Monday 13 February 2017

सरोजिनी नायडू

सरोजिनी नायडू (१३ फरवरी १८७९ -  मार्च १९४९) सुप्रसिद्ध कवयित्री और भारत देश के सर्वोत्तम राष्ट्रीय नेताओं में से एक थीं। वह भारत के स्वाधीनता संग्राम में सदैव आगे रहीं।
'श्रम करते हैं हम
कि समुद्र हो तुम्हारी जागृति का क्षण
 
हो चुका जागरण
 
अब देखो, निकला दिन कितना उज्ज्वल।'
ये पंक्तियाँ सरोजिनी नायडू की एक कविता से हैं, जो उन्होंने अपनी मातृभूमि को सम्बोधित करते हुए लिखी थी।

जीवन परिचय

सरोजिनी नायडू का जन्म 13 फ़रवरी, सन् 1879 को हैदराबाद में हुआ था। इनके पिता अघोरनाथ चट्टोपाध्याय एक नामी विद्वान तथा माँ कवयित्री थीं और बांग्ला में लिखती थीं। अपने कवि भाई हरीन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय की तरह सरोजिनी को भी अपने माता-पिता से कविता–सृजन की प्रतिभा प्राप्त हुई थी। अघोरनाथ चट्टोपाध्याय 'निज़ाम कॉलेज' के संस्थापक और रसायन वैज्ञानिक थे। वे चाहते थे कि उनकी पुत्री सरोजिनी अंग्रेज़ी और गणित में निपुण हों। वह चाहते थे कि सरोजिनी जी बहुत बड़ी वैज्ञानिक बनें। यह बात मनवाने के लिए उनके पिता ने सरोजिनी को एक कमरे में बंद कर दिया। वह रोती रहीं। सरोजिनी के लिए गणित के सवालों में मन लगाने के बजाय एक कविता लेख लिखना ज़्यादा आसान था। सरोजिनी ने महसूस किया कि वह अंग्रेज़ी भाषा में भी आगे बढ़ सकती हैं और पारंगत हो सकती हैं। उन्होंने अपने पिताजी से कहा कि वह अंग्रेज़ी में आगे बढ़ कर दिखाएगीं। थोड़े ही परिश्रम के फलस्वरूप वह धाराप्रवाह अंग्रेज़ी भाषा बोलने और लिखने लगीं। इस समय लगभग 13 वर्ष की आयु में सरोजिनी ने 1300 पदों की 'झील की रानी' नामक लंबी कविता और लगभग 2000 पंक्तियों का एक विस्तृत नाटक लिखकर अंग्रेज़ी भाषा पर अपना अधिकार सिद्ध कर दिया। अघोरनाथ सरोजिनी की अंग्रेज़ी कविताओं से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने एस. चट्टोपाध्याय कृत 'पोयम्स' के नाम से सन् 1903 में एक छोटा-सा कविता संग्रह प्रकाशित किया।  बारह साल की छोटी सी उम्र में ही सरोजिनी ने मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली थी और मद्रास प्रेसीडेंसी में प्रथम स्थान प्राप्त किया था। इसके बाद उच्चतर शिक्षा के लिए उन्हें इंग्लैंड भेजा दिया गया जहाँ उन्होंने क्रमश: लंदन के 'किंग्ज़ कॉलेज' में और उसके बाद 'कैम्ब्रिज के गर्टन कॉलेज' में शिक्षा ग्रहण की। कॉलेज की शिक्षा में सरोजिनी की विशेष रुचि नहीं थी और इंग्लैंड का ठंडा तापमान भी उनके स्वास्थ्य के अनुकूल नहीं था। वह स्वदेश लौट आयी।

