
चेन्नम्मा देखेगी। शिवलिंग की भी जल्दी मृत्यु हो गई।
डाक्ट्रिन
ऑफ लैप्स के अलावा रानी चेनम्मा का अंग्रेजों की कर नीति को लेकर भी विरोध था और
उन्होंने उसे मुखर आवाज दी। रानी चेनम्मा पहली महिलाओं में से थीं जिन्होंने
अनावश्यक हस्तक्षेप और कर संग्रह प्रणाली को लेकर अंग्रेजों का विरोध किया।
अंग्रेजों
के खिलाफ युद्ध में रानी चेनम्मा ने अपूर्व शौर्य का प्रदर्शन किया, लेकिन वह लंबे समय तक अंग्रेजी
सेना का मुकाबला नहीं कर सकी। उन्हें कैद कर बेलहोंगल किले में रखा गया जहां उनकी २१ फरवरी १८२९ को उनकी मौत हो गई। पुणे-बेंगलूरु राष्ट्रीय राजमार्ग पर बेलगाम के पास कित्तूर का राजमहल तथा
अन्य इमारतें गौरवशाली अतीत की याद दिलाने के लिए मौजूद हैं
कित्तूर पर
हमला
अंग्रेज़ों
की नजर इस छोटे परन्तु संपन्न राज्य कित्तूर पर बहुत दिन से लगी थी। अवसर मिलते ही
उन्होंने गोद लिए पुत्र को उत्तराधिकारी मानने से इन्कार कर दिया और वे राज्य को
हड़पने की योजना बनाने लगे। आधा राज्य देने का लालच देकर उन्होंने राज्य के कुछ
देशद्रोहियों को भी अपनी ओर मिला लिया। पर रानी चेन्नम्मा ने स्पष्ट उत्तर दिया कि
उत्तराधिकारी का मामला हमारा अपना मामला है, अंग्रेज़ों का इससे कोई
लेना-देना नहीं। साथ ही उसने अपनी जनता से कहा कि जब तक तुम्हारी रानी की नसों में रक्त की एक भी बूँद है, कित्तूर को कोई नहीं ले सकता। रानी का उत्तर पाकर धारवाड़ के
कलेक्टर थैकरे ने 500 सिपाहियों के साथ कित्तूर का
किला घेर लिया। 23 सितंबर, 1824 का दिन था। किले के फाटक बंद
थे। थैकरे ने दस मिनट के अंदर आत्मसमर्पण करने की चेतावनी दी। इतने में अकस्मात
क़िले के फाटक खुले और दो हज़ार देशभक्तों की अपनी सेना के साथ रानी चेन्नम्मा
मर्दाने वेश में अंग्रेज़ों की सेना पर टूट पड़ी। थैकरे भाग गया। दो देशद्रोहियों
को रानी चेन्नम्मा ने तलवार ने मौत के घाट उतार दिया। अंग्रेज़ों ने मद्रास और मुंबई से कुमुक मंगा कर 3 दिसंबर, 1824 को फिर कित्तूर का किला घेर
लिया। परन्तु उन्हें कित्तूर के देशभक्तों के सामने फिर पीछे हटना पड़ा। दो दिन
बाद वे फिर शक्तिसंचय करके आ धमके। छोटे से राज्य के लोग काफ़ी बलिदान कर चुके थे।
चेन्नम्मा के नेतृत्व में उन्होंने विदेशियों का फिर सामना किया, पर इस बार वे टिक नहीं सके। रानी चेन्नम्मा को अंग्रेज़ों ने
बंदी बनाकर जेल में डाल दिया। उनके अनेक सहयोगियों को फाँसी दे दी और कित्तूर की
मनमानी लूट की।
मृत्यु
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