विवाह और उसके बाद

सरोजिनी नायडू सन् 1898 में इंग्लैंड से लौटीं। उस समय वह डॉ. गोविन्दराजुलु नायडू के साथ विवाह करने के लिए उत्सुक थीं। डा. गोविन्दराजुलु एक फ़ौज़ी डाक्टर थे, जिन्होंने तीन साल पहले सरोजिनी के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा था। पहले तो सरोजिनी के पिता इस विवाह के विरुद्ध थे किन्तु बाद में यह सम्बन्ध तय कर दिया गया। सरोजिनी नायडू ने हैदराबाद में अपना सुखमय वैवाहिक जीवन का आरम्भ किया। डॉ. नायडू की वह बड़े प्यार से देखभाल करतीं। उन्होंने स्नेह और ममता के साथ अपने चार बच्चों की परवरिश की। उनके हैदराबाद के घर में हमेशा हंसी, प्यार और सुन्दरता का वातावरण छाया रहता था। सरोजिनी नायडू के घर के दरवाज़े सबके लिए खुले रहते थे। दूर-दूर से कितने ही दोस्त उस घर में आते रहते थे और सबका वह प्रेम से सत्कार करतीं। वह उन्हें स्वादिष्ट भोजन खिलातीं और ज़िन्दादिली और विनोदप्रियता से उनका मन बहलातीं। वह अपने और परिवार से हमेशा प्यार करती थीं। उन्हें हैदराबाद शहर से बहुत प्यार था जिसकी समृद्ध सभ्यता उनके ख़ून में घुलमिल गई थी। वह उर्दू शायरी की शौक़ीन थीं। हालाँकि आम भाषाओं में वह ज़्यादातर अंग्रेज़ी में भाषण दिया करतीं थीं, उर्दू भाषा के प्रति भी वह बड़ी आकर्षित थीं और काफ़ी अच्छी उर्दू बोल लेती थीं। वह सुखी थीं और संतुष्ट थीं। उस समय की उनकी कविता में उनके मन में उमड़ रहे उल्लास की झलक मिलती है। लेकिन अपने घर की दुनिया में इतनी सुखी होने पर भी वह जो कुछ थीं उसके अधिक कुछ और बनना चाहती थीं। उनकी आँखें अपने सुखमय घर की दीवारों से बाहर कुछ ढूँढ रहीं थीं। गोपाल कृष्ण गोखले उनके अच्छे मित्र थे। वह भारत को अंग्रेज़ी हुक़ूमत से आज़ाद करने के काम में लगे हुए थे। उन्होंने सरोजिनी नायडू को अपने घर के एकान्त से बाहर निकल कर, अपने जीवन और गीतों को राष्ट्र की सेवा में समर्पित कर देने के लिए प्रेरित किया। सरोजिनी नायडू गांधीजी से सन् 1914 में लंदन में मिली। उस मुलाकात के बाद जीवन को भविष्य का पथ मिल गया। उन्होंने पूरी तरह से राजनीति को अपना लिया और इसके बाद फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा।

राष्ट्रीय राजनीति में

देश की राजनीति में क़दम रखने से पहले सरोजिनी नायडू दक्षिण अफ़्रीका में गांधी जी के साथ काम कर चुकी थी। गांधी जी वहाँ की जातीय सरकार के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे और सरोजिनी नायडू ने स्वयंसेवक के रूप में उन्हें सहयोग दिया था। भारत लौटने के बाद तुरन्त ही वह राष्ट्रीय आंदोलन में सम्मिलित हो गई। शुरू से ही वह गांधी जी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रति वफ़ादार रहीं। उन्होंने विद्यार्थी और युवाओं की सभाओं में भाषण दिए। अनेक शहरों और गाँवों में महिलाओं और आम सभाओं को सम्बोधित किया। सरोजिनी नायडू का स्वास्थ्य कभी अच्छा नहीं रहा। लेकिन उनका मनोबल दृढ़ था। युवावस्था में नहीं, बल्कि बड़ी उम्र होने पर भी वह जोश और उत्साह के साथ काम करती रहीं। यह देखकर सब विस्मित रह जाते थे। उनके साथियों और प्रशंसकों को हैरानी होती थी कि इतनी अजेय शक्ति उन्होंने कहाँ से पाई है।
१९१४ में इंग्लैंड में वे पहली बार गाँधीजी से मिलीं और उनके विचारों से प्रभावित होकर देश के लिए समर्पित हो गयीं। एक कुशल सेनापति की भाँति उन्होंने अपनी प्रतिभा का परिचय हर क्षेत्र (सत्याग्रह हो या संगठन की बात) में दिया। उन्होंने अनेक राष्ट्रीय आंदोलनों का नेतृत्व किया और जेल भी गयीं। संकटों से घबराते हुए वे एक धीर वीरांगना की भाँति गाँव-गाँव घूमकर ये देश-प्रेम का अलख जगाती रहीं और देशवासियों को उनके कर्तव्य की याद दिलाती रहीं। उनके वक्तव्य जनता के हृदय को झकझोर देते थे और देश के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिए प्रेरित कर देते थे। वे बहुभाषाविद थी और क्षेत्रानुसार अपना भाषण अंग्रेजी, हिंदी, बंगला या गुजराती में देती थीं। लंदन की सभा में अंग्रेजी में बोलकर इन्होंने वहाँ उपस्थित सभी श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया था।
अपनी लोकप्रियता और प्रतिभा के कारण १९२५ में कानपुर में हुए कांग्रेस अधिवेशन की वे अध्यक्षा बनीं और १९३२ में भारत की प्रतिनिधि बनकर दक्षिण अफ्रीका भी गईं। श्रीमती एनी बेसेन्ट की प्रिय मित्र और गाँधीजी की इस प्रिय शिष्या ने अपना सारा जीवन देश के लिए अर्पण कर दिया।  मार्च १९४९ को उनका देहांत हुआ। १३ फरवरी १९६४ को भारत सरकार ने उनकी जयंती के अवसर पर उनके सम्मान में १५ नए पैसे का एक डाकटिकट भी जारी किया।

राज्यपाल

स्वाधीनता की प्राप्ति के बाद, देश को उस लक्ष्य तक पहुँचाने वाले नेताओं के सामने अब दूसरा ही कार्य था। आज तक उन्होंने संघर्ष किया था। किन्तु अब राष्ट्र निर्माण का उत्तरदायित्व उनके कंधों पर गया। कुछ नेताओं को सरकारी तंत्र और प्रशासन में नौकरी दे दी गई थी। उनमें सरोजिनी नायडू भी एक थीं। उन्हें उत्तर प्रदेश का राज्यपाल नियुक्त कर दिया गया। वह विस्तार और जनसंख्या की दृष्टि से देश का सबसे बड़ा प्रांत था। उस पद को स्वीकार करते हुए उन्होंने कहा, 'मैं अपने को 'क़ैद कर दिये गये जंगल के पक्षी' की तरह अनुभव कर रही हूँ।' लेकिन वह प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की इच्छा को टाल सकीं जिनके प्रति उनके मन में गहन प्रेम स्नेह था। इसलिए वह लखनऊ में जाकर बस गईं और वहाँ सौजन्य और गौरवपूर्ण व्यवहार के द्वारा अपने राजनीतिक कर्तव्यों को निभाया।

नारी अधिकारों की समर्थक

सरोजिनी नायडू को विशेष रूप से राष्ट्रीय नेता और नारी-मुक्ति की समर्थक के रूप में याद किया जाता है। राष्ट्रीय नेता होने के कारण उन्हें हमेशा देश की राजनीतिक निर्भरता की चिन्ता रहती थी और एक नारी होने के कारण वह भारतीय नारी की दुखद स्थिति से परिचित थीं। नारी के प्रति हो रहे अन्यायों के विरुद्ध उन्होंने आवाज़ उठाई। नारियों को उनके मूलभूत अधिकारों से वंचित रखने वाली सामाजिक व्यवस्था का उन्होंने विरोध किया। वह नारीवादी नहीं थीं लेकिन भारत की नारियों को जिन समस्याओं और कठिनाईयों का सामना करना पड़ रहा था उनका उन्हें पूरा-पूरा ख़्याल था। नारियों को शिक्षा से वंचित रखा जाता था और बहुत-सी सामाजिक रूढ़ियों ने उन्हें जकड़ रखा था। सरोजिनी नायडू 'नारी मुक्ति आंदोलन' को भारत के स्वाधीनता संग्राम का एक हिस्सा ही समझती थीं। वह अपने शब्दों की पूर्ण शक्ति के साथ पुरुष और स्त्रियों, दोनों के बीच जाकर नारी शिक्षा की आवश्यकताओं पर ज़ोर देती थीं। अंधकारमय मध्य युग से पहले नारी को जो प्रतिष्ठा प्राप्त थी उसकी वह अपने श्रोताओं को हमेशा याद दिलाती थीं। सरोजिनी नायडू की नज़रों में शिक्षा नारी मुक्ति की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण क़दम था। शिक्षित होकर ही नारी अपने परिवार और समाज को बेहतर बना सकती है। इस उक्ति में उनका पूर्ण विश्वास था कि 'जो हाथ पालना झुलाते हैं वही दुनिया पर शासन करते हैं।' लेकिन उनका यह भी विश्वास था कि किसी अज्ञानी और अशिक्षित नारी का हाथ यह नहीं कर सकता है।
स्त्रियों को अपनी क्षमता और अधिकारों का बोध होना भी उनके मत में नारी-शिक्षा जितनी ही महत्त्वपूर्ण था। जहाँ-जहाँ वह गईं वहाँ-वहाँ उन्होंने इन बातों पर ज़ोर दिया। नारी के विकास के विषय में उनकी चिन्ता को देखते हुए उनका 'अखिल भारतीय महिला परिषद' (आल इंडिया विमेन्स कान्फ्रेंस) से जुड़ना स्वाभाविक ही था। यह देश की सबसे पुरानी और महत्त्वपूर्ण नारी संस्था है। आज भारत की नारियों को जो राजनीतिक, आर्थिक और क़ानूनी अधिकार प्राप्त हैं, उन्हें दिलाने में इस संस्था का बहुत बड़ा योगदान रहा है। लेडी धनवती रामा राव और दूसरी अनेक सामाजिक कार्यकर्ताओं की सेवाओं का इस संस्था को लाभ मिला है।
 विजयलक्ष्मी पंडित, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, लक्ष्मी मेनन, हंसाबेन मेहता जैसी बहुत सी महिलाएँ इससे जुड़ी रही हैं। ब्रिटेन की नारी-अधिकारों की प्रसिद्ध समर्थक मार्गरेट कजिन्स का सक्रिय मार्गदर्शन भी इस संस्था को प्राप्त हुआ। अपने जीवन के सक्रिय वर्षों में सरोजिनी नायडू इस संस्था की गतिविधियों की प्रेरणा रही। भारतीय नारी मुक्ति के आंदोलन में दिये गये उनके योगदान और इस संस्था के लिए उनकी सेवाओं को ध्यान में रखते हुए अखिल भारतीय महिला परिषद के नई दिल्ली स्थित केन्द्रीय दफ़्तर को 'सरोजिनी हाउस' नाम दिया गया है। उन्होंने जो इस देश की महिलाओं के लिए किया है उसके लिए उन्हें याद किया जाएगा। उनके प्रभावशाली शब्दों के लिए याद किया जाएगा, जिन्होंने नारी को उसके अधिकारों और शक्ति के प्रति जागरूक किया और जिनके द्वारा वे बेहतर नागरिक और बेहतर इंसान बनीं।

स्मृति में डाक टिकट

13 फ़रवरी, 1964 को भारत सरकार ने उनकी जयंती के अवसर पर उनके सम्मान में 15 नए पैसे का डाक टिकट भी चलाया। इस महान देशभक्त को देश ने बहुत सम्मान दिया। सरोजिनी नायडू को विशेषत: 'भारत कोकिला', 'राष्ट्रीय नेता' और 'नारी मुक्ति आन्दोलन की समर्थक' के रूप में सदैव याद किया जाता रहेगा।

भारत कोकिला

मद्रास विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में उन्हें इतने अधिक अंक प्राप्त हुए जितने इससे पहले किसी को भी प्राप्त नहीं हुए थे। उनके पिता गर्व से कहते थे कि वह वैज्ञानिक न बन सकीं, किंतु उन्होंने माँ से प्रेरणा लेकर कविताएं लिखीं, बांग्ला भाषा में नहीं अपितु अंग्रेज़ी में। स्वदेश में उन्हें 'गाने वाली चिड़िया' का नाम मिला और विदेश, इंग्लैंड में उन्हें 'भारत कोकिला' कहकर सम्मानित किया गया। डायरी लेखन, नाटक, उपन्यास आदि सभी विधाओं में उन्होंने रचनायें की।

मृत्यु

सरोजिनी नायडू की जब 2 मार्च सन् 1949 को मृत्यु हुई तो उस समय वह राज्यपाल के पद पर ही थीं। लेकिन उस दिन मृत्यु तो केवल देह की हुई थी। अपनी एक कविता में उन्होंने मृत्यु को कुछ देर के लिए ठहर जाने को कहा था.....
मेरे जीवन की क्षुधा, नहीं मिटेगी जब तक
मत आना हे मृत्यु, कभी तुम मुझ तक।

उनका जीवन लाभदायक और परिपूर्ण था। उस जीवन से उन्हें आत्मसंतुष्टि प्राप्त हुई थी या नहीं यह तो कोई नहीं बता सकता लेकिन जितना उनके जीवन के बारे में जानते हैं उससे इतना तो ज़रूर कहा जा सकता है कि उन्होंने अपने जीवन को एक उद्देश्य दिया था और उसी के अनुरूप वह जीती रही थीं। ऐसा जीवन बहुत लोगों को नसीब नहीं होता। 'गीत के विषाद से जीवन का विषाद' मिटा देने के लिए वह प्रयास करती रहीं। उसी तरह उन्होंने जीवन बिताया। आने वाली पीढ़ियाँ इसी रूप में उन्हें याद करती रहेंगी। उन्हें याद रखने का यही एक ढंग है— 'सरोजिनी नायडू जो प्रेम और गीत के लिए जीती रहीं।' जैसा गांधी जी ने कहा था, सच्चे अर्थों में वह 'भारत कोकिला' थीं।

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